Wednesday, December 30, 2020

पुस्तक चर्चा साहबनामा मुकेश नेमा


 

पुस्तक चर्चा
साहबनामा
मुकेश नेमा
पृष्ठ २२४ , मूल्य २२५ रु
मेन्ड्रेक पब्लिकेशन , भोपाल
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज , नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

कहा जाता है कि दो स्थानो के बीच दूरी निश्चित होती है . पर जब जब कोई पुल बनता है , कोई सुरंग बनाई जाती है या किसी खाई को पाटकर लहराती सड़क को सीधा किया जा है तब यह दूरी कम हो जाती है . मुकेश नेमा जी का साहबनामा पढ़ा . वे अपनी प्रत्येक रचना में सहज अभिव्यक्ति का पुल बनाकर , दुरूह भाषा के पहाड़ काटकर स्मित हास्य के तंज की सुरंग गढ़ते हैं और बातों बातो में अपने पाठक के चश्मे और अपनी कलम के बीच की खाई पाटकर आड़े टेढ़े विषय को भी पाठक के मन के निकट लाने में सफल हुये हैं .
साहबनामा उनकी पहली किताब है . मेन्ड्रेक पब्लिकेशन , भोपाल ने लाइट वेट पेपर पर बिल्कुल अंग्रेजी उपन्यासो की तरह बेहतरीन प्रिंटिग और बाइंडिग के साथ विश्वस्तरीय किताब प्रस्तुत की है.पुस्तक लाइट वेट है ,  किताब रोजमर्रा के लाइट सबजेक्ट्स समेटे हुये है . लाइट मूड में पढ़े जाने योग्य हैं . लाइट ह्यूमर हैं जो पाठक के बोझिल टाइट मन को लाइट करते हैं . लेखन लाइट स्टाईल में है पर कंटेंट और व्यंग्य वजनदार हैं .
अलटते पलटते किताब को पीछे से पढ़ना शुरू किया था , बैक आउटर कवर पर निबंधात्मक शैली में उन्होने अपना संक्षिप्त परिचय लिखा है , उसे भी जरूर पढ़ियेगा , लिखने की  स्टाईल रोचक है . किताब के आखिरी पन्ने पर उन्होने खूब से आभार व्यक्त किये हैं . किताब पढ़ने के बाद उनकी हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता समझकर मैं लिखना चाहता हूं कि वे अपने स्कूल के हिन्दी टीचर के प्रति आभार व्यक्त करना भूल गये हैं . जिस सहजता से वे सरल हिन्दी में स्वयं को व्यक्त कर लेते हैं , अपरोक्ष रूप से उस शैली और क्षमता को विकसित करने में उनके बचपन के हिन्दी मास्साब का योगदान मैं समझ सकता हूं .
जिस लेखक की रचनाये फेसबुक से कापी पोस्ट होकर बिना उसके नाम के व्हाट्सअप के सफर तय कर चुकी हों उसकी किताब पर कापीराइट की कठोर चेतावनी पढ़कर तो मैं समीक्षा में भी लेखों के अंश उधृत करने से डर रहा हूं . एक एक्साईज अधिकारी के मन में जिन विषयो को लेकर समय समय पर उथल पुथल होती रही हो उन्हें दफ्तर , परिवार , फिल्मी गीतों , भोजन , व अन्य विषयो के उप शीर्षको क्रमशः साहबनामा में १८ व्यंग्य , पतिनामा में ८ , गीतनामा में १० , स्वादनामा में १० , और संसारनामा में १६ व्यंग्य लेख , इस तरह कुल जमा ६२ छोटे छोटे ,विषय केंद्रित सारगर्भित व्यंग्य लेखो का संग्रह है साहबनामा .
यह लिखकर कि वे कम से कम काम कर सरकारी नौकरी के मजे लूटते हैं , एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी होते हुये भी लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो साहस मुकेश जी ने दिखाया है मैं  उसकी प्रशंसा करता हूं . दुख इस बात का है कि यह आइडिया मुझे अब मिल रहा है जब सेवा पूर्णता की कगार पर हूं  .
किताब के व्यंग्य लेखों की तारीफ में या बड़े आलोचक का स्वांग भरने के लिये व्यंग्य के प्रतिमानो के उदाहरण देकर सच्ची झूठी कमी बेसी निकालना बेकार लगता है . क्योंकि, इस किताब से  लेखक का उद्देश्य स्वयं को परसाई जैसा स्थापित करना नही है . पढ़िये और मजे लीजीये . मुस्कराये बिना आप रह नही पायेंगे इतना तय है . साहबनामा गुदगुदाते व्यंग्य लेखो का संग्रह है .
इस पुस्तक से स्पष्ट है कि फेसबुक का हस्य , मनोरंजन वाला लेखन भी साहित्य का गंभीर हिस्सा बन सकता है . इस प्रवेशिका से अपनी अगली किताबों में  कमजोर के पक्ष में खड़े गंभीर साहित्य के व्यंग्य लेखन की जमीन मुकेश जी ने बना ली है . उनकी कलम संभावनाओ से भरपूर है .
रिकमेंडेड टू रीड वन्स.
 चर्चाकार विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज , नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

Tuesday, December 29, 2020

पुस्तक चर्चा अब तक ७५ , श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें


 

पुस्तक चर्चा
अब तक ७५ , श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें
संचयन व संपादन डा लालित्य ललित और डा हरीश कुमार सिंह
पृष्ठ २३६ , मूल्य ३०० रु
इंडिया नेट बुक्स गौतम बुद्ध नगर , दिल्ली
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज , नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

लाकडाउन अप्रत्याशित अभूतपूर्व घटना थी . सब हतप्रभ थे . किंकर्त्व्यविमूढ़ थे . कहते हैं यदि हिम्मत न हारें तो जब एक खिड़की बंद होती है तो कई दरवाजे खुल जाते हैं . लाकडाउन से जहां एक ओर रचनाकारो को समय मिला , वैचारिक स्फूर्ति मिली वहीं उसे अभिव्यक्त करने के लिये इंटरनेट के सहारे सारी दुनियां का विशाल कैनवास मिला . डा लालित्य ललित वह नाम है जो अकेले बढ़ने की जगह अपने समकालीन मित्रो को साथ लेकर दौड़ना जानते हैं . वे सक्रिय व्यंग्यकारो का एक व्हाट्सअप समूह चला रहे हैं . देश परदेश के सैकड़ो व्यंग्यकार इस समूह में उनके सहगामी हैं . इस समूह ने अभिनव आयोजन शुरू किये . प्रतिदिन एक रचनाकार द्वारा नियत समय पर एक व्यंग्यकार की नयी रचना की वीडीयो रिकार्डिंग पोस्त की जाने लगी . उत्सुकता से हर दिन लोग नयी रचना की प्रतीक्षा करने लगे , सबको लिखने , सुनने , टिप्पणिया करने में आनंद आने लगा . यह आयोजन ३ महीने तक अविराम चलता रहा . रचनायें उत्कृष्ट थी . तय हुआ कि क्यो न लाकडाउन की इस उपलब्धि को किताब का स्थाई स्वरूप दिया जाये , क्योंकि मल्टी मीडिया के इस युग में भी किताबों का महत्व यथावत बना हुआ है . ललित जी की अगुआई में हरीश जी ने सारी पढ़ी गई रचनायें संग्रहित की गईं , वांछित संपादन किया गया . इस किताब में स्थान पाना व्यंग्यकारो में प्रतिष्ठा प्रश्न बन गया . इ्डिया नेटबु्क्स ने प्रकाशन भार संभाला , निर्धारित समय पर महाकाल की नगरी उज्जैन में भव्य आयोजन में विमोचन भी संपन्न हुआ . देश भर के समाचारो में किताब बहुचर्चित रही .
अब तक पचहत्तर में अकारादि क्रम में अजय अनुरागी की रचना लॉकडाउन में फंसे रहना , अजय जोशी की छपाक लो एक और आ गया,  अतुल चतुर्वेदी की कैरियर है तो जहान है,  अनीता यादव की रचना ऑनलाइन कवि सम्मेलन के साइड इफेक्ट , अनिला चाड़क की रचना करोना का रोना , अनुराग बाजपाई की रचना प्रश्न प्रदेश बनाम उत्तर प्रदेश , अमित श्रीवास्तव की भैया जी ऑनलाइन , अरविंद तिवारी की खुद मुख्तारी के दिन , अरुण अरुण खरे की रचना साब का मूड ,  अलका अग्रवाल नोट नोटा और लोटा , अशोक अग्रोही की रचना करोना के सच्चे योद्धा , अशोक व्यास चुप बहस चालू है , आत्माराम भाटी सपने में कोरोना ,आशीष दशोत्तर संक्रमित समय और नाक का सवाल , मेरी राजनीतिक समझ कमलेश पांडे , मेरा अभिनंदन कुंदन सिंह परिहार , 21वीं सदी का ट्वेंटी ट्वेंटी  केपी सक्सेना दूसरे , मैं तो पति परमेश्वर हूं जी गुरमीत बेदी , नाम में क्या रखा है चन्द्रकान्ता , चीन की लुगाई हमार गांव आई जय प्रकाश पांडे ,  अगले जन्म मोहे खंबानी कीजो जवाहर चौधरी , बाप रे इतना बुरा था आदमी टीका राम साहू , टथोफ्रोबिया  दिलीप तेतरवे , जाने पहचाने चेहरे दीपा गुप्ता शामिल हैं .
कहानी कान की देवकिशन पुरोहित , हे कोरोना कब तक रोएं तेरा रोना देवेंद्र जोशी , पिंजरा बंद आदमी और खुले में टहलते जानवर निर्मल गुप्त , टांय टांय फिस्स नीरज दैया , हिंदी साहित्य का नया वाद कोरोनावाद पिलकेंद्र अरोड़ा , बहुमत की बकरी प्रभात गोस्वामी , स्थानांतरण मस्तिष्क का प्रमोद तांबट , सुन बे रक्तचाप प्रेम जनमेजय , यस बास प्रेमविज , सेवानिवृति का संक्रमण काल बल्देव त्रिपाठी , मन के खुले कपाट बुलाकी शर्मा , मेरा स्कूल ब्युटीफुल भरत चंदानी , जी की बात मलय जैन , आवश्यकता गरीब बस्ती की मीनू अरोड़ा , हिंदी साहित्य की मदद मुकेश नेमा , श्रद्धांजलि की ब्रेकिंग न्यूज़ मुकेश राठौर , छबि की हत्या मृदुल कश्यप , और सपने को सिर पर लादे चल पड़ा रामखेलावन गांव की ओर रण विजय राव , यमलोक में सन्नाटा रतन जेसवानी , चालान रमाकांत ताम्रकार , छूमंतर काली कंतर रमेश सैनी , बुरी नजर वाले रवि शर्मा मधुप ,  झक्की मथुरा प्रसाद रश्मि चौधरी , डरना मना है राकेश अचल , करोना से मरो ना राजशेखर चौबे,  वाह री किस्मत राजेंद्र नागर ,  स्वच्छ भारत राजेश कुमार,  लॉकडाउन में आत्मकथा लिखने का टाइम रामविलास जांगिड़,  पांडेय जी बन बैठे जिलाधिकारी गाजियाबाद लालित्य ललित , कोरोना वायरस वर्षा रावल के लेख हैं
फॉर्मेट करना पड़ेगा वायरस वाला 2020 विवेक रंजन श्रीवास्तव , आई एम अनमैरिड वीणा सिंग , सरकार से सरकार तक वेद प्रकाश भारद्वाज , रतन झटपट आ और करोड़पति बन वेद माथुर , दीपिका आलिया और मेरी मजबूरी शरद उपाध्याय , नैनं छिद्यन्ति शस्त्राणि श्याम सखा श्याम , करोना तुम कब जाओगे संजय जोशी , टीपूजी से कपेजी संजय पुरोहित , अंगुलीमाल का अहिंसा का नया फंडा संजीव निगम , मैडम करुणा की प्रेस कान्फ्रेंस संदीप सृजन,  हमाई मजबूरी जो है समीक्षा तैलंग , तस्वीर बदलनी चाहिये  सुदर्शन वशिष्ठ , रुपया और करोना सुधर केवलिया , लॉकडाउन के घर में सुनीता शानू , मन लागा यार फकीरी में सुनील सक्सेना , तुम क्या जानो पीर पराई सुषमा राजनीति व्यास, लाकडाउन में तफरी सूरत ठाकुर , भाया बजाते रहो स्वाति श्वेता , क्वारंटाइन वार्ड स्वर्ग में हनुमान मुक्त , मैं तो अपनी बैंक खोलूंगा पापा हरीश कुमार सिंह और अस्पताल में एंटरटेनमेंट हरीश नवल के व्यंग्य सम्मलित हैं .
जैसा कि व्यंग्य लेखों के शीर्षक ही स्पष्ट कर रहे हैं किताब के अधिकांश  व्यंग्य करोना पर केंद्रित तत्कालीन पृष्ठभूमि के हैं . जब भी भविष्य में हिन्दी साहित्य में कोरोना काल के सृजन पर शोध कार्य होंगे इस किताब को संदर्भ ग्रंथ के रूप में लिया ही जायेगा यह तय मानिये . आप को इन व्यंग्य लेखो को पढ़ना चाहिये . देखना सुनना हो तो यूट्यूब खंगालिये शायद लेखक के नाम या व्यंग्य के नाम से कहीं न कही ये व्यंग्य सुलभ हों . क्योकि हर व्यंग्य का वीडियो पाठ मैंने व्हाट्सअप ग्रुप पर कौतुहल से देखा सुना है . बधाई सभी सम्मलित रचनाकारो को , जिनमें वरिष्ठ , कनिष्ठ , नियमित सक्रिय , कभी जभी लिखने वाले , महिलायें , इंजीनियर, डाक्टर , संपादक , सभी शामिल हैं . बधाई संपादक द्वय को और प्रकाशक जी को .
 चर्चाकार विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज , नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

Tuesday, December 22, 2020

आदमी होने की तमीज सिखाता व्यंग्य संग्रह// ‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’

 //आदमी होने की तमीज सिखाता व्यंग्य संग्रह//

‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’



श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व्यंग्य लेखन जगत का जाना माना नाम है । पेशे से इंजीनियर होते हुए भी भाषा और साहित्य में मजबूत पकड़ रखते हैं । यही कारण है कि लंबी सी बात को कम से कम शब्दों में कह देना उनके लेखन की विशेषता है । उनका मानना है कि कोई भी व्यंग्य रचना अपने आप में इतनी चुटीली हो कि उसे प्रभावशाली बनाने के लिए शाब्दिक साज-सज्जा की जरूरत ही न पड़े । सौम्य स्वभाव के विवेक रंजन का यही स्वभाव रचनाओं में देखा जा सकता है । वे बड़ी से बड़ी विसंगति को बिना आक्रोषित हुए बहुत ही सौम्यता से सामने रखने में महारथी हैं । अर्थात ‘‘जोर का झटका धीरे से’’ वाली कथनी चरितार्थ होती सी लगती है । संग्रह की दसवें नंबर की रचना ‘‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’’ जो पुस्तक का शीर्षक भी है रचनाकार की इसी गंभीरता को उजागर करती है । लेखक का आशय है कि अक्सर लोगों की भलाई के लिए बनाये गये कानून भी आदमी के लिये समस्या बन चुके हैं । संक्षेप में कहें तो इस संग्रह की सभी  रचनाऐं अव्यवस्थित व्यवस्था को आगाह करती नजर आती हैं । 


व्यंग्य का उद्देश्य है नकारात्मकता से सकारात्मका की ओर चलना । गलत का प्रतिकार करने की ताकत समाज को देना । आज पूरा देश आँकड़ेबाजी के खेल में मस्त है । आँकड़ेबाजी का यह खेल जिस  मजबूती से अपनी जड़ें जमा रहा है उसके सामने मुँह से निकले आश्वासन भी निरर्थक साबित हो रहे हैं । आज पूरा देश इसी आँकड़ेबाजी के मोहजाल में घिरकर अपनी पीठ ठोंक रहा है । टी.वी. पर आने वाला घटिया से घटिया उत्पाद भी मार्केटिंग की इसी चाल से प्रभावित होकर अपने पांसे फेंक रहा है।  ।  ताज्जुब की बात है कि रंग बदलते माहौल में आम आदमी झूठ को ही सच समझकर कठपुतली की तरह नाच रहा है । वह हतप्रभ है आंकड़ेबाजी के इस मायाजाल से, मगर चाहकर भी इससे मुक्त नहीं हो सकता । क्योंकि चाटुकारिता से बजबजाती आज के राजनीतिक जलाशय के किनारे कोई कबीर खड़ा दिखाई नहीं देता जो ललकार कर आवाज बुलंद करने का हौंसला रखता हो । ‘‘जो घर जारे आपना सो चले हमारे साथ’’


आज का समाज ऐसी विषम स्थिति में जीने को मजबूर है, जिसे बार बार हर जरूरत के लिए पंजीकृत होने के अगम्य और दुष्कर रास्तों से होकर गुजरना पड़ रहा है । रह रह कर मन में आशंका जन्म ले रही कि आने वाले समय में शायद आम आदमी को अपने पेट के भूख की पंजीयन के लिये भी मजबूर कर दिया जायेगा । ताकि वह साबित कर सके कि भगवान ने उसे भी वह पेट दिया है जिसमें भूख लगती है । ‘‘व्यंग्यकार समस्या का पंजीकरण में एक जगह लिखता है कि अगले बरस चुनाव होने वाले है । राम भरोसे को उम्मीद है कि कठिनाइयों का कुछ न कुछ तो हल निकलेगा ही । मगर समस्या यह कि जब तक वह समस्या का पंजीकरण नहीं करवायेगा तब तक उसकी समस्या दर्ज ही नहीं होगी । इस पंजीयन के लिये रामभरोसे खिड़की दर खिड़की झांकता फिरता है मगर हर खिड़की  बंद होने के कारण उसे निराश कर देती है । तात्पर्य यह है कि रामभरोसे का भूखे रहना भी पंजीयन के बिना मान्य नहीं है । साथ में पेट की फोटोकापी भी जमा करनी होगी जो डाक्टर द्वारा सत्यापति हो कि यह रामभरोसे का ही पेट है । इतनी जिल्लतों के बाद भी आम आदमी बुरा नहीं मानता । क्योंकि सरकारी फरमान का बुरा मानना भी राष्ट्रद्रोह मान लिया गया है ।


आज की राजनीति की गाड़ी ठकुर सुहाती के पेट्रोल से चलती है । जी हुजूरी में ही पैसा है, रूतवा है और शांति है । इसमें पंजीयन के लिये जिल्लत नहीं उठानी पड़ती । पेट की भूख शांत करना है तो जी हुजूरी का चिमटा बजाकर भजन गाना क्या बुरा है? प्रभु ‘‘मेरे अवगुण चित न 

धरो’’ । इसमें शर्म किस बात की । आज की राजनीति में शर्म नामक शब्द सिरे से बर्खास्त कर दिया गया है । हमारे पूर्वज भी कह गये हैं कि ‘‘जिसने की शरम उसके फूटे करम’’ आज की व्यवस्था ने उसे जस का तस अपना लिया है । ‘‘शर्म तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ’’ शीर्षक व्यंग्य संग्रह में दर्ज है । आज के अपडेट होते समय में पुरानी हिदायतों को वापस लाना आउट डेटेड मान लिया गया है । जो शर्म पहले जीवन का आभूषण मानी जाती थी आज वही अभ्रदता और किस्से कहानियों का हिस्सा बन गई है । आज अपनी गलती पर शर्मसार होना अभद्रता की कैटेगरी में शामिल हो गया है, चाहे जितना झूठ बोलो । चाहे जितना दूसरों का सुख छीनकर अपना घर भर लो मगर शर्म मत करो । कुर्सी की खातिर अपने आपको बेंच दो । कोई कुछ नहीं कहेगा । क्योंकि बिकना तो हमारी परंपरा है । जो सदियों से चली आ रही है।


विवेक रंजन जी गांधी और कबीर के सिद्धांतो के हिमायती हैं । एक जगह वे अति संवेदनशील होकर लिखते हैं कि आज खैर मांगने से भी किसी कमजोर की मजबूरी कम नहीं हो सकती । और न ही किसी भूखे को रोटी मिल सकती है । रचनाकार का मानना है कि मांगना केवल एक शब्द मात्र नहीं है । एक आशा है । विश्वास है । प्रार्थना है ।जो किसी मजबूर की हारी हुई आंखों से निकलती है । अतः जब तक व्यवस्था इस मजबूरी को दूर करने का प्रण अपने आचरण में नहीं उतारेगी तब तक किसी रामभरोसे का जीवन सुधर नहीं सकता । आज दिखावे का दौर चल रहा है । जिसमें खाली वायदों के गुब्बारे उड़ाते रहो, समस्यायें वहीं की वहीं रहेंगी । आशय यह है कि जब तक उन गुब्बारों में संवेदनशीलता की हवा नहीं भरी जायेगी तब तक दूर के ढोल सुहावने ही रहेंगे ।


उनके संग्रह में संग्रहीत सभी रचनाएँ सामयिक समस्याओं को लेकर लिखी गई हैं । फिर चाहे शराब की समस्या हो या मास्क की । सीबीआई की बात हो या स्वर्ग के द्वार पर कोरोना टेस्ट की । बिना पंजीकरण के तो आप बीमार भी नहीं पड़ सकते । इस प्रकार हम देखते हैं कि इन रचनाओं को आकार देते समय रचनाकार की पारखी नजर ऊंचाई पर उड़ते द्रोण की तरह चहुँतरफा देखती और परखती है । न केवल देखती है बल्कि उसमें निहित विसंगतियों का विरोध भी करती है । आम आदमी को सचेत करती है । उसे अधिकारों के प्रति सजग होना सिखाती है । लेखक की नजर चाहती है कि जीवन में चारों ओर समरसता का फैलाव हो । ताकि हर आदमी को वे सारे अधिकार मिल सकें जिनका वह अधिकारी होता है । 


संक्षेप में कह सकते हैं कि व्यंग्य लेखन ऐसा पाना है जिसकी सहायता से समाज में फैली  बुराइयों को उखाड़ फेंका जा सकता है । परसाई के शब्दों में व्यंग्य एक ऐसी स्पिरिट है जो समाज को अंधेरे से उजाले की ओर प्रेरित करता है । इसी उद्देश्य के साथ संग्रह की सभी रचनाएँ आदमी को आदमी होने की तमीज सिखाती हुई आगे बढ़ती हैं । पेशे से इंजीनियर होने के नाते उनका संग्रह इस बात की पुरजोर वकालत करता है कि रचनायें लिखी नहीं जाती गढ़ी जाती हैं । वह अपनी वैचारिक छैनी और हथौड़ी से एक एक शब्द के अर्थ और प्रसंग को 

ध्यान में रखते हुये इस प्रकार गढ़ता है कि कोई भी रचना व्यर्थ के शब्दों से बोझीली न होने पाये । उनकी छोटे छोटे कलेवर वाली हर रचना ‘‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’’ वाली बिहारी के दृष्टिकोण को साबित करती है । यही कारण है कि उनकी हर रचना शुरू से अंत तक एक माला में, गुंथे हुये फूलों सी लगती है । समीक्षक यदि संग्रह में किसी त्रुटि का उल्लेख न करें तो उसकी ईमानदारी पर शक होता है । अतः एक बात कहना चाहूंगी कि संग्रह के शीर्षक में जुड़े ‘‘व अन्य व्यंग्य’’ शब्द पढ़ते हुये किसी आधार पाठ्य पुस्तक सा भ्रम होने लगता है । अतः ये शब्द व्यंग्य संग्रह के लिए सार्थक से नहीं लग रहे।


इन्हीं शब्दों के साथ व्यंग्यकार को शुभकामनाएँ देती हूँ और आशा करती हूँ कि उनका यह व्यंग्य संग्रह अपने उद्देश्य में सफल होकर व्यंग्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा । 


लेखक - विवेक रंजन श्रीवास्तव    

प्रकाशन- इंडिया नेट बुक्स, दिल्ली

मूल्य - 300/- हार्ड बाउंड

200/- पेपर बैक


          समीक्षाकार

डा. स्नेहलता पाठक

9406351567

नव वर्ष तुम्हारा अभिनन्दन

 

वर्ष 2021 के आगमन के अवसर पर
 नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन
प्रोफ़ेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध A1 शिला कुंज जबलपुर

सदियों से जग करता आया नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन 
नई आशा ले करता आया पूजन आराधन विनत नमन
 सबके मन में है उत्सुकता नववर्ष तुम्हारे आने की 
सुख प्रद नवीनता की खुशियां अपने संग संग में लाने की

आओ दे जाओ नवल दृष्टि इस जग में रहने वालों को
 बेमतलब छोटे स्वार्थो हित आपस में उलझने वालों को
 आओ लेकर नूतन प्रकाश इस जग को स्वर्ग बनाने को
 जो दीन दुखी शोषित वंचित उन सब को सुखी बनाने को

 आवश्यक लगता, हो परिवर्तन जन मन के सोच विचारों में
 विद्वेश ना हो सद्भाव बढे आपस के सब व्यवहारों में 
उन्नति हो सबको मिले सफलता सब शुभ कारोबारों  में 
आनंद दायिनी खबरें ही पढ़ने को मिले अखबारों में 

जो कामनाएं पूरी न हुई उनको अब नव आकाश मिले 
जो बंद अंधेरे कमरे हैं उनको सुखदाई प्रकाश मिले 
जो विजय न पाए उनके माथे पर विजय का हो चंदन 
सब जग को सुखप्रद शांति मिले नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन

Sunday, December 20, 2020

विश्व सिटिजिन शिप की मांग का समय है आज



विश्व शांति के लिए दुनिया के पदयात्री--- प्रेमकुमार , 21 वी सदी के साहित्यकारों के मंच पर , प्रो राजेशकुमार से विस्तृत बातचीत

विश्व सिटिजिन शिप की मांग का समय है आज 


        आज "21वीं सदी के साहित्यकार" के बैनर तले "दुनिया मेरे कदमों में" कार्यक्रम के अंतर्गत 'दुनिया को पैदल नापने वाली शख्सियत से मुलाकात' कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे, विश्व पदयात्री प्रेम कुमार। इनसे बातचीत की वरिष्ठ साहित्यकार और भाषाविद डॉ. राजेशकुमार ने। कार्यक्रम की अध्यक्षता की वरिष्ठ व्यंग्यकार और व्यंग्य यात्रा के संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय ने।

          कार्यक्रम का संचालन प्रतिष्ठित व्यंग्यकार परवेश जैन ने किया और दीपा स्वामीनाथन से इष्ट वंदना की। विशिष्ट अतिथियों और श्रोताओं के स्वागत किया दुबई से कवियित्री स्नेहा देव ने। 

         1421 दिन पैदल 17000 किलोमीटर पैदल चलने वाले विश्व पदयात्री प्रेम कुमार  के बारे में विशिष्ट जानकारी दी, वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रभात गोस्वामी ने। उन्होंने बताया कि पैदल चलकर दुनिया नापने और विश्व शांति कायम करने के सपने को पूरा करने वाले अहमदाबाद निवासी प्रेम कुमार  भौतिक शास्त्र और दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं। उन्होंने विभिन्न देशों की यात्रा की और "फ्रेंड्स ऑफ ऑल" नामक संगठन का गठन किया । इन्होंने 2 अक्तूबर,1982 से यात्रा शुरू की जो 6 अगस्त, 1986 तक चली। यह यात्रा यूरोप के विभिन्न देशों से होते हुए अमेरिका, जापान के साथ-साथ देश के अनेक राज्यों की यात्रा की। इस दौरान प्रेम कुमार  को पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी, हरिवंश राय बच्चन, अमृता प्रीतम, अरुणा आसिफ अली का आशीर्वाद मिला। कई पुरस्कारों से सम्मानित भी हुए और सम्मान स्वरूप इन्हें अमरीका के बाल्टीमोर की नागरिकता भी मिली। 

        कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए प्रेम कुमार  से बातचीत आरम्भ की राजेश कुमार  ने। पैदल चलने की सार्थकता के सवाल के जवाब में प्रेम कुमार  ने कहा कि चलना इंसान की स्वाभाविक प्रक्रिया है। किसी भी मकसद के लिए, दुनिया तक अपनी बात पहुंचाने के लिए पदयात्रा करना, लोगों को जानना और भाषा-संस्कृति को समझना एक बहुत ही दिलचस्प बात है। इसके पूर्व भी बुद्ध, जैन, विनोबा भावे, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग ने भी यात्राएं कीं और उनके जो अनुभव रहे उससे उन्हें तो लाभ हुआ ही, दुनिया को भी काफी लाभ मिला। उन्होंने केवल दुनिया को जाना और समझा ही नहीं बल्कि दुनिया को बदलने को भी भरपूर कोशिश की और काफी हद तक अपने मकसद में सफल भी रहे। उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण बात कही कि किसी उद्देश्य के साथ चलने की बात ही कुछ और होती है।

         राजेश जी के एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि हमने मैंने किसी से पानी के अलावा कुछ नहीं मांगा और कभी पैसा अपने पास नहीं रखा। जब राजेश  ने पूछा कि आपके मन में चलने का ख्याल क्यों आया, इस पर प्रेम कुमार  ने जवाब दिया कि कुछ लोग किताबें लिखते हैं, और कुछ के ऊपर किताबों लिखी जाती हैं, तो मेरे मन में कुछ ऐसा ख्याल आया कि हमें कुछ अलग करना चाहिए। कुछ ऐसा करें कि लोग आपके बारे में किताबें लिखना शुरू करें। मैं किताब क्यों लिखूं, दूसरे लोग हमारे बारे में लिखें तो यह एक बड़ी बात होगी। उन्होंने कहा कि यदि विज्ञान और आध्यात्मिकता - दोनों को जोड़ दिया जाए तो इससे बढ़िया और कुछ नहीं। 

         अपनी यात्रा के अनुभवों के बारे में उन्होंने कहा कि दुनिया के सामने चार प्रश्न हैं -- राष्ट्रवाद, अमीर-गरीब की खाई, रंग-नस्ल का भेद और धार्मिक असहिष्णुता। यदि इन चारों को दुनिया से दूर करना है, मिटाना है तो हमें पहले दुनिया को समझना पड़ेगा। दुनिया को बहुत करीब से देखना पड़ेगा। दुनिया के अधिकांश देश चाहे एक प्रश्न से या दो प्रश्न से या चारों -- इन्हीं प्रश्नों से जूझ रहे हैं। हमें इनका हल निकालना पड़ेगा। उन्होंने अमेरिका की स्थिति के बारे में भी बात की कि किस तरह से वहां लोग परेशान हैं। 

         जब राजेश  ने कुछ रोचक संस्मरण के बारे में पूछा तो उन्होंने चेकोस्लोवाकिया के एक ट्रक ड्राइवर का उल्लेख करते हुए कहा कि मिखाइल मावलोविच नामक एक ट्रक ड्राइवर का उल्लेख किया। रास्ते में जब 'विश्व शांति के लिए पदयात्रा' बैनर लेकर आगे बढ़ रहे थे, तो रुक कर उसने उन्हें पानी पिलाया, साथ पैदल चलने के लिए उसकी कंपनी ने उसे छुट्टी दी और वह 10 दिनों तक उनके साथ पैदल चलता रहा। उन्होंने अमेरिका में पैदल यात्रा की रोचक दास्तान सुनाई। एक छोटे लड़के दोस्ती बढ़ाने के लिए उनकी तरफ हाथ बढ़ाया। उन्होंने कहा कि पैदल यात्रा दोस्ती बढ़ाने की यात्रा है, दोस्ती का पुल बनाने की यात्रा है।

       बातचीत के उपरांत प्रश्न-उत्तर में सत्र रामस्वरूप  के प्रश्न के जवाब में प्रेम कुमार  ने कहा कि दो प्रकार की ताकते हैं --- एक जोड़ने की और दूसरा तोड़ने की। हमें इन्हीं दो प्रश्नों से, इन्हीं दो ताकतों से पार पाना होगा। उन्होंने कहा कि उन्हीं देशों ने प्रगति की है जिन्होंने दूसरों के लिए दरवाजे खोले हैं। 

विवेक रंजन श्रीवास्तव ने विश्व शांति के उद्देश्य से की गई उनकी पदयात्रा  के संदर्भ में कहा कि अब ग्लोबल सिटीजन शिप की जरूरत लगती है , पक्षी तो मुक्त गगन में बिना वीसा या पासपोर्ट के साइबेरिया से भारत की यात्रा करते हैं पर इंसानो के लिए बार्डर हैं सरकारें हैं । आज आवश्यकता है कि अंतरिक्ष , विज्ञान , अन्वेषण आविष्कार पर मानव मात्र का अधिकार घोषित हो । यह समय विश्व सरकार का समय है ।  जिससे प्रेमकुमार जी ने समर्थन व्यक्त किया ।

           रणविजय राव के प्रश्न के जवाब में प्रेम कुमार  ने कहा कि रास्ते में कठिनाइयां आती हैं और बहुत आती हैं, लेकिन जब हम किसी उद्देश्य को लेकर चलते हैं तो वे कठिनाइयां बहुत छोटी लगने लगती हैं। उन्होंने कहा कि लोग मदद के लिए आते हैं और अपनी इतनी रातों में उन्हें केवल आठ रातें सड़कों पर गुजारनी पड़ीं।

         प्रेम कुमार ने 'प्याज' पर व्यंग्य कविता सुनाकर अपनी काव्य प्रतिभा का भी परिचय दिया। प्याज के छिलके, प्याज की उपयोगिता और प्याज के घटते-बढ़ते दामों पर बहुत ही रोचक और उम्दा कविता सुनाई।

वरिष्ठ कवि डॉ. संजीव कुमार ने कोरोना से पीड़ित होते हुए भी कार्यक्रम में शिरकत करके अपना जज़्बा दिखाया, और कहा कि प्रेम कुमार जी के संस्मरण अद्भुत और विरल हैं, और वे उन्हें प्रकाशित करके लोगों के हित के लिए सामने लाना चाहेंगे।


         अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. प्रेम जनमेजय ने कहा कि प्रेम कुमार  के सामने जो उद्देश्य हैं, जो उद्देश्य लेकर वह चल रहे हैं, हम सब उनके सामने बौने हैं। उन्होंने कहा कि प्रेम कुमार  एक पाठशाला हैं और हम सब उस पाठशाला के विद्यार्थी। उन्होंने कहा कि पर्यटन हमारा स्वार्थ होता है, पर पदयात्रा के लिए हमारा कोई मकसद होता है। प्रेम कुमार  पहाड़ों और जंगलों में पगडंडियां बनाने वाले हैं। वे अपने हाथ में कुदाल लेकर चलते हैं जो एक बहुत बड़ी बात है। उन्होंने कहा कि पदयात्रा हमें श्रमशील होना सिखाती है और जिम्मेदारियों का एहसास कराती है। 


         जापान की राजधानी टोकियो से प्रेम कुमार  की अर्धांगिनी तोमो  ने भी अपनी बात रखी। उन्होंने प्रेम  के बारे में कई रोचक दास्तान सुनाए। उन्होंने बड़ी बेबाकी से अपने अनुभव हिंदी भाषा में साझा की जिसे सुनकर हम सभी दर्शकों को बहुत खुशी हुई। कार्यक्रम में प्रेम कुमार  की तीनों बेटियां अलग-अलग देशों --- कनाडा, फ़्रांस और जापान से जुड़ी थीं। 

          धन्यवाद ज्ञापन किया वरिष्ठ व्यंग्यकार और कवि डॉ. लालित्य ललित ने। ललित  ने प्रेम कुमार  के दोस्ती के प्रसंग का उल्लेख करते हुए उन्होंने भी अपने घर का पता बताया जिसे सुनकर हम सभी मुस्कुराए बिना नहीं रहे। उन्होंने कहा कि यह बहुत ही अनोखा और अनूठा कार्यक्रम रहा, आज देश और दुनिया के अनेक जगहों से लोग जुड़े और एक रोचक संस्मरण हमें सुनने को मिला। 


          तकनीकी सहयोग दिया लोकप्रिय साहित्यकार सुरेश कुमार मिश्र  ने। कार्यक्रम में देश और दुनिया सहित समूह के सदस्य बड़ी संख्या में जुड़े रहे।

बता दूं क्या / पुस्तक चर्चा

 पुस्तक चर्चा

बता दूं क्या...

व्यंग्य संग्रह  

संपादन .. डा प्रमोद पाण्डेय

सह संपादक .. राम कुमार

पृष्ठ १४४ , मूल्य २९९ रु हार्ड कापी

ISBN 9788194815273

वर्ष २०२०

आर के पब्लिकेशन , मुम्बई

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , जबलपुर


महाराष्ट्र के राजभवन में , राज्यपाल कोशियारी जी ने विगत दिनो आर के पब्लिकेशन , मुम्बई

से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह बता दूं क्या... का विमोचन किया . संग्रह में देश के चोटी के पंद्रह व्यंग्यकारो के महत्वपूर्ण पचास सदाबहार व्यंग्य लेख संकलित हैं . एक मराठी भाषी प्रदेश से प्रकाशन और फिर बड़े गरिमामय तरीके से राज्यपाल जी द्वारा विमोचन यह रेखांकित करने को पर्याप्त है कि हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है . लगभग सभी समाचार माध्यमो से इस किताब के विमोचन की व्यापक चर्चा देश भर में हो रही है .

पाठक व्यंग्य पढ़ना पसंद कर रहे हैं . लगभग प्रत्येक समकालीन घटना पर व्यंग्य लेखन , त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में पहचान स्थापित कर चुका है . यह समय सामाजिक , राजनैतिक , साहित्यिक विसंगतियो का समय है . जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है , वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है . हर अखबार संपादकीय पन्नो पर प्रमुखता से रोज ही स्तंभ के रूप में व्यंग्य प्रकाशन करते हैं . ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है , व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा , उसकी उपेक्षा करते हुये , व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं . ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं . पर इन सारी परिस्थितियो के बीच चिरकालिक विषयो पर भी क्लासिक व्यंग्य लेखन हो रहा है . यह तथ्य बता दूं क्या... में संकलन हेतु चुने गये व्यंग्य लेख स्वयमेव उद्घोषित करते हैं . जिसके लिये युवा संपादक द्वय बधाई के सुपात्र है .

बता दूं क्या... पर टीप लिखते हुये प्रख्यात रचनाकार सूर्यबाला जी आश्वस्ति व्यक्त करती है कि अपनी कलम की नोंक तराशते वरिष्ठ व युवा व्यंग्यकारो का यह संग्रह व्यंग्य की उर्वरा भूमि बनाती है . निश्चित ही इस कृति में पाठको को व्यंग्य के कटाक्ष का आनंद मिलेगा , विडम्बनाओ पर शब्दो का अकाट्य प्रहार मिलेगा , व्यंग्य के प्रति रुचि जागृत करने और व्यंग्य के शिल्प सौष्ठव को समझने में भी यह कृति सहायक होगी . हय संग्रह किसी भी महाविद्यालयीन पाठ्य क्रम का हिस्सा बनने की क्षमता रखती है क्योंकि इसमें में पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी , डा हरीश नवल , डा सुधीर पचौरी , श्री संजीव निगम , श्री सुभाष काबरा , श्री सुधीर ओखदे , श्री शशांक दुबे , श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव , डा वागीश सारस्वत , सुश्री मीना अरोड़ा , डा पूजा कौशिक , श्री धर्मपाल महेंद्र जैन , श्री देवेंद्रकुमार भारद्वाज , डा प्रमोद पाण्डेय व श्री रामकुमार जैसे मूर्धन्य , बहु प्रकाशित व्यंग्य के महारथियो सहित युवा व्यंग्य शिल्पियो के स्थाई महत्व के दीर्घ कालिक व्यंग्य प्रकाशित किये गये हैं . व्यंग्यकारो में व्यवसाय से चिकित्सक , इंजीनियर , बैंककर्मी , शिक्षाविद , राजनेता , लेखक , संपादक , महिलायें , मीडीयाकर्मी , विदेश में हिन्दी व्यंग्य की ध्वजा लहराते व्यंग्यकार सभी हैं , स्वाभाविक रूप से इसके चलते रचनाओ में शैलीगत भाषाई विविधता है , जो पाठक को एकरसता से विमुक्त करती है .

किताब का शीर्षक व्यंग्य युवा समीक्षक डा प्रमोद पाण्डेय व कृति के संपादक का है , जिसमें उन्होने एक प्रश्न वाचक भाव बता दूं क्या .. को लेकर मजेदार व्यंग्य रचा है .आज जब सूचना के अधिकार से सरकार पारदर्शिता का स्वांग रच रही है ,एक क्लिक पर सब कुछ स्वयं अनावृत होने को उद्यत है , तब भी  सस्पेंस , ब्लैकमेल से भरा हुआ यह वाक्य बता दूं क्या किसी की भी धड़कने बढ़ाने को पर्याप्त है , क्योकि विसंगति यह है कि हम भीतर बाहर वैसे हैं नही जैसा स्वयं को दिखाते हैं . डा प्रमोद पाण्डेय के ही अन्य व्यंग्य भावना मर गई तथा गाली भी किताब का हिस्सा हैं . केनेडा के धर्मपाल महेंद्र जैन की तीन रचनायें साहब के दस्तखत , कलमकार नारे रचो व महालक्षमी जी की दिल्ली यात्रा प्रस्तुत की गई हैं . श्री देवेनद्र कुमार भारद्वाज की रचनायें काला धन , कलम किताब और स्त्री नरक में परसू , इश्तिहारी शव यात्रा व किट का कमाल , और रिटेलर चीफ गेस्ट का जमाना हैं .विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं  उनकी कई किताबें छप चुकी हैं कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं ,दृष्टि गंभीर है " आत्मनिर्भरता की उद्घोषणा करती सेल्फी" , "आभार की प्रतीक्षा" , और "श्रेष्ठ रचनाकारो वाली किताब के लिये व्यंग्य " उनकी प्रस्तुत रचनायें हैं . जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें सबसे बड़ी उपलब्धि पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी जी के व्यंग्य " मार दिये जाओगे भाई साब " एवं "सुअर के बच्चे और आदमी के" हैं ये व्यंग्य इंटरनेट या अन्य स्थानो पर पूर्व सुलभ स्थाई महत्व की उल्लेखनीय रचनायें हैं  . डा हरीश नवल जी की छोटी हाफ लाइनर ,बड़े प्रभाव वाली रचनायें हैं " गांधी जी का चश्मा" , लाल किला और खाई , चलती ट्रेन से बरसती शुचिता , वर्तमान समय और हम , अमेरिकी प्याले में भारतीय चाय . ये रचनायें वैचारिक द्वंद छेड़ते हुये गुदगुदाती भी हैं . डा सुधीश पचौरी साहित्यकार बनने के नुस्खे बताते हैं , हवा बांधने की कला सिखाते और हिन्दी हेटर को प्रणाम करते दिखते हें .  गहरे कटाक्ष करते हुये संजीव निगम ने "ताजा फोटो ताजी खबर" लिखा है , उनकी "अन्न भगवान हैं हम पक्के पुजारी" तथा तारीफ की तलवार , स्पीड लेखन की पैंतरेबाजी , एवं तकनीकी युग के श्रवण कुमार पढ़कर समझ आता है कि वे बदलते समय के सूक्ष्म साक्षी ही नही बने हुये हैं अभिव्यक्ति की उनकी क्षमतायें भी उन्हें लिख्खाड़ सिद्ध करती हैं . सुभाष काबरा जी वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं , उनके तीन व्यंग्य संकलन में शामिल हैं , बोरियत के बहाने , अपना अपना बसंत एवं विक्रम बेताल का फाइनल किस्सा . सुधीर ओखदे जी बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं , उनकी रचना सिगरेट और मध्यमवर्गीय , ईनामी प्रतियोगिता , व आगमन नये साहब का  पठनीय रचनायें हैं . शशांक दुबे व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना स्थापित नाम हैं . दाल रोटी खाओ , आपरेशन कवर , रद्दी तो रद्दी है उनकी महत्वपूर्ण रचनाये ली गई हैं . डा वागीश सारस्वत परिपक्व संपादक संयोजक व स्वतंत्र रचनाकार हैं , उन्होंने अपने व्यंग्य दीपक जलाना होगा , होली उर्फ इंडियन्स लवर्स डे , चमचई की जय हो , बेचारे हम के माध्यम से स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं .

महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है . मीना अरोड़ा के व्यंग्य जिन चाटा तिन पाईयां , भविष्य की योजना , योजना में भविष्य अलबेला सजन आयो रे , हेकर्स , टैगर्स , हैंगर्स उल्लेखनीय है . डा पूजा कौशिक बेचारे चिंटुकेश्वर दत्त , बुरे फंसे महाराज , पर्स की आत्मकथा लिखकर सहभागी हैं .

पुस्तक में व्यंग्य लेखों के एवं लेखको के चयन हेतु संपादक डा प्रमोद पाणडेय  व प्रकाशक तथा सह संपादक श्री रामकुमार बधाई के पात्र हैं .  सार्थक , दीर्घकालिक चुनिंदा व्यंग्य पाठको को सुलभ करवाने की दृष्टि से सामूहिक  संग्रह का अपना अलग महत्व होता है , जिसे दशको पहले तारसप्तक ने हिन्दी जगत में स्थापित कर दिखाया था , उम्मीद जागती है कि यह व्यंग्य संग्रह , व्यंग्य जगत में चौदहवी का चांद साबित होगा और ऐसे और भी संग्रह संपादक मण्डल के माध्यम से हिन्दी पाठको को मिलेंगे  . शुभेस्तु .


 


Thursday, December 17, 2020

पुस्तक चर्चा लाकडाउन व्यंग्य संग्रह संपादन .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

 पुस्तक चर्चा

लाकडाउन

व्यंग्य संग्रह  

संपादन .. विवेक रंजन श्रीवास्तव  


पृष्ठ १६४ , मूल्य ३५० रु

IASBN 9788194727217

वर्ष २०२०

रवीना प्रकाशन , गंगा विहार , दिल्ली

चर्चाकार .. डा साधना खरे , भोपाल


हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है . पाठको को व्यंग्य में कही गई बातें पसंद आ रही हैं .   व्यंग्य लेखन घटनाओ पर त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति का सशक्त मअध्यम बना है . जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है , वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है . ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है , व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा , उसकी उपेक्षा करते हुये , व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं . ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं .

विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं . उनकी कई किताबें छप चुकी हैं . उन्होने कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है . उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं . दृष्टि गंभीर है . विषयो की उनकी सीमायें व्यापक है .

वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया . दुनिया घरो में लाकडाउन हो गई . इस पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी . वैश्विक संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना . ऐसे समय में भी रचनात्मकता नही रुक सकती थी . कोरोना काल निश्चित ही साहित्य के एक मुखर रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा . इस कालावधि में खूब लेखन हुआ . इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक , गूगल मीट , जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हो रहे हैं . यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है .  विवेक जी ने भी रवीना प्रकाशन के माध्यम से कोरोना तथा लाकडाउन विषयक विसंगतियो पर केंद्रित व्यंग्य तथा काव्य रचनाओ का अद्भुत संग्रह लाकडाउन शीर्षक से प्रस्तुत किया है . पुस्तक आकर्षक है . संकलन में वरिष्ठ , स्थापित युवा सभी तरह के देश विदेश के रचनाकार शामिल किये गये हैं .

गंभीर वैचारिक संपादकीय के साथ ही रमेशबाबू की बैंकाक यात्रा और कोरोना तथा महादानी गुप्तदानी ये दो महत्वपूर्ण व्यंग्य लेख स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के हैं , जिनमें कोरोना जनित विसंगति जिसमें परिवार से छिपा कर की गई बैंकाक यात्रा तथा शराब के माध्यम से सरकारी राजस्व पर गहरे कटाक्ष लेखक ने किये हैं , गुदगुदाते हुये सोचने पर विवश कर दिया है .

जिन्होने भी कोरोना के आरंभिक दिनो में तबलीकी जमात की कोरोना के प्रति गैर गंभीर प्रवृत्ति और टीवी चैनल्स की स्वयं निर्णय देती रिपोर्टिग देखी है उन्हें जहीर ललितपुरी का व्यंग्य लाकडाउन में बदहजमी पढ़कर मजा आ जायेगा . डा अमरसिंह का लेख लाकडाउन में नाकडाउन में हास्य है, उन्होने पत्नी के कड़क कोरोना अनुशासन पर कटाक्ष किया है . लाकडाउन के समाज पर प्रभाव भावना सिंह ने मजबूर मजदूर , रोजगार , प्रकृति सारे बिन्दुओ का समावेश करते हुये  पूरा समाजशास्त्रीय अध्ययन कर डाला है .

कुछ जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि ब्रजेश कानूनगो जी का व्यंग्य " मंगल भवन अमंगल हारी " है . उन्होंने संवाद शैली में गहरे कटाक्ष करते हुये लिखा है " उन्हें अब बहुत पश्चाताप भी हो रहा था कि शास्त्रा गृह को समृद्ध करने के बजाय वे औषधि विज्ञान और चिकित्सालयों के विकास पर ध्यान क्यो नही दे पाये " . केनेडा से धर्मपाल महेंद्र जैन की व्यंग्य रचना वाह वाह समाज के तबलीगियों से पठनीय वैचारिक व्यंग्य रचना है . उनकी दूसरी रचना लाकडाउन में दरबार में उन्होंने धृतराष्ट्र के दरबार पर कोरोना जनित परिस्थितियों को आरोपित कर व्यंग्य उत्पन्न किया है . इसी तरह प्रभात गोस्वामी देश के विख्यात व्यंग्यकारो में से एक हैं , कोरोना पाजिटिव होने ने पाजिटिव शब्द को निगेटिव कर दिया है ,उनका व्यंग्य नेगेटिव बाबू का पाजिटिव होना बड़े गहरे अर्थ लिये हुये है ,वे लिखते हैं  हम राम कहें तो वे मरा कहते हैं .  सुरेंद्र पवार परिपक्व संपादक व रचनाकार हैं , उन्होंने अपने व्यंग्य के नायक बतोले के माध्यम से " भैया की बातें में"  घर से इंटरनेट तक की स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किया है . डा प्रदीप उपाध्याय वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं , उनके दो व्यंग्य संकलन में शामिल हैं , "कोरोनासुर का आतंक और भगवान से साक्षात्कार" तथा "एक दृष्टि उत्तर कोरोना काल पर" . दोनो ही व्यंग्य उनके आत्मसात अनुभव बयान करते बहुत रोचक हैं .  कोरोना काल में थू थू करने की परंपरा के माध्यम से युवा व्यंग्यकार अनिल अयान ने बड़े गंभीर कटाक्ष किये हैं , थू थू करने का उनका शाब्दिक उपयोग समर्थ व्यंग्य है . अजीत श्रीवास्तव बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं , उनकी रचना ही  शायद संग्रह का सबसे बड़ा लेख है  जिसमें छोटी छोटी २५ स्वतंत्र कथायें कोरोना काल की घटनाओ पर उनके सूक्ष्म निरीक्षण से उपजी हुई , पठनीय रचनायें हैं . राकेश सोहम व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना चर्चित नाम है , उनका छोटा सा लेख बंशी बजाने का हुनर बहुत कुछ कह जाताने में सफल रहा है . रणविजय राव ने कोरोना के हाल से बेहाल रामखेलावन में बहुत गहरी चोट की है , उन जैसे परिपक्व व्यंग्यकार से ऐसी ही गंभीर रचना की अपेक्षा पाठक करते हैं .

महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है . सबसे उल्लेखनीय नाम अलका सिगतिया का है . लाकडाउन के बाद जब शराब की दूकानो पर से प्रतिबंध हटा तो जो हालात हुये उससे उपजी विसंगती उनकी लेखनी का रोचक विषय बनी " तलब लगी जमात " उनका पठनीय व्यंग्य है .  अनुराधा सिंह ने दो छोटे सार्थक व्यंग्य सांप ने दी कोरोना को चुनौती और वर्क फ्राम होम ऐसा भी लिखा है . छाया सक्सेना प्रभु समर्थ व्यंग्यकार हैं उन्होने अपने व्यंग्य जागते रहो में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं वे लिखती हैं लाकडाउन में पति घरेलू प्राणी बन गये हैं , कभी बच्चो को मोबाईल से दूर हटाते माता पिता ही उन्हें इंटरनेट से पढ़ने  प्रेरित कर रहे हैं , कोरोना सब उल्टा पुल्टा कर रहा है . शेल्टर होम में डा सरला सिंह स्निग्धा की लेखनी करुणा उपजाती है  .सुशीला जोशी विद्योत्तमा की दो लघु रचनायें लाकडाउन व व्यसन संवेदना उत्पन्न करती हैं . राखी सरोज के लेख गंभीर हैं .

गौतम जैन ने अपनी रचना दोस्त कौन दुश्मन कौन में संवेदना को उकेरा है . डा देवेश पाण्डेय ने लोक भाषा का उपयोग करते हुये पनाहगार लिखा है . डा पवित्र कुमार शर्मा ने एक शराबी का लाकडाउन में शराबियो की समस्या को रेखांकित किया है . कोरोना से पीड़ित हम थे ही और उन्ही दिनो में देश में भूकम्प के जटके भी आये थे , मनीष शुक्ल ने इसे ही अपनी लेखनी का विषय बनाया है .डा अलखदेव प्रसाद ने स्वागतम कोरोना लिखकर उलटबांसी की हे . राजीव शर्मा ने कोरोना काल में मनोरंजक मीडीया लिखकर मीडीया के हास्यास्पद , उत्तेजना भरे  , त्वरित के चक्कर में असंपादित रिपोर्टर्स की खबर ली है .व्यग्र पाण्डे ने मछीकी और मास्क में प्रकृति पर लाकडाउन के प्रभाव पर मानवीय प्रदूषण को लेकर कटाक्ष किया है    . एम मुबीन ने कम शब्दो की रचना में बड़ी बातें कह दी हैं . दीपक क्रांति की दो रचनायें संग्रह का हिस्सा हैं , नया रावण तथा मजबूर या मजदूर , कोरोना काल के आरंभिक दिनो की विभीषिका का स्मरण इन्हें पढ़कर हो आता है . महामारी शीर्षक से धर्मेंद्र कुमार का आलेख पठनीय है .

दीपक दीक्षित , बिपिन कुमार चौधरी , शिवमंगल सिंह , प्रो सुशील राकेश , उज्जवल मिश्रा और राहुल तिवारी की कवितायें भी हैं .

कुल मिलाकर  पुस्तक बहुत अच्छी बन पड़ी है , यद्यपि प्रकाशन में सावधानी की जरूरत दिखती है , कई रचनाओ के शीर्षक गलती से हाईलाईट नही हो पाये हैं , रचनाओ के अंत में रचनाकारो के पते देने में असमानता खटकती है .कीमत भी मान्य परमंपरा जितने पृष्ठ उतने रुपये के फार्मूले पर किंचित अधिक लगती है ,  पर फिर भी लाकडाउन में प्रकाशित साहित्य की जब भी शोध विवेचना होगी इस संकलन की उपेक्षा नही की जा सकेगी यह तय है . जिसके लिये संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व प्रकाशक बधाई के पात्र हैं .