Thursday, January 17, 2008

"रेल्वे फाटक के उस पार"



व्यंग
००
"रेल्वे फाटक के उस पार"

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी - 6 , एम.पी.ई.बी.कालोनी
रामपुर, जबलपुर ४८२००८ (भारत)

मोबा. ०९४२५४८४४५२
ई मेल vivekranjan.vinamra@gmail.com

मेरा घर और दफ्तर ज्यादा दूर नहीं है , पर दफ्तर रेल्वे फाटक के उस पार है . मैं देश को एकता के सूत्र में जोड़ने वाली , लौह पथ गामिनी के गमनागमन का सुदीर्घ समय से साक्षी हूँ . मेरा मानना है कि पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक देश को जोड़े रखने में , समानता व एकता के सूत्र स्थापित करने मे , भारतीय रेल, बिजली के नेशनल ग्रिड और टीवी सीरीयल्स के माध्यम से एकता कपूर ने बराबरी की भागीदारी की है .
राष्ट्रीय एकता के इस दार्शनिक मूल्यांकन में सड़क की भूमिका भी महत्वपूर्ण है ,पर चूँकि रेल्वे फाटक सड़क को दो भागों में बाँट देता है , जैसे भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर हो , अतः चाहकर भी सड़क को देश की एकता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता . इधर जब से हमारी रेल ने बिहार का नेतृत्व गृहण किया है , वह दिन दूनी रात चौगिनी रफ्तार से बढ़ रही है . ढ़ेरों माल वाहक , व अनेकानेक यात्री गाड़ियां लगातार अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हैं , और हजारों रेल्वे फाटक रेल के आगमन की सूचना के साथ बंद होकर , उसके सुरक्षित फाटक पार हो जाने तक बंद बने रहने के लिये विवश हैं .
मेरे घर और दफ्तर के बीच की सड़क पर लगा रेलवे फाटक भी इन्हीँ में से एक है , जो चौबीस घंटों में पचासों बार खुलता बंद होता है . प्रायः आते जाते मुझे भी इस फाटक पर विराम लेना पड़ता है . आपको भी जिंदगी में किसी न किसी ऐसे अवरोध पर कभी न कभी रुकना ही पड़ा होगा जिसके खुलने की चाबी किसी दूसरे के हाथों में होती है , और वह भी उसे तब ही खोल सकता है जब आसन्न ट्रेन निर्विघ्न निकल जाये .
खैर ! ज्यादा दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है, सबके अपने अपने लक्ष्य हैं और सब अपनी अपनी गति से उसे पाने बढ़े जा रहे हैं अतः खुद अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिये फाटक के उस पार तभी जाना चाहिये , जब फाटक खुला हो . पर उनका क्या किया जावे जो शार्ट कट अपनाने के आदि हैं , और बंद फाटक के नीचे से बुचक कर ,वह भी अपने स्कूटर या साइकिल सहित ,निकल जाने को गलत नहीं मानते .नियमित रूप से फाटक के उपयोगकर्ता जानते हैं कि अभी किस ट्रेन के लिये फाटक बंद है ,और अब फिर कितनी देर में बंद होगा. अक्सर रेल निकलने के इंतजार में खड़े बतियाते लोग कौन सी ट्रेन आज कितनी लेट या राइट टाइम है , पर चर्चा करते हैं . कोई भिखारिन इन रुके लोगों की दया पर जी लेती है , तो कोई फुटकर सामान बेचने वाला विक्रेता यहीं अपने जीवन निर्वाह के लायक कमा लेता है .
जैसे ही ट्रेन गुजरती है , फाटक के चौकीदार के एक ओर के गेट का लाक खोलने की प्रक्रिया के चलते , दोनो ओर से लोग अपने अपने वाहन स्टार्ट कर , रेडी ,गैट ,सैट ,गो वाले अंदाज में तैयार हो जाते हैं . जैसे ही गेट उठना शुरू होता है , धैर्य का पारावार समाप्त हो जाता है . दोनो ओर से लोग इस तेजी से घुस आते हैं मानो युद्ध की दुदंभी बजते ही दो सेनायें रण क्षेत्र में बढ़ आयीं हों . इससे प्रायः दोनो फाटकों के बीच ट्रैफिक जाम हो जाता है ! गाड़ियों से निकला बेतहाशा धुआँ भर जाता है , जैसे कोई बम फूट गया हो ! दोपहिया वाहनों पर बैठी पिछली सीट की सवारियाँ पैदल क्रासिंग पार कर दूसरे छोर पर खड़ी ,अपने साथी के आने का इंतजार करती हैं . धीरे धीरे जब तक ट्रैफिक सामान्य होता है , अगली रेल के लिये सिग्नल हो जाता है और फाटक फिर बंद होने को होता है .फाटक के बंद होने से ठीक पहले जो क्रासिंग पार कर लेता है ,वह विजयी भाव से मुस्कराकर आत्म मुग्ध हो जाता है .
फाटक के उठने गिरने का क्रम जारी है .
स्थानीय नेता जी हर चुनाव से पहले फाटक की जगह ओवर ब्रिज का सपना दिखा कर वोट पा जाते हैं . लोकल अखबारों को गाहे बगाहे फाटक पर कोई एक्सीडेंट हो जाये तो सुर्खिया मिल जाती हैं . देर से कार्यालय या घर आने वालों के लिये फाटक एक स्थाई बहाना है . फाटक की चाबियाँ सँभाले चौकीदार अपनी ड्रेस में , लाल ,हरी झंडिया लिये हुये पूरा नियँत्रक है ,वह रोक सकता है मंत्री जी को भी कुछ समय फाटक के उस पार जाने से .

विवेक रंजन श्रीवास्तव

"मोबाइल प्लान की प्लानिंग"


व्यंग
००
"मोबाइल प्लान की प्लानिंग"

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी - 6 , एम.पी.ई.बी.कालोनी
रामपुर, जबलपुर ४८२००८

मोबा. ०९४२५४८४४५२
ई मेल vivekranjan.vinamra@gmail.com

मै सदा से परिर्वतन का समर्थक रहा हूँ .मेरा विश्वास है कि समय से तालमेल बैठा कर चलना प्रगतिशील होने की पहचान है . अपने इसी ध्येय की प्राप्ति हेतु और कुछ बीबी, बच्चों की फरमाईश पर, नितांत अनावश्यक होते हुये भी मैने एक मोबाइल फोन खरीद लिया . अब यह आवश्यक हो गया कि मै किसी कंपनी की एक सिम खरीद कर , किसी प्लान विशेष को चुनकर , मोबाइल हो जाऊँ ."जागो ग्राहक जागो॔" की अलख सुन , अपने पढ़े लिखे होने का परिचय देते हुये एक जागरूख उपभोक्ता की तरह, मै किस कंपनी का कौन सा प्लान चुनुं इस अनुसंधान में जुट गया . समय की दौड़ में सरकारी विभाग से लिमिटेड कंपनी में परिर्वतित कंपनी सहित चार पाँच निजी कंपनियों के प्रिपेड एवं पोस्ट पेड प्लान्स के ब्रोशर्स शहर भर में घूम घूम कर एकत्रित किये , मेरे उत्साही बेटे ने इंटरनेट से भी काफी सारी जानकारी डाउनलोड कर प्रिंट रूप में सुलभ कर दी ,जी पी आर एस एवं सी डी एम तकनीक की वैकल्पिक प्रणालियों में से एक का चयन करना था फिर हमें निर्णय लेना था कि हम किस मोबाइल सेवा के कैसे उपभोक्ता बनें? कोई कुछ आफर कर रहा था तो कोई कुछ और प्रलोभन दे रहा था .कहीं सिम खरीदते ही फ्री गिफ्ट थी , तो कहीं तारीख विशेष तक छूट का आकर्षण .किसी की रोमिंग इनकमिंग कम थी तो किसी की आउटगोइंग . मोबाइल से मोबाइल,मोबाइल से डब्लू एल एल ,मोबाइल से फिक्स्ड लाइन सबकी काल दरें बिल्कुल अलग अलग थीं . अपने ही टेलीकाम सर्किल के रेट्स अलग और एस.टी.डी. व आई.एस.डी. के भी रेट्स अलग अलग थे. कहीं पल्स पंद्रह सेकेंड्स की थी तो कहीं एक मिनट की .अपनी कंपनी के ही दूसरे फोन पर काल करने की दर कुछ और थी , तो अपनी कंपनी से किसी अन्य कंपनी के उपभोक्ता से बातें करने के चार्जेज अलग . विदेश बातें करनी हों तो विभिन्न देशों के लिये भी रेट्स पूरी तरह से भिन्न थे . मैं पूरी तरह कंफ्यूज्ड हो गया था .
इतनी अधिक विविधताओं के बीच चयन करके आज तक मैने कभी भी कुछ नहीं लिया था . बचपन में परीक्षा में सभी प्रश्न अनिवार्य होते थे च्वाइस होती भी थी तो एक ही चैप्टर के दो प्रशनों के बीच , मुझसे ऊपर वाला प्रश्न ही बन जाता था अतः कभी चुनने की आवश्यकता नहीं पड़ी , हाँ चार वैकल्पिक उत्तरों वाले सवालों में जरूर जब कुछ नहीं सूझता था, तो राम राम भजते हुये किसी एक पर सही का निशान लगा देता था . तब आज की तरह ऐंसर शीट पर काले गोले नहीं बनाने पड़ते थे . डिग्री लेकर निकला तो जहाँ सबसे पहले नौकरी लगी ,वहीं आज तक चिपका हुआ हूँ. नेम प्लेट में अपने डिपार्टमेंट का नाम ऐसे चिपका रखा है जैसे सारा डिपार्टमेंट ही मेरा हो . कोई मेरे विभाग के विषय में कुछ गलत सही कहता है ,तो लगता है, जैसे मुझे ही कह रहा हो .मैं सेंटीमेंटल हो जाता हूँ . आज की प्रगतिशील भाषा में मै थोड़ा थोड़ा इमोशनल फूल टाइप का प्राणी हूँ . जीवन ने अब तक मुझे कुछ चुनने का ज्यादा मौका नहीं दिया . पिताजी ने खुद चुनकर जिस लड़की से मेरी शादी कर दी ,वह मेरी पत्नी है और अब मेरे लिये सब कुछ चुनने का एकाधिकार उसके पास सुरक्षित है . मेरे तो कपड़े तक वही ले आती है, जिनकी उन्मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कर पहनना मेरी अनिवार्य विवशता होती है .अतः जब सैकड़ों आप्शन्स के बीच श्रेष्ठतम मोबाइल प्लान चुनने की जबाबदारी मुझ पर बरबस आ पड़ी तो मेरा दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक ही था .अपना प्लान चुनने के लिये मैने सरकारी खरीदी की तरह कम्पेरेटिव स्टेटमेंट बनाने का प्रयास किया तो मैने पाया कि हर प्लान दूसरे से पूरी तरह भिन्न है और चयन की यह प्रणाली कारगर नहीं है . हर विज्ञापन दूसरे से ज्यादा लुभावना है . मै किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ.
ऐसे सैकड़ों विकल्पों वाले आकर्षक प्लान के निर्माताओं , नव युवा एम.बी.ए. पास , मार्केटिंग मैनेजर्स की योग्यता का मैं कायल हो गया था .मुझे कुछ कुछ समझ आ रहा था कि आखिर क्यों उतना ही शिक्षित होने पर भी , आज के फ्रेश युवाओं से उनके पिताओं को चौथाई वेतन ही मिल रहा है ! मैं हर हाथ में मोबाइल लिये घूम रही आज की पीढ़ी का भी सहज प्रशंसक बन गया हूँ जो सुगमता से इन ढ़ेर से आफरों में से अपनी जरूरत का विकल्प चुन लेती है .

विवेक रंजन श्रीवास्तव