Thursday, December 25, 2025

काश कि सांता सचमुच खुशियां बांट सकता

 

व्यंग्य


काश कि सांता सचमुच खुशियां बांट सकता 


विवेक रंजन श्रीवास्तव 


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लाल टोपी वाला सांता इस बार कुछ ज़्यादा ही देर से आया, शायद इसलिए कि अब उसे भी अपने रेनडियर के लिए पेट्रोल पंप पर लाइन लगानी पड़ती है और उत्तरी ध्रुव से निकलते ही टोल प्लाज़ा पर फास्टैग रिचार्ज कराना होता है। चिमनी से उतरने की पुरानी परंपरा भी अब उसे डराती है क्योंकि नीचे सीसीटीवी की आंखें जाग रही होती हैं और दीवार पर चमकती चेतावनी लिखी होती है कि आप कैमरे की निगरानी में हैं। ऐसे में कोई भी समझदार सांता दरवाज़े पर ही घंटी बजाकर लौट जाना बेहतर समझता है। हम सोते रह जाते हैं, सांता गिफ्ट लिए आगे बढ़ जाता है, शायद इसलिए खुद को ही पल भर की झूठी खुशियों का धोखा देने हम खुद ही नकली क्रिसमस ट्री के नीचे स्वयं ही रैप कर गिफ्ट रख देते हैं।


बच्चों की दुनिया भी बदल गई है। अब उन्हें चॉकलेट से ज़्यादा डेटा पैक चाहिए ताकि वे अपने गिफ्ट को लाइव ट्रैक कर सकें और सांता के रास्ते में कहीं सिग्नल न चला जाए इसकी दुआ कर सकें। बड़े लोग तो और आगे निकल चुके हैं। उन्होंने क्रिसमस ट्री भी ईएमआई पर लिया हुआ है और उस पर लगी लाइटें ऐसे टिमटिमाती हैं जैसे शेयर बाज़ार का ग्राफ, कभी ऊपर, कभी नीचे, और हर चमक के साथ दिल धक से बैठ जाता है कि अगली किस्त समय पर जाएगी या नहीं।


सांता की स्लेज़ पर अब जादू से ज़्यादा विज्ञापन चलते हैं। लाल कपड़े पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लोगो ऐसे चिपके हैं जैसे उसकी पहचान का नया आधार कार्ड बन गए हों। वह थैली नहीं खोलता, कार्ड स्वाइप करता है, और कई जगह तो सीधे खाते में पैसा ट्रांसफर करता है ताकि लोगों की आस्था के साथ साथ उनके वोट और समर्थन भी सुरक्षित रहे। गरीब बस्तियों में जिस दिन सांता आता है उसी दिन बिजली चली जाती है। अंधेरा ही उनका गिफ्ट रैपर बन जाता है और बच्चे समझते हैं कि शायद यही नई पैकेजिंग है।


दुनिया भर के नेता भी साल में कई बार सांता बनते हैं। मीठी आवाज़, लाल रंग की टाई, और वादों से भरा पर खाली थैला। कोई शांति लाने का भरोसा देता है, कोई सुधारों का सपना दिखाता है, पर उनके हिरन उन्हीं मैदानों में घास ढूंढते हैं जहां पहले से ही कुछ नहीं बचा। उनके स्लेज़ की घंटी बजती रहती है और जनता उम्मीद की बर्फ पर नीचे और नीचे फिसलती चली जाती है।


सांता अब ग्लोबल वार्मिंग से परेशान है। बर्फ पिघल रही है और उसका इलाका सिकुड़ता जा रहा है। शायद इसलिए उसने उत्तरी ध्रुव से ज़्यादा स्टॉक मार्केट में समय बिताना शुरू कर दिया है। वह अब बर्फ की ढलानों से नहीं, शेयर की गिरावट से उतरता है और भरोसे की चिमनी में फँस जाता है। सोने की कीमतें बढ़ रही हैं, सांता सो भी नहीं पाता, पर जागे रहना कठिन है। 


सवाल यह नहीं कि सांता आएगा या नहीं। असल सवाल यह है कि हम अब भी हर समस्या के लिए किसी सांता या संत के चमत्कार का इंतज़ार क्यों करते हैं। क्या हमें सच में कोई जादुई टोपी वाला चाहिए जो हमारी महंगाई घटाए, हमारी बेरोज़गारी लपेट कर ले जाए और हमारी जिम्मेदारियों को गिफ्ट पेपर में बांध दे। या फिर हमें उस आत्मविश्वास की ज़रूरत है जो हमें याद दिलाए कि मेहनत का कोई शॉर्टकट नहीं होता।


क्योंकि सांता का काम सुविधाएं देना नहीं, प्रेरणा देना था। उसने रास्ता दिखाया था, मंज़िल तय करने की जिम्मेदारी हमें दी थी। लेकिन हम हर मुश्किल में सांता की ओर देखने के आदी हो गए और भूल गए कि असल में गिफ्ट हम खुद ही लपेट कर अपने ही पेड़ के नीचे रखते हैं। बच्चों को कुछ देर बहलाया जा सकता है, पर झूठी चमक से ज़िंदगी की अंधेरी गलियां हमेशा के लिए खुशियों से रोशन नहीं होतीं।


और अगर सांता लौट भी आए तो शायद मुस्कुराकर यही कहे कि मैं तो सिर्फ प्रतीक हूं, खुशी, शांति, बराबरी और स्थाई राहत तुम्हें खुद पैदा करनी होगी, मैं तुम्हारे लिए सिर्फ घंटी बजा सकता हूं, रास्ता तुम्हें खुद चलना होगा।


इस व्यंग्य का असली टेक अवे यही है कि इंतज़ार करने की आदत छोड़ो, सवाल पूछने की हिम्मत पैदा करो, वादों की रैपिंग उतार कर असलियत देखो और अपनी दुनिया की स्लेज़ खुद खींचो, क्योंकि आज के ज़माने में सांता नहीं, सजगता ही सबसे बड़ा गिफ्ट है।




vivek ranjan shrivastava

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कैसा लगा ..! जानकर प्रसन्नता होगी !