पुस्तक चर्चा
लाकडाउन
व्यंग्य संग्रह
संपादन .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
पृष्ठ १६४ , मूल्य ३५० रु
IASBN 9788194727217
वर्ष २०२०
रवीना प्रकाशन , गंगा विहार , दिल्ली
चर्चाकार .. डा साधना खरे , भोपाल
हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है . पाठको को व्यंग्य में कही गई बातें पसंद आ रही हैं . व्यंग्य लेखन घटनाओ पर त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति का सशक्त मअध्यम बना है . जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है , वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है . ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है , व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा , उसकी उपेक्षा करते हुये , व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं . ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं .
विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं . उनकी कई किताबें छप चुकी हैं . उन्होने कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है . उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं . दृष्टि गंभीर है . विषयो की उनकी सीमायें व्यापक है .
वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया . दुनिया घरो में लाकडाउन हो गई . इस पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी . वैश्विक संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना . ऐसे समय में भी रचनात्मकता नही रुक सकती थी . कोरोना काल निश्चित ही साहित्य के एक मुखर रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा . इस कालावधि में खूब लेखन हुआ . इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक , गूगल मीट , जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हो रहे हैं . यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है . विवेक जी ने भी रवीना प्रकाशन के माध्यम से कोरोना तथा लाकडाउन विषयक विसंगतियो पर केंद्रित व्यंग्य तथा काव्य रचनाओ का अद्भुत संग्रह लाकडाउन शीर्षक से प्रस्तुत किया है . पुस्तक आकर्षक है . संकलन में वरिष्ठ , स्थापित युवा सभी तरह के देश विदेश के रचनाकार शामिल किये गये हैं .
गंभीर वैचारिक संपादकीय के साथ ही रमेशबाबू की बैंकाक यात्रा और कोरोना तथा महादानी गुप्तदानी ये दो महत्वपूर्ण व्यंग्य लेख स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के हैं , जिनमें कोरोना जनित विसंगति जिसमें परिवार से छिपा कर की गई बैंकाक यात्रा तथा शराब के माध्यम से सरकारी राजस्व पर गहरे कटाक्ष लेखक ने किये हैं , गुदगुदाते हुये सोचने पर विवश कर दिया है .
जिन्होने भी कोरोना के आरंभिक दिनो में तबलीकी जमात की कोरोना के प्रति गैर गंभीर प्रवृत्ति और टीवी चैनल्स की स्वयं निर्णय देती रिपोर्टिग देखी है उन्हें जहीर ललितपुरी का व्यंग्य लाकडाउन में बदहजमी पढ़कर मजा आ जायेगा . डा अमरसिंह का लेख लाकडाउन में नाकडाउन में हास्य है, उन्होने पत्नी के कड़क कोरोना अनुशासन पर कटाक्ष किया है . लाकडाउन के समाज पर प्रभाव भावना सिंह ने मजबूर मजदूर , रोजगार , प्रकृति सारे बिन्दुओ का समावेश करते हुये पूरा समाजशास्त्रीय अध्ययन कर डाला है .
कुछ जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि ब्रजेश कानूनगो जी का व्यंग्य " मंगल भवन अमंगल हारी " है . उन्होंने संवाद शैली में गहरे कटाक्ष करते हुये लिखा है " उन्हें अब बहुत पश्चाताप भी हो रहा था कि शास्त्रा गृह को समृद्ध करने के बजाय वे औषधि विज्ञान और चिकित्सालयों के विकास पर ध्यान क्यो नही दे पाये " . केनेडा से धर्मपाल महेंद्र जैन की व्यंग्य रचना वाह वाह समाज के तबलीगियों से पठनीय वैचारिक व्यंग्य रचना है . उनकी दूसरी रचना लाकडाउन में दरबार में उन्होंने धृतराष्ट्र के दरबार पर कोरोना जनित परिस्थितियों को आरोपित कर व्यंग्य उत्पन्न किया है . इसी तरह प्रभात गोस्वामी देश के विख्यात व्यंग्यकारो में से एक हैं , कोरोना पाजिटिव होने ने पाजिटिव शब्द को निगेटिव कर दिया है ,उनका व्यंग्य नेगेटिव बाबू का पाजिटिव होना बड़े गहरे अर्थ लिये हुये है ,वे लिखते हैं हम राम कहें तो वे मरा कहते हैं . सुरेंद्र पवार परिपक्व संपादक व रचनाकार हैं , उन्होंने अपने व्यंग्य के नायक बतोले के माध्यम से " भैया की बातें में" घर से इंटरनेट तक की स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किया है . डा प्रदीप उपाध्याय वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं , उनके दो व्यंग्य संकलन में शामिल हैं , "कोरोनासुर का आतंक और भगवान से साक्षात्कार" तथा "एक दृष्टि उत्तर कोरोना काल पर" . दोनो ही व्यंग्य उनके आत्मसात अनुभव बयान करते बहुत रोचक हैं . कोरोना काल में थू थू करने की परंपरा के माध्यम से युवा व्यंग्यकार अनिल अयान ने बड़े गंभीर कटाक्ष किये हैं , थू थू करने का उनका शाब्दिक उपयोग समर्थ व्यंग्य है . अजीत श्रीवास्तव बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं , उनकी रचना ही शायद संग्रह का सबसे बड़ा लेख है जिसमें छोटी छोटी २५ स्वतंत्र कथायें कोरोना काल की घटनाओ पर उनके सूक्ष्म निरीक्षण से उपजी हुई , पठनीय रचनायें हैं . राकेश सोहम व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना चर्चित नाम है , उनका छोटा सा लेख बंशी बजाने का हुनर बहुत कुछ कह जाताने में सफल रहा है . रणविजय राव ने कोरोना के हाल से बेहाल रामखेलावन में बहुत गहरी चोट की है , उन जैसे परिपक्व व्यंग्यकार से ऐसी ही गंभीर रचना की अपेक्षा पाठक करते हैं .
महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है . सबसे उल्लेखनीय नाम अलका सिगतिया का है . लाकडाउन के बाद जब शराब की दूकानो पर से प्रतिबंध हटा तो जो हालात हुये उससे उपजी विसंगती उनकी लेखनी का रोचक विषय बनी " तलब लगी जमात " उनका पठनीय व्यंग्य है . अनुराधा सिंह ने दो छोटे सार्थक व्यंग्य सांप ने दी कोरोना को चुनौती और वर्क फ्राम होम ऐसा भी लिखा है . छाया सक्सेना प्रभु समर्थ व्यंग्यकार हैं उन्होने अपने व्यंग्य जागते रहो में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं वे लिखती हैं लाकडाउन में पति घरेलू प्राणी बन गये हैं , कभी बच्चो को मोबाईल से दूर हटाते माता पिता ही उन्हें इंटरनेट से पढ़ने प्रेरित कर रहे हैं , कोरोना सब उल्टा पुल्टा कर रहा है . शेल्टर होम में डा सरला सिंह स्निग्धा की लेखनी करुणा उपजाती है .सुशीला जोशी विद्योत्तमा की दो लघु रचनायें लाकडाउन व व्यसन संवेदना उत्पन्न करती हैं . राखी सरोज के लेख गंभीर हैं .
गौतम जैन ने अपनी रचना दोस्त कौन दुश्मन कौन में संवेदना को उकेरा है . डा देवेश पाण्डेय ने लोक भाषा का उपयोग करते हुये पनाहगार लिखा है . डा पवित्र कुमार शर्मा ने एक शराबी का लाकडाउन में शराबियो की समस्या को रेखांकित किया है . कोरोना से पीड़ित हम थे ही और उन्ही दिनो में देश में भूकम्प के जटके भी आये थे , मनीष शुक्ल ने इसे ही अपनी लेखनी का विषय बनाया है .डा अलखदेव प्रसाद ने स्वागतम कोरोना लिखकर उलटबांसी की हे . राजीव शर्मा ने कोरोना काल में मनोरंजक मीडीया लिखकर मीडीया के हास्यास्पद , उत्तेजना भरे , त्वरित के चक्कर में असंपादित रिपोर्टर्स की खबर ली है .व्यग्र पाण्डे ने मछीकी और मास्क में प्रकृति पर लाकडाउन के प्रभाव पर मानवीय प्रदूषण को लेकर कटाक्ष किया है . एम मुबीन ने कम शब्दो की रचना में बड़ी बातें कह दी हैं . दीपक क्रांति की दो रचनायें संग्रह का हिस्सा हैं , नया रावण तथा मजबूर या मजदूर , कोरोना काल के आरंभिक दिनो की विभीषिका का स्मरण इन्हें पढ़कर हो आता है . महामारी शीर्षक से धर्मेंद्र कुमार का आलेख पठनीय है .
दीपक दीक्षित , बिपिन कुमार चौधरी , शिवमंगल सिंह , प्रो सुशील राकेश , उज्जवल मिश्रा और राहुल तिवारी की कवितायें भी हैं .
कुल मिलाकर पुस्तक बहुत अच्छी बन पड़ी है , यद्यपि प्रकाशन में सावधानी की जरूरत दिखती है , कई रचनाओ के शीर्षक गलती से हाईलाईट नही हो पाये हैं , रचनाओ के अंत में रचनाकारो के पते देने में असमानता खटकती है .कीमत भी मान्य परमंपरा जितने पृष्ठ उतने रुपये के फार्मूले पर किंचित अधिक लगती है , पर फिर भी लाकडाउन में प्रकाशित साहित्य की जब भी शोध विवेचना होगी इस संकलन की उपेक्षा नही की जा सकेगी यह तय है . जिसके लिये संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व प्रकाशक बधाई के पात्र हैं .
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कैसा लगा ..! जानकर प्रसन्नता होगी !