Saturday, February 27, 2010

ब्रांड एम्बेसडर....

टेबलेट डोज ...
लघुकथा
ब्रांड एम्बेसडर
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , MPSEB Colony , Rampur , Jabalpur (MP)
mob 9425806252
vivek1959@yahoo.co.in

काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की नीली शर्ट ,गले में गहरी नीली टाई , कंधे पर लैप टाप का काला बैग , और हाथ में मोबाइल ...जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है . मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता ,सातों दिन पूरे महीने , टारगेट के बोझ तले . एटीकेट्स के बंधनो में , लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार ,बातचीत के दौरान सेलिंग स्त्रेतजी के अंतर्गत देश दुनिया , मौसम की बाते भी करनी पड़ती , यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है , उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता . डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता .डील के बाद वही "ब्रांड एम्बेसडर" कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता . बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता ,उस एक दिन के बादशाह पर . उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है , अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू तर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है . अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है , घर घर .
इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है , अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है , आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर , झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट , हल्की भूरी शर्ट ,गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये ... वह पहले ही जाँच परख चुका था कार , पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का "ब्रांड एम्बेसडर" बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे , तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई .. पत्नी और बच्चे "ब्रांड एम्बेसडर" बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे ..निर्णय लिया जा चुका था , सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी . डील फाइनल हो गई . सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे .बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे .आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये , वह एटीकेत्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर .. आज वह "ब्रांड एम्बेसडर" जो था .

Friday, February 26, 2010

डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान ...


व्यंग
डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान ...

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२


मेरे एक मित्र को पिछले दिनो ब्लडप्रेशर बढ़ने की शिकायत हुई , तो अपनी ठेठ भारतीय परम्परा के अनुरुप हम सभी कार्यलयीन मित्र उन्हें देखने उनके घर गये , स्वाभाविक था कि अपनी अंतरंगता बताने के लिये विशेषज्ञ एलोपेथिक डाक्टरो के इलाज पर भी प्रश्न चिन्ह लगाते हुये उन्हें और किसी डाक्टर से भी क्रास इक्जामिन करवाने की सलाह हमने दी , जैसा कि ऐसे मौको पर किया जाता है किसी मित्र ने जड़ी बूटियो से शर्तिया स्थाई इलाज की तो किसी ने होमियोपैथी अपनाने की चर्चा की . मुफ्त की सलाह के इस क्रम में एक जो विशेष सलाह थोड़ा हटकर थी वह एक अन्य मित्र के द्वारा , कुत्ता पालने की सलाह थी . बड़ा दम था इस तथ्य में कि रिसर्च के मुताबिक जिन घरों में कुत्ते पले होते हैं वहां तनाव जन्य बीमारियां कम होती हें , क्योकि आफिस आते जाते डागी को दुलारते हुये हम दिनभर की मानसिक थकान भूल जाते हैं , इस तरह ब्लड प्रैशर जैसी बीमारियों से , कुत्ता पालकर बचा जा सकता है .ये और बात है कि पड़ोसियो के घरो के सामने खड़ी कार के पहियो पर , बिजली के खम्भो के पास जब आपका कुत्ता पाटी या गीला करता है तो उसे देखकर पड़ोसियो का ब्लड प्रैशर बढ़ता है .
वैसे कुत्ते और हमारा साथ नया नहीं है , इतिहासज्ञ जानते हैं कि विभिन्न शैल चित्रों में भी आदमी और कुत्ते के चित्र एक समूह में मिलते हैं . धर्मराज युधिष्ठिर की स्वर्ग यात्रा में एक कुत्ता भी उनका सहयात्री था यह कथानक भी यही रेखांकित करता है कि कुत्ते और आदमी का साथ बहुत पुराना है . कुत्ते अपनी घ्राण, व श्रवण शक्ति के चलते कम से कम इन मुद्दो पर इंसानो से बेहतर प्रमाणित हो चुके हैं .अपराधो के नियंत्रण में पुलिस के कुत्तों ने कई कीर्तीमान बनायें है . सरकस में अपने करतब दिखाकर कुत्ते बच्चों का मन मोह लेते है और अपने मास्टर के लिये आजीविका अर्जित करते हैं . संस्कृत के एक श्लोक में विद्यार्थियो को श्वान निद्रा जैसी नींद लेने की सलाह दी गई है .भाषा के संदर्भ में यह खोज का विषय है कि कुत्ते शब्द का गाली के रूप में प्रयोग आखिर कब और कैसे प्रारंभ हुआ क्योकि वफादारी के मामले में कुत्ता होना इंसान होने से बेहतर है . काका हाथरसी की अगले जन्म में विदेशी ब्रीड का पिल्ला बनने की हसरत भी महत्वपूर्ण थी क्योकि शहर के पाश इलाके में किसी बढ़िया बंगले में , किसी सुंदर युवती के साथ उसकी कार में घूमना उसके हाथों बढ़िया खाना नसीब होना इन पालतू डाग्स को ही नसीब हो सकता है . फालतू देशी कुत्तो को नही , जो स्ट्रीट डाग्स कहे जाते हैं . यूं तो स्लम डाग मिलेनियर , फिल्म को आस्कर मिल जाने के बाद से इन देशी कुत्तो का स्टेटस भी बढ़ा ही है .
पिछले दिनों मुझे एक डाग शो में जाने का अवसर मिला . अलशेसियन , पामेरियन , पग , डेल्मेशियन , बुलडाग , लैब्राडोर , जर्मन शेफार्ड , मिनिएचर वगैरह वगैरह ढ़ेरो ब्रीड के तरह तरह की प्रजातियो के कुत्तो से और उनके सुसंपन्न मालिकों से साक्षात्कार का सुअवसर मिला . ऐसे ऐसे कुत्ते मिले कि उन्हें कुत्ता कहने भी शर्म आये . और यदि कही कोई उन्हें कुत्ता कह दें तो शायद उनके मालिक बुरा मान जाये , बेहरत यही है कि हम उन्हें श्वान कहें . थोड़ा इज्जतदार शब्द लगता है . वैसे भी घर में पले हुये कुत्ते घर के बच्चो की ही तरह सबके चहेते बन जाते है , वे परिवार के सदस्य की ही तरह रहते , उठते बैठते हैं . उनके खाने पीने इलाज में गरीबी रेखा के आस पास रहने वाले औसत आदमी से ज्यादा ही खर्च होता है .
डाग शो में जाकर मुझे स्वदेशी मूवमेंट की भी बड़ी चिंता हुई . जिस तरह निखालिस देशी ज्वार और देशी भुट्टे , या गन्ने से , भारत में ही बनते हुये , यहीं बिकते हुये सरकार को खूब सा टैक्स देते हुये भी और पूरी की पूरी बोतल यही कंज्यूम होते हुये भी आज तक विदेशी शराब , विदेशी ही है ,जिस तरह भारत के आम मुसलमान आज तक भी भारतीय नही हैं ,या माने नही जाते हैं ठीक वैसे ही डाग शो में आये हुये सारे के सारे कुत्ते बाई बर्थ निखालिस हिन्दुस्तानी नागरिकता के धारक थे , पर स्वयं उनके मालिक ही उन्हें देशी कहलाने को तैयार नही थे , विदेशी ब्रीड का होने में जो गौरव है वह अभिजात्य होने का अलग ही अहं भाव जो पैदा करता है . एक जानकार ने बताया कि रामपुर हाउण्ड नामक देसी प्रजाति का कुत्ता भी डाग शो में प्रदर्शन के लिये पंजीकृत है , तो मेरे स्वदेसी प्रेम को किंचित शांति मिली , वैसे खैर मनाने की बात है कि स्वदेशी ,दुत्कारे जाने वाले, टुकड़ो पर सड़को के किनारे पलने वाले ठेठ देशी कुत्तो के हित चिंतन के लिये भी मेनका गांधी टाइप के नेता बन गये हैं , पीपुल्स फार एनीमल , जैसी संस्थायें भी सक्रिय हैं . नगर निगम की आवारा पशुओ को पकड़ने वाली गाड़ी इन कुत्तो की नसबंदी पर काम कर रही है अतः हालात नियंत्रण में है , मतलब चिंता जनक नहीं है , विदेशी श्वान पालिये , ब्लड प्रैशर से दूर रहिये . श्वानों के डाग शो में हिस्सा लीजिये , और पेज थ्री में छपे अपने कुत्ते की तस्वीर की मित्रो मे खूब चर्चा कीजीये . पर आग्रह है कि अब विदेशी ब्रीड के कुत्तो को देशी माने न माने पर कम से कम देश में जन्में हुये आदमी को भले ही वह मुसलमान ही हो देसी मान ही लीजीये .

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२

Thursday, February 25, 2010

नये कुल ,गोत्र, जाति और संप्रदाय

व्यंगलेख
नये कुल ,गोत्र, जाति और संप्रदाय
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२


धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय की जड़ें हमारी संस्कारों में बहुत गहरी हैं . यूं हम आचरण में धर्म के मूल्यो का पालन करें न करें , पर यदि झूठी अफवाह भी फैल जाये कि किसी ने हमारे धर्म या जाति पर उंगली भी उठा दी है , तो हम कब्र से निकलकर भी अपने धर्म की रक्षा के लिये सड़को पर उतर आते हैं , यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है . हमें इस पर गर्व है . इतिहास साक्षी है धर्म के नाम पर ढ़ेरो युद्ध लड़े गये हैं , कुल , जाति , उपजाति ,गोत्र , संप्रदाय के नाम पर समाज सदैव बंटा रहा है . समय के साथ लड़ाई के तरीके बदलते रहे हैं , आज भी जाति और संप्रदाय भारतीय राजनीति में अहं भूमिका निभा रहे है . वोट की जोड़ तोड़ में जातिगत समीकरण बेहद महत्वपूर्ण हैं . जिसने यह गणित समझ लिया वह सत्ता मैनेज करने में सफल हुआ .इन जातियों , कुल , गोत्र आदि का गठन कैसे हुआ होगा ? यह समाज शास्त्र के शोध का विषय है पर मोटे तौर पर मेरे जैसे नासमझ भी समझ सकते हैं कि तत्कालीन , अपेक्षाकृत अल्पशिक्षित समाज को एक व्यवस्था के अंतर्गत चलाने के लिये इस तरह के मापदण्ड व परिपाटियां बनाई गई रही होंगी , जिनने लम्बे समय में रुढ़ि व कट्टरता का स्वरूप धारण कर लिया . चरम पंथी कट्टरता इस स्तर तक बढ़ी कि धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय से बाहर विवाह करने के प्रेमी दिलों के प्रस्तावों पर हर पीढ़ी में विरोध हुये , कहीं ये हौसले दबा दिये गये , तो कही युवा मन ने बागी तेवर अपनाकर अपनी नई ही दुनिया बसाने में सफलता पाई . जब पुरा्तन पंथी हार गये तो उन्होने समरथ को नहिं दोष गोंसाईं का राग अलाप कर चुप्पी लगा ली , और जब रुढ़िवादियों की जीत हुई तो उन्होने जात से बाहर , तनखैया वगैरह करके प्रताड़ित करने में कसर न उठा रखी . जो भी हो , इस डर से समाज एक परंपरा गत व्यवस्था से संचालित होता रहा है . धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय के बंधन प्रायः शादी विवाह , रिश्ते तय करने हेतु मार्ग दर्शक सिद्धांत बनते गये . पर दिल तो दिल है , गधी पर दिल आये तो परी क्या चीज है ? जब तब धर्म की सीमाओ को लांघकर प्रेमी जोड़े , प्रेम के कीर्तिमान बनाते रहे हैं . प्रेम कथाओ के नये नये हीरो और कथानक रचते रहे हैं . इसी क्रम को नई पीढ़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ा रही लगती है .
यह सदी नवाचार की है . नई पीढ़ी नये धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय बना रही है . आज इन पुरातन जाति के बंधनो से परे बहुतायत में आई ए एस की शादी आई ए एस से , डाक्टर की डाक्टर से , साफ्टवेयर इंजीनियर की साफ्टवेयर इंजीनियर से , जज की जज से , मैनेजर की मैनेजर से होती दिख रही हैं . ऐसी शादियां सफल भी हो रही हैं . ये शादियां माता पिता नही स्वयं युवक व युवतियां तय कर रहे हैं . माता पिता तो ऐसे विवाहो के समारोहो में खुद मेहमान की भूमिका में दिखते हैं .बच्चों से संबंध रखना है तो , उनके पास इन नये कुल गोत्र जाति की शादियो को स्वीकारने के सिवाय और कोई विकल्प ही नही होता . मतलब शिक्षा , व्यवसाय , कंपनी , ने कुल , गोत्र, जाति का स्थान ले लिया है . इन वैवाहिक आयोजनो में रिश्तेदारों से अधिक दूल्हे दुल्हन के मित्र नजर आते हैं .रिश्तेदार तो बस मौके मौके पर नेग के लिये सजावट के सामान की तरह स्थापित दिखते हैं . ऐसे आयोजनो का प्रायः खर्च स्वयं वर वधू उठाते है .सामान्यतया कहा जाता था कि दूल्हे को दुल्हन मिली , बारातियो को क्या मिला ? पर मैनेजमेंट मे निपुण इस नई पीढ़ी ने ये समारोह परंपराओ से भिन्न तरीको से पांच सितारा होतलों और नये नये कांसेप्ट्स के साथ आयोजित कर सबके मनोरंजन के लिये व्यवस्थाये करने में सफलता पाई है . कोई डेस्टिनेशन मैरिज कर रहा है तो कोई थीम मैरिज आयोजित कर रहा है .ये विवाह सचमुच उत्सव बन रहे हैं . कुटुम्ब के मिलन समारोह के रूप में भी ये विवाह समारोह स्थापित हो रहे हैं . लड़कियो की शिक्षा से समाज में यह क्रांतिकारी परिवर्तन होता दिख रहा है . लड़के लड़की दोनो की साफ्टवेयर इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों की मल्टीनेशनल कंपनी की आय मिला दें तो वह औसत परिवारो की सकल आय से ज्यादा होती है , इसी के चलते दहेज जैसी कुप्रथा जिसके उन्मूलन हेतु सरकारी कानून भी कुछ ज्यादा नही कर सके खुद ही समाप्त हो रही है . हमारी तो पत्नी ही हम पर हुक्म चलाती है , पर इन विवाहो में सब कुछ लड़की की मरजी से ही होता दिखता है , क्योकि कुवर जी पर दुल्हन का पूरा हुक्म चलता दिखता है .
यूं तो नये समय में कालेज से निकलते निकलते ही बाय फ्रेंड , गर्ल फ्रेंड , अफेयर , ब्रेकअप इत्यादि सब होने लगा है , पर फिर भी जो कुछ युवा कालेज के दिनो में सिसियरली पढ़ते ही रहते हैं उनके विवाह तय करने में नाई , पंडित की भूमिका समाप्त प्राय है , उसकी जगह शादी डाट काम , जीवनसाथी डाट काम आदि वेब साइट्स ने ले ली है . युवा पीढ़ी एस एम एस , चैटिग , मीटिग , डेटिंग , आउटिंग से स्वयं ही अपनी शादियां तय कर रही है . सार्वजनिक तौर से हम जितना उन्मुक्त शादी के २० बरस बाद भी अपनी पिताजी की पसंद की पत्नी से नही हो पाये हैं ,हनीमून पर जाने की आवश्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये परस्पर उससे ज्यादा फ्री , ये वर वधू विवाह के स्वागत समारोह में नजर आते हैं .नये धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय की रचियता इस पीढ़ी को मेरा फिर फिर नमन . सच ही है समरथ को नही दोष गुसाईं .मैं इस परिवर्तन को व्यंजना , लक्षणा ही नही अमिधा में भी स्वीकार करने में सबकी भलाई समझने लगा हूं .पारंपरिक कुल , जाति गोत्र अब केवल वोट की राजनीति और धार्मिक उन्माद फैलाने के ही काम के रह गये हैं , विवाह हेतु हमारी नई पीढ़ी ने ये नये कुल , जाति और गोत्र रच लिये हैं , जो धर्म की सीमाओ से परे हैं .

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२

1411


व्यंग
बच्चों आओ, बाघ बचाओ!
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओबी- 11 एमपीईबी कालोनी
रामपुर जबलपुर
9425806252

‘बच्चों आओ, बाघ बचाओ‘ सुनकर चैकियेगा नहीं यह अपील मैं उसी महान परम्परा का निर्वहन करते हुये, कर रहा हूं, जिसके अनुसार हम हर संकट का समाधान , हर समस्या का निदान, स्कूलों में ढूंढते आये है। धरती का जल स्तर गिर रहा हो, पल्स पोलियो अभियान हो, आयोडीन नमक के लिये जनजाग्रति करनी हो, सर्वशिक्षा अभियान चलाना हो, या उपभोक्ता अधिकारों को लेकर कोई आंदोलन चलाना हो तो भी , मतलब हर कार्यक्रम की सफलता के लिये बच्चों की रैली, बच्चों के द्वारा निबंध लेखन, बच्चों की चित्रकला या कहानी प्रतियोगिता का आयोजन करना हमारी परम्परा है। बिजली बचाने की मुहिम हो, या पालीथिन के खिलाफ आंदोलन, यहां तक कि एड्स के विरोध में और परिवार नियोजन के प्रचार तक के लिये बच्चों की रैली निकलते हुये, हम आप देखते ही है। बच्चे, कल के विशव की धरोहर हैं, उन्हें सीख देकर हम सरलता से अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर पाते है। स्कूलो में बच्चे एक साथ मिल जाते है। भीड जुट जाती है,अखबारो में मुख्य अतिथि का मुस्कराता फोटो छप जाता है , आयोजन सफल और सुसंपन्न हो जाता है।
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हर विपत्ति में , हर समस्या के निदान में स्कूलों का योगदान महत्वपूर्ण है। चुनाव होने हों तो स्कूलो में चुनाव केन्द्र बन जाता है, मास्साब की ड्यूटी चुनाव करवाने से लेकर जनगणना तक में लगाकर ये राष्ट्रीय कार्यक्रम संपन्न किये जाते है। बाढ़ आ जाये तो स्कूल, बाढ़ पीड़ितो की शरण स्थली में बदल जाता है। भूकम्प पीड़ीत लोगों या सैनिको की सहायता के लिये राशि एकत्रित करनी हो , तो भी हमारे बच्चे चंदा देकर अग्रणी भूमिका का निर्वाह करते हैं । अर्थात प्रत्येक राष्ट्रीय घटना में स्कूलों और बच्चों की अहॅं भूमिका निर्विवाद है। अतः आज जब देश में ‘बाघ‘ संकट में है,केवल १४११ बाघ बचे हैं आज भारत भूमि में , तो इस परिप्रेक्ष्य में मेरी यह अपील कि ‘बच्चों आओ-बाघ बचाओ‘ मायने रखती है।
वैसे बाघ माँ दुर्गा का वाहन है। और बाघो की कमी यह प्रदर्शित करती है कि माँ दुर्गा अपने वाहन का माडल बदलने के चक्कर में है। एंटीक, विंटेज कारों का महत्व हम सब समझते हैं । सो बाघ का महत्व निर्विवाद है। बाघों को डायनासौर की तरह विलुप्त होने से बचाने के लिये हमारे बच्चों को तो आगे आना ही होगा। हम सब भी कुछ कर सकें, तो बेहतर होगा वरना बाघ भी केवल डाक टिकटो में नजर आया करेंगे या सजिल्द पुस्तको में कैद होकर रह जायेंगे । इस दिशा में अमिताभ जी ने तो अपना फर्ज बहुत पहले ही निभा दिया है, उन्होने स्वंय अपनी आवाज में, एक गाना भी गाया है, और उस पर अभिनय भी किया है, जिसमें वे एक बच्चे को कहानी सुनाते हैं कि, किस तरह एक बाघ ने उन्हें मारकर खा लिया, और बच्चा हॅंस पड़ता है। अब हमारी बारी है , हम सब को कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा , अन्यथा ढ़ूढ़ते रह जाओगे . बाघ हमारी संस्कृति में रचा बसा है , लोकसंस्कृति में बाघ नृत्य करते लोकनर्तक हमारी इसी भावना का प्रदर्शन करते हैं . दरअसल जब बाघ को रहने के लिये जंगल न होगा, खाने के लिये दूसरे जानवर न होंगे तो, भले ही वह जंगल का राजा कहलाये पर संकट में तो आ ही जायेगा। वह आत्मरक्षा में संघर्ष करेगा, और हमें खायेगा। ये और बात है कि चतुर मानव की वह घटिया प्रजाति, जिसे शेर के चमड़े का व्यापार करना होता है, और शेर के दाँत और नाखून बेचकर रूपये बनाने होते है, वह जरूर शेर का शिकार करने से नहीं चूक रही, उन शिकारियों और वन्य पशुओ के तस्करों पर नियंत्रण करने वाले जंगल मुहकमे के बड़े अमले को जो जागते हुये सो रहा है उसे जगाओं, मेरे बच्चो ! शोर मचाओं,चिल्लाओ बाघ बचाओं। कभी हम बाघ से बचते थे आज समय आया है जब हमें बाघ बचाने का बीड़ा उठाना जरूरी है .
बच्चों आओ बाघ के चित्र बनाओ, बाघ पर गीत रचो, कहानियां लिखो, अपने-अपने माता-पिता, तक बाघों की घटती संख्या की चिंता का संदेश पहुंचाओ। क्योकि बाघ हैं तो जंगल का विसाल साम्राज्य है , जंगल हैं तो हम तुम हैं , अतः स्वयं हमारे लिये जरूरी है कि बाघ बचाओ अभियान सफल हो । मेरा विश्वास है बच्चों कि, तुम अपने अभियान में जरूर सफल होगे और जल्दी ही बाघो की संख्या १४११ से बढ़कर ४१११ हो जायेगी , केवल सरकारी आंकड़ो में नही , वरन सचमुच जंगलों में । मेरी शुभकामनायें तुम्हारे साथ है।

Wednesday, February 24, 2010

वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना हो अब

अव्यंग
वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना हो अब

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२


यह समय कीर्तीमानो का है . तरह तरह के कीर्तिमान बनाये जा रहे हैं , उनका लेखा जोखा रखा जा रहा है .तरह तरह के सम्मान , पुरुस्कार स्थापित हो रहे हैं ,सम्मान पाकर लोग गौरवांवित हो रहे हैं . . पहले का समय और था ,पुरस्कार देकर देने वाले गौरवान्वित होते थे अब पुरुस्कारों के लिये जुगाड़ किये जा रहे हैं , जिन्हें सीधे तरीको से पुरस्कार नही मिल पाते , वे अपने लिये नई कैटेगिरी ही बनवा लेते हैं .खेलकूद में ढ़ेरो पुरुस्कार हैं , प्रतियोगितायें हैं . साहित्य में , लेखन में कविता , कहानी , व्यंग में , पुस्तको के लिये भी कई कई पुरुस्कार हैं , जिन्हें खुद कभी कोई पुरस्कार नही मिला वे भी किसी की स्मृति में चंदा वंदा करके कोई पुरुस्कार या सम्मान समारोह आयोजित करने लगते हैं और एक विज्ञप्ति निकालते ही उनके साथ भी , सम्मान की चाहत रखने वालो की भीड़ जुटने लगती है .
पाश्चात्य देशो में नये नये प्रयोग हो रहे हैं , कोई टमाटर मसलने का कीर्तिमान बना रहा है तो कोई बर्फ पर कलाकारी करने का ,आये दिन कुछ न कुछ नया हो रहा है कीर्तिमान बनाने के लिये लोग जान की बाजी लगा रहे हैं . लिम्का ने तो सालाना बुक आफ रिकार्डस की किताब ही छापनी शुरू कर दी है . हमारे देश में पुरस्कारो के नामो के लिये हम अपने अतीत पर गर्व करते हुये पुरातन प्रतीको को अपना ब्रांड आइकान बनाते रहे हैं , निशानेबाजी के लिये एकलव्य पुरुस्कार ,खेलो के लिये अर्जुन पुरुस्कार ,वीरता के लिये महाराणा प्रताप पुरुस्कार , सामाजिक कार्यों के लिये बाबा साहेब अंबेडकर आदि आदि के नाम पर गौरव पूर्ण पुरस्कारो की स्थापना हमने कर रखी है . अब जब से हमारे एक प्रदेश के ८६ वर्षीय बुजुर्ग महामहिम जी पर केंद्रित , पता नहीं , असल या नकल शयन शैया पर निर्मित फिल्म का प्रसारण एक टी वी चैनल पर हुआ है , जरूरत हो चली है कि वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना हो .वानप्रस्थ की परम्परा और जरावस्था को चुनौती देते कथित प्रकरण से कई बुजुर्गो को नई उर्जा मिलेगी ,प्राचीन समय से हमारे ॠषि मुनी और आज भी वैज्ञानिक चिर युवा बने रहने की जिस खोज में लगे रहे हैं , उसी दिशा में यह एक कदम है . महर्षि वात्सायन ने जिस कामसूत्र की रचना की है , उसका सारा विश्व सदा से दीवाना रहा है .खजुराहो के विश्व विख्यात मंदिर वात्सायन के कामसूत्र को अद्वितीय मूर्तिकला के रूप में प्रदर्शित करते हैं . पाश्चात्य चिंतक फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार भी दुनिया के हर कार्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष , आधारभूत रूप से सैक्स ही होता है. . अर्थात हमें यह समझ लेने की जरूरत है कि सैक्स की जिस धारणा को जिसे छुपा छुपा कर हम बेवजह परेशान हैं , को गर्व से उजागर करने की आवश्यकता है . अब समय आ गया है कि यौन कुंठाओ का अंत हो . इंटरनेट पर वैसे ही सब कुछ केवल एक क्लिक पर सर्व सुलभ है . सैक्स टायज का बाजार करोड़ो में पहुंच रहा है .वियाग्रा , व अन्य कथित सैक्सवर्धक जड़ी बूटियों , दवाओ की विश्वव्यापी मांग है . फिल्मों में लम्बे किस सीन , निर्वस्त्र हीरोइन पुरानी बातें हो चली हैं . अब लासवेगास में लम्बे चुम्बन को लेकर प्रतियोगितायें हो रही हैं ,एक ही व्यक्ति कितनी लड़कियों से लगातार एक के बाद एक चुम्बन ले सकता ये कीर्तिमान बनाये जा रहे हैं . हमारे ही देश में वैश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा देने की मांग उठ रही है . अब समय है कि वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना हो .इससे पहले कि विदेशी बाजी मार लें , सैक्सोलाजिस्ट वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना , प्रतियोगिता के स्वरूप आदि को लेकर खुली चर्चा करे और महर्षि वात्सासयन के देश में विभिन्न कैटेगरीज में वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना की जावे . जिससे जब किसी छिपे कैमरे से किसी कमरे की छुपी तस्वीरें बाहर आ जावें तो किसी योग्य नेता को त्यागपत्र न देना पड़े , वरन उसे वात्सायन पुरस्कारो की समुचित श्रेणि से सम्मानित कर हम गौरवांवित हो सकें .

Tuesday, February 23, 2010

बतंगड़ जी के घर की सरकार का इलेक्शन

व्यंग
बतंगड़ जी के घर की सरकार का इलेक्शन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर


बतंगड़ जी मेरे पड़ोसी हैं . उनके घर में वे हैं , उनकी एकमात्र सुंदर सुशील पत्नी है , तीन बच्चे हैं जिनमें दो बेटियां और एक आज्ञाकारी होनहार , होशियार बेटा है , और हैं उनके वयोवृद्ध पिता . मैं उनके घर के रहन सहन परिवार जनो के परस्पर प्यार , व्यवार का प्रशंसक हूं . जितनी चादर उतने पेर पसारने की नीति के कारण इस मंहगाई के जमाने में भी बतंगड़ जी के घर में बचत का ही बजट रहता है . परिवार में शिक्षा का वातावरण है . उनके यहां सदा ही आदर्श आचार संहिता का वातावड़ण होता है , जिससे मैं प्रभावित हूं .
देश की संसद के चुनाव हुये , सरकार बनी . हम चुनावों के खर्च से बढ़ी हुई मंहगाई को सहने की शक्ति जुटा ही रहे थे कि लोकतंत्र की दुहाई देते हुये राज्य की सरकार के गठन के लिये चुनावी अधिसूचना जारी हो गई . आदर्श आचार संहिता लग गई , सरकारी कर्मचारियों की छुट्टियां कैंसिल कर दी गई . उन्हें एक बार फिर से चुनावी प्रशिक्षण दिया गया . अखबारों में पुनः नेता जी की फुल पेज रंगीन तस्वीर के विज्ञापन छपने लगे . नेता जी पुनः गली मोहल्ले में सघन जन संपर्क करते नजर आने लगे .वोट पड़े . त्रिशंकु विधान सभा चुनी गई . हार्स ट्रेडिंग , दल बदल , भीतर बाहर से समर्थन वगैरह के जुमले , कामन मिनिमम प्रोग्राम इत्यादि इत्यादि के साथ अंततोगत्वा सरकार बन ही गई . लोकतंत्र की रक्षा हुई . लोग खुश हुये . मंत्री जी प्रदेश के न होकर अपनी पार्टी और अपने विधान सभा क्षेत्र के होकर रह गये ,नेता गण हाई कमान के एक इशारे पर अपना इस्तीफा हाथ में लिये गलत सही मानते मनवाते दिखे . कुर्सी से चिपके नेता अपने कुर्सी मोह को शब्दो के वाक्जाल से आदर्शो का नाम देते रहे . साल डेढ़ साल बीता होगा कि फिर से चुनाव आ गये , इस बार नगर निगम और ग्राम पंचायतो के चुनाव होने थे . झंडे ,बैनर वाले , टेट हाउस वाले , माला और पोस्टर वाले को फिर से रोजगार मिल गया .पछले चुनावों के बाद हार जीत के आधार पर मुख्यमंत्री जी द्वारा बदल दिया गया सरकारी अमला पुनः लोकतंत्र की रक्षा हेतु चुनाव कराने में जुट गया . इस बार एक एक वोट की खीमत ज्यादा थी , इसलिये नेता जी ने झुग्गी बस्तियो में नाच गाने के आयोजन करवाये , अब यह तो समझने की बात है कि जब हर वोट कीमती हो तो दारू वारू , कम्बल धोती जैसी छोटी मोटी चीजें उपहार स्वरूप ली दी गईं होंगी , पत्रकारो को रुपये बांटकर अखबारो में जगह बनाई गई होगी . एवरी थिंग इज फेयर इन लव वार एण्ड इलेक्शन . खैर , ये चुनाव भी सुसंपन्न हुये , क्या हुआ जो कुछ एक घटनाये मार पीट की हुई , कही छुरे चले , दो एक वारदात गोली बारी की हुईं . इतनी कीमत में जनता की जनता के द्वारा , जनता के लिये चुनी गई सरकार कुछ ज्यादा बुरी नही है .
लगातार , हर साल दो साल में होते इन चुनावो का असर बतंगड़ जी घर पर भी हुआ . बतंगड़ जी की पत्नी , और बच्चो के अवचेतन मस्तिष्क में लोकतांत्रिक भावनाये संपूर्ण परिपक्वता के साथ घर कर गई . उन्हे लगने लगा कि घर में जो बतंगड़ जी का राष्ट्रपति शासन चल रहा है वह नितांत अलोकतांत्रिक है . उन्हें अमेरिका से कंम्पेयर किया जाने लगा , जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक सिद्धांतो की सबसे ज्यादा बात तो करता है पर करता वही है जो उसे करना होता है . बच्चो के सिनेमा जाने की मांग को उनकी ही पढ़ाई के भले के लिये रोकने की विटो पावर को चैलेंज किया जाने लगा , पत्नी की मायके जाने की डिमांड बलवती हो गई . मुझे लगने लगा कि एंटी इनकंम्बेंसी फैक्टर बतंगड़ जी को कही का नही छोड़ेगा . अस्तु , एक दिन चाय पर घर की सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को लेकर खुली बहस हई . महिला आरक्षण का मुद्दा गरमाया .संयोग वश मै भी तब बतंगड़ जी के घर पर ही था , मैने अपना तर्क रकते हुये भारतीय संस्कृति की दुहाई दी और बच्चो को बताया कि हमारे संस्कारो में विवाह के बाद पत्नी स्वतः ही घर की स्वामिनी होती है ,बतंगड़ जी जो कुछ करते कहते है उसमे उनकी मम्मी की भी सहमति होती है . पर मेरी बातें संसद में विपक्ष के व्यक्तव्य की तरह अनसुनी कर दी गई . तय हुआ कि घर के सुचारु संचालन के लिये चुनाव हों . निष्पक्ष चुनावों के लिये बच्चो ने मेरी एक सदस्यीय समिति का गठन कर , तद्संबंधी सूचना परिवार के सभी सदस्यो को दे दी . अपने अस्तित्व की लोकतांत्रिक लड़ाई लड़ने के लिये गृह प्रतिनिधि चयन हेतु बतंगड़ जी को अपनी उम्मीदवारी की घोषणा करनी ही पड़ी . मुख्य प्रतिद्वंदी उनकी ही अपनी पत्नी थी , मतदान से पहले एक सप्ताह का समय , प्रचार के लिये मिला है . जिसके चलते पत्नी जी नित नये पकवान बनाकर बच्चो सहित हम सबका मन मोह लेना चाहती थी ,निष्पक्ष चुनाव प्रभारी होने के नाते मै अतिथि होते हुये भी इन दिनो उन पकवानो से वंचित हूं . बतंगड़ जी ने भी कुछ लिबरल एटीट्यूड अपनाते हुये सबको फिल्म ले जाने की पेशकश की है , सरप्राइज गिफ्ट के तौर पर बच्चो के लिये नये कपड़े , पिताजी की एक छड़ी सही सलामत होते हुये भी नई मेडिको वाकिंग स्टिक और पत्नी के लिये मेकअप का ढ़ेर सा सामान ले आये है. इन चुनावो के चक्कर में जो बजट बिगड़ा है उसकी पूर्ति हेतु बतंगड़ जी मुझसे सलाह कर रहे थे , तो मैने उन्हें बताया कि जब चुनावी खर्च के लिये देश चिंता नही करता तो फिर आप क्यों कर रहे हैं ? देश एशियन डेवलेप मेंट बैंक से लोन लेता है , डेफिशिट का बजट बनाता है , आप भी लोन लेने के लिये बैंक से फार्म ले आयें . बतंगड़ जी के घर के चुनावो में बच्चो के मामा और बुआ जी के परिवार अपना प्रभाव स्थापित करने के पूरे प्रयास करते दिख रहे है, जैसे हमारे देश के चुनावो में विदेशी सरकारे करती है . स्वतंत्र व निष्पक्ष आब्जरवर की हैसियत से मैने बतंगड़ जी के दूसरे पड़ोसियो को भी बुलावा भेजा है ... मतदान की तिथी अभी दूर है पर बिना मतदान हुये , केवल घर की सरकार के चुनावो के नाम पर ही बतंगड़ जी के घर में रंगीनियो का सुमधुर वातावरण है , और हम सब उसका लुत्फ ले रहे हैं .