Saturday, March 4, 2017

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी

व्यंग लेख
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १ , विद्युत मण्डल कालोनी , नयागांव जबलपुर
९४२५८०६२५२ , ७०००३७५७९८
vivek1959@yahoo.co.in

        उनकी सब सुनना पड़ती है अपनी सुना नही सकते , ये बात रेडियो और बीबी दोनो पर लागू होती है . रेडियो को तो बटन से बंद भी किया जा सकता है पर बीबी को तो बंद तक नही किया जा सकता . मेरी समझ में भारतीय पत्नी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा प्रतीक है .
        क्रास ब्रीड का एक बुलडाग सड़क पर आ गया , उससे सड़क के  देशी कुत्तो ने पूछा, भाई आपके वहाँ बंगले में कोई कमी है जो आप यहाँ आ गये ? उसने कहा,  वहाँ का रहन सहन , वातावरण, खान पान, जीवन स्तर सब कुछ बढ़िया है , लेकिन बिना वजह भौकने की जैसी आजादी यहाँ है ऐसी वहाँ कहाँ ?  अभिव्यक्ति की आज़ादी जिंदाबाद .
        अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में ,जब हम कुछ अभिव्यक्त करने लायक हुये , हाईस्कूल में थे . तब एक फिल्म आई थी "कसौटी" जिसका एक गाना बड़ा चल निकला था , गाना क्या था संवाद ही था ... हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है एक मेमसाब है, साथ में साब भी है मेमसाब सुन्दर-सुन्दर है, साब भी खूबसूरत है दोनों पास-पास है, बातें खास-खास है दुनिया चाहे कुछ भी बोले, बोले हम कुछ नहीं बोलेगा हम बोलेगा तो...हमरा एक पड़ोसी है, नाम जिसका जोशी है ,वो पास हमरे आता है, और हमको ये समझाता है जब दो जवाँ दिल मिल जाएँगे, तब कुछ न कुछ तो होगा
जब दो बादल टकराएंगे, तब कुछ न कुछ तो होगा दो से चार हो सकते है, चार से आठ हो सकते हैं, आठ से साठ हो सकते हैं जो करता है पाता है, अरे अपने बाप का क्या जाता है ?
जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले,  हम तो कुछ नहीं बोलेगा , हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है .
        अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर रोक लगाने की कोशिशो पर यह बहुत सुंदर अभिव्यक्ति थी . यह गाना हिट ही हुआ था कि आ गया था १९७५ का जून और देश ने देखा आपातकाल , मुंह में पट्टी बांधे सारा देश समय पर हाँका जाने लगा . रचनाकारो , विशेष रूप से व्यंगकारो पर उनकी कलम पर जंजीरें कसी जाने लगीं .  रेडियो बी बी सी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया . मैं  इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था ,उन दिनो हमने जंगल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा लगाई , स्थानीय समाचारो के साइक्लोस्टाइल्ड पत्रक बांटे . सूचना की ऐसी  प्रसारण विधा की साक्षी बनी थी हमारी पीढ़ी .  "अमन बेच देंगे,कफ़न बेच देंगे , जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे कलम के सिपाही अगर सो गये तो, वतन के मसीहा,वतन बेच देंगे" ये पंक्तियां खूब चलीं तब . खैर एक वह दौर था जब विशेष रूप से राष्ट्र वादियो पर , दक्षिण पंथी कलम पर रोक लगाने की कोशिशें थीं .
        अब पलड़ा पलट सा गया है . आज  देश के खिलाफ बोलने वालो पर उंगली उठा दो तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहा जाने का फैशन चल निकला है . राजनैतिक दलो के  स्वार्थ तो समझ आते हैं पर विश्वविद्यालयो , और कालेजो में भी पाश्चात्य धुन के साथ मिलाकर राग अभिव्यक्ति गाया जाने लगा है  इस मिक्सिंग से जो सुर निकल रहे हैं उनसे देश के धुर्र विरोधियो , और पाकिस्तान को बैठे बिठाये मुफ्त में  मजा आ रहा है . दिग्भ्रमित युवा इसे समझ नही पा रहे हैं .
        गांवो में बसे हमारे भारत पर दिल्ली के किसी टी वी चैनल  में हुई किसी छोटी बड़ी बहस से या बहकावे मे आकर  किसी कालेज के सौ दो सौ युवाओ की  नारेबाजी करने से कोई अंतर नही पड़ेगा . अभिव्यक्ति का अधिकार प्रकृति प्रदत्त है , उसका हनन करके किसी के मुंह में कोई पट्टी नही चिपकाना चाहता  पर अभिव्यक्ति के सही उपयोग के लिये युवाओ को दिशा दिखाना गलत नही है , और उसके लिये हमें बोलते रहना होगा फिर चाहे जोशी पड़ोसी कुछ बोले या नानी , सबको अनसुना करके  सही आवाज सुनानी ही होगी कोई सुनना चाहे या नही .शायद यही वर्तमान स्थितियो में  अभिव्यक्ति के सही मायने होंगे .  हर गृहस्थ जानता है कि  पत्नी की बड़ बड़  लगने वाली अभिव्यक्ति परिवार के और घर के हित के लिये ही होती हैं . बीबी की मुखर अभिव्यक्ति से ही बच्चे सही दिशा में बढ़ते हैं और पति समय पर घर लौट आता है ,  तो अभिव्यक्ति की प्रतीक पत्नी को नमन कीजीये और दैस हित में जो भी हो उसे अभिव्यक्त करने में संकोच न कीजीये . कुछ तो लोग कहेंगे लोगो का काम है कहना , छोड़ो बेकार की बातो में कही बीत न जाये रैना ! टी वी पर तो प्रवक्ता कुछ न कुछ कहेंगे ही उनका काम ही है कहना .

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