Saturday, January 28, 2017

मिले दल मेरा तुम्हारा

मिले दल मेरा तुम्हारा

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
९४२५८०६२५२

मुझे कोई यह बताये कि जब हमारे नेता "घोड़े"  नहीं हैं, तो फिर उनकी हार्स ट्रेडिंग कैसे होती है ?
जनता तो चुनावो में नेताओ को गधा मानकर  "कोई नृप होय हमें का हानि चेरी छोड़ न हुई हैं रानी" वाले मनोभाव के साथ या फिर स्वयं को बड़ा बुद्धिजीवी और नेताओ से ज्यादा श्रेष्ठ मानते हुये ,मारे ढ़केले बड़े उपेक्षा भाव से अपना वोट देती आई है . ये और बात है कि चुने जाते ही , लालबत्ती और खाकी वर्दी के चलते वही नेता हमारा भाग्यविधाता बन जाता है और हम जनगण ही रह जाते हैं .  यद्यपि जन प्रतिनिधि को मिलने वाली मासिक निधि इतनी कम होती है कि लगभग हर सरकार को ध्वनिमत से अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के बिल पास करने पड़ते हैं , पर जाने कैसे नेता जी चुने जाते  ही  बहुत अमीर बन जाते हैं . पैसे और पावर  ही शायद वह कारण हैं कि चुनावो की घोषणा के साथ ही जीत के हर संभव समीकरण पर नेता जी लोग और उनकी पार्टियां  गहन मंथन करती दिखती है .चुपके चुपके "दिल मिले न मिले ,जो मिले दल मेरा तुम्हारा तो सरकार बने हमारी " के सौदे , समझौते होने लगते हैं , चुनाव परिणामो के बाद ये ही रिश्ते हार्स ट्रेडिंग में तब्दील हो सकने की संभावनाओ से भरपूर होते हैं .
"मेरे सजना जी से आज मैने ब्रेकअप कर लिया" वाले सेलीब्रेशन के शोख अंदाज के साथ नेता जी धुर्र विरोधी पार्टी में एंट्री ले लेने की ऐसी क्षमता रखते हैं कि बेचारा रंगबदलू गिरगिटान भी शर्मा जाये . पुरानी पार्टी आर्काईव से नेताजी के पुराने भाषण जिनमें उन्होने उनकी नई पार्टी को भरपूर भला बुरा कहा होता है , तलाश कर वायरल करने में लगी रहती है . सारी शर्मो हया त्यागकर आमआदमी की भलाई के लिये उसूलो पर कुर्बान नेता नई पार्टी में अपनी कुर्सी के पायो में कीलें ठोंककर उन्हे मजबूत करने में जुटा रहता है . ऐसे आयाराम गयाराम खुद को सही साबित करने के लिये खुदा का सहारा लेने या "राम" को भी निशाने पर लेने से नही चूकते  .  जनता का सच्चा हितैषी बनने के लिये ये दिल बदल आपरेशन करते हैं और उसके लिये जनता का खून बहाने के लिये दंगे फसाद करवाने से भी नही चूकते . बाप बेटे , भाई भाई , माँ बेटे , लड़ पड़ते हैं जनता की सेवा के लिये हर रिश्ता दांव पर लगा दिया जाता है . पहले नेता का दिल बदलता है , बदलता क्या है , जिस पार्टी की जीत की संभावना ज्यादा दिखती है उस पर दिल आ जाता है . फिर उस पार्टी में जुगाड़ फिट किया जाता है .प्रापर मुद्दा ढ़ूढ़कर सही समय पर नेता अपने अनुयायियो की ताकत के साथ दल बदल कर डालता है .   वोटर का  दिल बदलने के लिये बाटल से लेकर साड़ी , कम्बल , नोट बांटने के फंडे अब पुराने हो चले हैं . जमाना हाईटेक है , अब मोबाईल , लेपटाप , स्कूटी , साईकिल बांटी जाती है . पर जीतता वो है जो सपने बांट सकने में सफल होता है . सपने अमीर बनाने के , सपने घर बसाने के , सपने भ्रष्टाचार मिटाने के . सपने दिखाने पर अभी तक चुनाव आयोग का भी कोई प्रतिबंध नही है . तो आइये सच्चे झूठे सपने दिखाईये , लुभाईये और जीत जाईये . फिर सपने सच न कर पाने की कोई न कोई विवशता तो ब्यूरोक्रेसी ढ़ूंढ़ ही देगी . और तब भी यदि आपको अगले चुनावो में दरकिनार होने का जरा भी डर लगे तो निसंकोच दिल बदल लीजीयेगा , दल बदल कर लीजीयेगा . आखिर जनता को सपने देखने के लिये एक अदद नेता तो चाहिये ही , वह अपना दिल फिर बदल लेगी आपकी कुर्बानियो और उसूलो की तारीफ करेगी और फिर से चुन लेगी आपको अपनी सेवा करने के लिये . ब्रेक अप के झटके के बाद फिर से नये प्रेमी के साथ नया सुखी संसार बस ही जायेगा . दिल बदल बनाम दलबदल ,  लोकतंत्र चलता रहेगा .

Monday, January 16, 2017

गुमशुदा पाठक की तलाश


किताबें और मेले बनाम गुमशुदा पाठक की तलाश

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
९४२५८०६२५२

    हमने वह जमाना भी  जिया है जब रचना करते थे , सुंदर हस्त लेख में लिखते थे , एक पता लिखा टिकिट लगा लिफाफा साथ रखते थे , कि यदि संपादक जी को रचना पसंद न आई तो " संपादक के अभिवादन व खेद सहित" रचना  वापस मिल जायेगी , कहीं और छपने के लिये भेजने को .  फिर डाक निकलने के समय से पहले चिट्ठी लाल डिब्बे में डालने जाते थे  . रचना छपने से पहले उसकी स्वीकृति आ जाती थी .  बुक स्टाल पर जाकर पत्रिका के नये अंक उलटते पलटते थे इस जिज्ञासा में कि रचना छपी ? फिर पारिश्रमिक का चैक या मनीआर्डर जिसे अपेक्षा से बहुत कम होने के चलते कई पत्रिकायें "पत्रं पुष्पं" लिखती थी आता था .   कितना मजा आता था , यह  सारी प्रक्रिया अनवरत जीवन चर्या बन गई थी . इसे हम मित्रमण्डली में लेखनसुख कहते थे . जब कोई खूब छप चुकता था , तब उसकी किताब छपने की बारी आती थी . रायल्टी के एग्रीमेंट के साथ प्रकाशक के आग्रह पर किताबें छपती थीं .  
    ईमेल ने और आरटीजीएस पेमेंट सिस्टम ने आज के लेखको को इस सुख से वंचित कर दिया है .  सिद्धांत है कि ढ़ेर सा पढ़ो , खूब सा गुनो , तब थोड़ा सा लिखो . जब ऐसा लेखन होता है तो वह शाश्वत बनता है . पर आज लिखने की जल्दी ज्यादा  है , छपने की उससे भी ज्यादा . संपादको की कसौटी से अपनी रचना गुजारना पसंद न हो तो ब्लाग , फेसबुक पोस्ट जैसे संसाधन है , सीधे कम्प्यूटर पर लिखो और एक क्लिक करते ही दुनियां भर में छप जाओ . रचना की केवल प्रशंसा ही सुननी हो और आपकी भक्त मण्डली बढ़िया हो तो व्हाट्सअप ग्रुप बना लो , आत्ममुग्ध रहो .    
     इस सारे आधुनिककरण ने डाटा बेस में भले ही हिन्दी किताबो की संख्या और पत्रिकाओ का सर्क्युलेशन बढ़ा दिया हो पर  वास्तविक पाठक कही खो गया है . लोग ठकुरसुहाती करते लगते हैं . एक दिन मेरी एक कविता अखबार के साप्ताहिक परिशिष्ट में छपी , मेरे एक मित्र मिले और उन्होने उसका उल्लेख करते हुये मुझे बधाई दी , मुझे बड़ी खुशी हुई कि आज भी अच्छी रचनाओ के पाठक मौजूद हैं , पर जैसे ही मैने उनसे रचना के कथ्य पर चर्चा की मुझे समझ आ गया कि उन्होने मेरे नाम के सिवाय रचना मे कुछ नही पढ़ा था , और वे मुझे बधाई भी इस बहाने केवल इसलिये दे रहे थे क्योकि मेरे सरकारी ओहदे के कारण उनकी कोई फाइल मेरे पास आई हुई थी . पाठको की इसी गुमशुदगी के चलते नये नये प्रयोग चल रहे हैं . कविता पोस्टर बनाकर प्रदर्शनी लगाई जा रही हैं . काव्य पटल बनाकर चौराहो पर लोकार्पित किये जा रहे हैं . किसी भी तरह पाठक को साहित्य तक खींचकर लाने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं . इन्ही प्रयासो में से एक है "पुस्तक मेला" जहाँ लेखको , पाठको और प्रकाशको का जमघट लगता है . सरकारी अनुदान से स्कूल कालेज के पुस्तकालयो के लिये किताबें खरीदी जाती हैं जिनसे आंकड़े कुछ प्रदर्शन योग्य हो जाते हैं . कुछ स्कूल अपने छात्रो को ग्रुप में और चन्द माता पिता अपने बच्चो में पठन पाठन के संस्कार डालने के लिये उन्हें इन मेलो में लेकर आते हैं . ये और बात है कि ये बच्चे किताबो के इन मेलो से किताबें कम स्टेशनरी व कम्प्यूटर के एडवन्स अधिक ले जाते हैं . 
     साहित्यिक प्रकाशको के पण्डालो पर नये लेखको का प्रकाशको और धुरंधर समीक्षको तथा सुस्थापित लेखको से साहित्यिक संपर्क हो जाता है जिसे वे आगे चलकर अपनी क्षमता के अनुरूप इनकैश कर पाते हैं . अंयत्र पूर्व विमोचित किताबो का  पुनर्विमोचन होते भी हमने इन मेलो में देखा है ,किसी भी तरह किताब को चर्चा में लाने की कोशिश होती है . लोकार्पण , प्रस्तुतिकरण , समीक्षा गोष्ठी , किताब पर चर्चा , एक कवि एक शाम , लेखक पाठक संवाद , लेखक से सीधी बात , वगैरह वगैरह वे जुमले हैं ,जो शब्दो के ये खिलाड़ी उपयोग करते हैं और आयोजन को सफल बनाने में जुटे रहते हैं . महिला कवियत्रियां विशेष अटेंशन पाती हैं , यदि उनका कंठ भी अच्छा हो तो तरंनुम में काव्यपाठ स्टाल की भीड़ बढ़ा सकता है . कोई लोकल अखबार यदि प्रकाशको से विज्ञापन जुटा पाया तो मेला विशेषांक छाप कर मुफ्त बांट देता है . मेले के दिनो में लोकल टी वी चैनल वालो को भी एक सकारात्मक काम मिल जाता है .
    दुनियां में यदि कोई वस्तु ऐसी है जिसके मूल्य निर्धारण में बाजार का जोर नही है तो वह किताब ही है . क्योकि किताब में इंटेलेक्चुएल प्रापर्टी संग्रहित होती है जो अनमोल होती है. यदि लेखक कोई बड़ा नाम वाला आदमी हो या किताब में कोई विवादास्पद विषय हो तो किताब का मूल्य लागत से कतई मेल नही खाता . या फिर यदि लेखक अपने दम पर किताबो की सरकारी खरीद करवाने में सक्षम हो तो भी किताब का मूल्य कंटेंट या किताब के गेटअप की परवाह किये बिना कुछ भी रखा जा सकता है .
    अब किताबें छपना बड़ा आसान हो गया है , ईबुक तो घर बैठे छाप लो . यदि प्रकाशक को नगद नारायण दे सकें तो किताब की दो तीन सौ प्रतियां छपकर सीधे आपके घर आ सकती हैं , जिन्हें  अपनी सुविधा से किसी बड़े किताब मेले में या पाँच सितारा होटल में डिनर के साथ विमोचित करवा कर और शाल श्रीफल मानपत्र से किसी स्थानीय संस्था के बैनर में  स्वधन से सम्मानित होकर कोई भी सहज ही लेखक बनने का सुख पा सकता है .
    आज के ऐसे साहित्यिक परिवेश में मुझे पुस्तक मेलो में मेरे गुमशुदा पाठक की तलाश है , आपको मिले तो जरूर बताइयेगा . 
    
vivek ranjan shrivastav

Saturday, January 14, 2017

चुनाव और दंगल

चुनाव और दंगल
विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर ४८२००८
९४२५८०६२५२
vivek1959@yahoo.co.in

यूं तो व्यंग लिखने के लिये विषय की तलाश अब कोई मुश्किल काम नही रहा , सुबह का अखबार पलटने की देर है , चाय पीते पीते ही बाप बेटे के दंगल , चुनावी नगाड़े , नोट बंदी की क्रियायें , भक्तो की प्रतिक्रियायें , मफलर वाले की हरकतें , पप्पू की शरारतें , या सिद्धांतो की इबारतें बुला बुला कर कहती हैं , हो जाये एक व्यंग ... संपादकीय पृष्ठ पर जगह मिलना पक्का है .लिखने के लिये मूड बना मतलब आफिस के लिये देरी हुई ,सो इन सब विषयो के व्यंग लेखो की भ्रूण हत्या कर , खुद से बचते बचाते  बाथरूम की तरफ भागो भी कि नौकरी पर जाना है समय पर , तो मोबाइल की घंटी बड़े प्यार से बुला लेती है , मोबाइल खोलने का मतलब होता है व्यंग के लिये विषय वर्षा .  व्हाट्सअप मैसेज की बाढ़ बताती है कि हम कितने लोकप्रिय हैं . गुड मार्निंग के संदेशो के साथ सुंदर चित्र , जिंदगी जीने की कला सिखाते संदेशे , अपनी व्यंग दृष्टि कहती है लिख सकते हो . शाश्वत व्यंग लिख सकते हो .
इस सबसे भी बचो तो पत्नी जो मेरी सबसे बड़ी व्यंग प्रेरणा है ,नख शिख व्यंग लिखने का आव्हान करती नजर आती है . फिर भी मै धृष्ट नही लिखता , सोचता हूं कि पिछली चार व्यंग की किताबें लिखकर ही भला क्या और किसको सुधार लिया ? लेकिन आज अपने भाई अनूप शुकल जी की जुगल बंदी वाली पोस्ट ने कुछ नया सा अहसास दिलाया और मैने तय किया कि चुनाव और दंगल पर तो अपन भी लिखेंगे .
भारत में चुनाव किसी दंगल के पर्याय ही हैं . ऐसा दंगल जिसमें  दो ही नही कई कई पहलवान एक साथ एक ही अखाड़े में कूद पड़ते हैं ,रेफरी होता है मेरा रामभरोसे !
रामभरोसे को नही जानते आप , वही मुआ अदना आदमी जिसे वोट देने का अधिकार मिल जाता है १८ का होते ही . जो केवल वोट देकर जिता सकता है , चार चुकन्दरो में से किसी एक को . जीतने से पहले  सभी रामभरोसे से  तरह तरह के वादे करते हैं और जीतते ही उसी से दंगल खेलने लगते हैं . रामभरोसे हर बार चुनाव में बलिष्ठ से बलिष्ठ पहलवानो को अपने जजमेंट से चित्त कर चुका है . दुनिया उसके जजमेंट का लोहा मानती है . और यह भी शाश्वत तथ्य बन चुका है कि चुनावों के बाद जो दंगल मचता है , रामभरोसे और जीतने वाले के बीच उसमें बार बार लगातार , राभरोसे खुद को ठगा ठगा सा महसूस करता है . वह मन ही मन तय करता है कि अगले चुनाव आने दो ऐसा जजमेंट दूंगा कि उसे ठगने वाले को पटखनी पर पटखनी खानी पड़ेगी . क्रम अनवरत है . दुनिया इसे लोकतंत्र की ताकत जैसे बेहतरीन शब्दो से नवाजती है .
एनीवे , देश में एक बार फिर से मिनी आम चुनावों का माहौल है . छोटे बड़े कई राज्यो के जोधा रामभरोसे के अखाड़े में हरी , नीली , भगवा लंगोटें पहन पहन कर जाने के लिये तैयारियां करते दिख रहे हैं . किसी की साइकिल के परखच्चे खुल गये हैं तो किसी की झंडी लहरा रही है .कोई परेशान है कि दंगल की तैयारियो के लिये जो विटामिन एम बूंद बूंद कर जोड़ा गया था , वह पूरा का पूरा फिंकवा दिया है सरकार ने . नये नये गंठजोड़ बन रहे हैं , पहलवान एक दूसरे को दांव पेंच सिखाने के समझौते कर रहे हैं .  फिर भी  सब आत्म मुग्ध हैं , सबको भरोसा है कि रामभरोसे का फैसला इस बार बस उसके ही पक्ष में होगा .सब चीख चीख कर बता रहे हैं कि  अगर वो जीत गया तो रामभरोसे के सारे दुख दर्द खतम हो जायेंगे . 
रामभरोसे अच्छी तरह समझ चुका है कि "कोई नृप होये हमें का हानि , चेरी छोड़ न हुइहैं रानी"  . वह भी मजे ले रहा है . अखबारों को मसाला मिल रहा है , न्यूज चैनल्स को टी आर पी . आगे आगे देखिये होता है क्या ? देश आदर्श चुनाव संहिता के साथ जी रहा है . रामभरोसे कनफ्यूज्ड है वह सोच रहा है कि जब इन दिनो बिना नेता के अधिकार के भी सरकार चल सकती है , वह भी आदर्श के साथ तो फिर भला इस अखाड़े की जरूरत ही क्या है ?
ज्योतिषी अपनी अपनी भविष्य वाणियां कर रहे हैं , परिणामो के सर्वे चल रहे हैं . पर शाश्वत सत्य  है और इसमें कतई कोई व्यंग नहीं है कि  जीतने के लिये अखाड़े में खुद उतरना होता है , मेहनत करनी पड़ती है . तभी गीता फोगाट को स्वर्ण मिलता है , दंगल बाक्स आफिस पर हिट होती है या  रामभरोसे का भरोसा जीता जा सकता है . राम भरोसे को खुद भी किसी जीतने वाले पहलवान से कोई बड़ी उम्मीद नही रखनी चाहिये उसे राम के भरोसे बने रहने से बेहतर खुद अपने बल बूते पर अपना अखाड़ा जीतने के लिये संघर्ष करना ही होगा .

"साइकिल" जो किसी फेरारी, लैंबॉर्गिनी , बुगाटी या रोल्स रायल से कीमती है !

व्यंग

"साइकिल" जो किसी फेरारी, लैंबॉर्गिनी , बुगाटी या रोल्स रायल से कीमती है !

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
९४२५८०६२५२

            हमारी संस्कृति में पुत्र की कामना से बड़े बड़े यज्ञ करवाये गये हैं . आहुतियो के धुंए के बीच प्रसन्न होकर अग्नि से यज्ञ देवता प्रगट हुये हैं और उन्होने यजमान को पुत्र प्राप्ति के वरदान दिये . यज्ञ देवता की दी हुई खीर खाकर राजा दशरथ की तीनो रानियां गर्भवती हुईं और भगवान राम जैसे मर्यादा पुरोषत्तम पुत्र हुये जिन्होने पिता के दिये वचन को निभाने के लिये राज पाट त्याग कर वनवास का रास्ता चुना . आज जब बेटियां भी बेटो से बढ़चढ़ कर निकल रहीं है , पिता बनते ही हर कोई फेसबुक स्टेटस अपडेट करता दीखता है " फीलिंग हैप्पी " साथ में किसी अस्पताल में एक नन्हें बच्चे की माँ के संग तस्वीर लगी होती है .  सैफ अली खान जैसे तो तुरत फुरत मिनटो में अपने बेटे का नामकरण भी कर डालते हैं , और हफ्ते भर में ही बीबी को लेकर नया साल मनाने भी निकल पड़ते हैं .  अपनी अपनी केपेसिटी के मुताबिक खुशियां मनाई जाती हैं ,  मिठाईयां बांटी जाती हैं . कोई जरूर खोज निकालेगा कि अखिलेश के होने पर सैफई में मुलायम ने कितने किलो मिठाईयाँ बाँटी थी . ये और बात है कि जहाँ राम के से बेटे के उदाहरण हैं , वहीं अनजाने में ही सही पर अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को बांधकर लव कुश द्वारा पिता की सत्ता को चुनौती देने का प्रसंग भी रामायण में ही मिल जाता है .तो दूसरी ओर गणेश जी द्वारा पिता शिव को द्वार पर ही रोक देने की चुनौती का प्रसंग भी प्रासंगिक है .तो दूसरी ओर हिरणाकश्यप जैसे राक्षस के यहाँ प्रहलाद से धार्मिक पुत्र होने और दूसरी ओर धृतराष्ट्र की दुर्योधन के प्रति अंध आसक्ति के उदाहरण हैं .लगभग हर धर्म में परमात्मा को पिता की संज्ञा दी जाती है .  पिता के प्रति श्रद्धा भाव को व्यक्त करने के लिये पश्चिमी सभ्यता में फादर्स डे मनाने की परंपरा लोकप्रिय है . व्यवसायिकता और पाश्चात्य अंधानुकरण को आधुनिकता  का नाम देने के चलते हम भी अब बड़े गर्व से फादर्स डे मनाते हुये पिता को डिनर पर ले जाते हैं या उनके लिये आन लाइन कोई गिफ्ट भेजकर गर्व महसूस करने लगे हैं .  
            पिता पुत्र के संबंधो को लेकर अनुभव के आधार पर तरह तरह की लोकोक्तियां और कहावतें प्रचलित हैं .मुलायम अखिलेश प्रसंग ने सारी लोकोक्तियो और कहावतों को प्रासंगिक बना दिया है .  कहा ये जाता है कि जब पुत्र के पांव  पिता के जूते के नाप के हो जायें तो पिता को पुत्र से मित्र वत् व्यवहार करने लगना चाहिये . जब पुत्र पिता से  बढ़ चढ़ कर निकल जाता है तो कहा जाता है कि "बाप न मारे मेढ़की, बेटा तीरंदाज़" . यद्यपि बाप से बढ़कर यदि बेटा निकले तो शायद सर्वाधिक खुशी पिता को ही होती है , क्योकि पिता ही होता है जो सारे कष्ट स्वयं सहकर चुपचाप पुत्र के लिये सारी सुविधा जुटाने में जुटा रहता है . पर यह आम लोगो की बातें हैं . पता नही कि अखिलेश और मुलायम  दोनो मे से तीरंदाज कौन है ? एक कहावत है "बाढ़े पूत पिता के धरमे , खेती उपजे अपने करमे" अर्थात पिता के लोकव्यवहार के अनुरूप पुत्र को विरासत में सहज ही प्रगति मिल जाती है पर खेती में फसल तभी होती है जब स्वयं मेहनत की जाये . "बाप से बैर, पूत से सगाई"  कहावत भी बड़ी प्रासंगिक है एक चाचा इधर और एक उधर दिखते हैं . "बापै पूत पिता पर थोड़ा, बहुत नहीं तो थोड़ा -थोड़ा"  कहावत के अनुरूप अखिलेश मुलायम को उन्ही की राजनैतिक  चालो से पटकनी देते दिख रहे हैं . सारे प्रकरण को देखते हुये लगता है कि "बाप बड़ा  न भइया, सब से बड़ा रूपइया" सारे  नाते रिश्ते बेकार, पैसा और पावर ही आज सब कुछ है . आधुनिक प्रगति की दौड़ में वो सब बैक डेटेड दकियानूसी प्रसंग हो चुके हैं जिनमें पिता को आश्वस्ति देने के लिये भीष्म पितामह की सदा अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा , या पुरू द्वारा अपना यौवन पिता ययाति को दे देने की कथा हो .  
            आधुनिकता में हर ओर नित  नये प्रतिमान स्थापित हो रहे हैं , अखिलेश मुलायम भी नये उदाहरण नये समीकरण रच रहे हैं .समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह "साइकिल" ,किसी फेरारी, लैंबॉर्गिनी , बुगाटी या रोल्स रायल से कीमती बन चुकी है . बड़े बड़े वकील पिता पुत्र की ओर से चुनाव आयोग के सामने अपने अपने दावे प्रति दावे , शपथ पत्रो और साक्ष्यो के अंबार लगा रहा है . अपने अपने स्वार्थो में लिपटे सत्ता लोलुप दोनो धड़ो के साथ दम साधे चुनाव आयोग के फैसले के इंतजार में हैं .
  
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
९४२५८०६२५२