अव्यंग
वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना हो अब
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२
यह समय कीर्तीमानो का है . तरह तरह के कीर्तिमान बनाये जा रहे हैं , उनका लेखा जोखा रखा जा रहा है .तरह तरह के सम्मान , पुरुस्कार स्थापित हो रहे हैं ,सम्मान पाकर लोग गौरवांवित हो रहे हैं . . पहले का समय और था ,पुरस्कार देकर देने वाले गौरवान्वित होते थे अब पुरुस्कारों के लिये जुगाड़ किये जा रहे हैं , जिन्हें सीधे तरीको से पुरस्कार नही मिल पाते , वे अपने लिये नई कैटेगिरी ही बनवा लेते हैं .खेलकूद में ढ़ेरो पुरुस्कार हैं , प्रतियोगितायें हैं . साहित्य में , लेखन में कविता , कहानी , व्यंग में , पुस्तको के लिये भी कई कई पुरुस्कार हैं , जिन्हें खुद कभी कोई पुरस्कार नही मिला वे भी किसी की स्मृति में चंदा वंदा करके कोई पुरुस्कार या सम्मान समारोह आयोजित करने लगते हैं और एक विज्ञप्ति निकालते ही उनके साथ भी , सम्मान की चाहत रखने वालो की भीड़ जुटने लगती है .
पाश्चात्य देशो में नये नये प्रयोग हो रहे हैं , कोई टमाटर मसलने का कीर्तिमान बना रहा है तो कोई बर्फ पर कलाकारी करने का ,आये दिन कुछ न कुछ नया हो रहा है कीर्तिमान बनाने के लिये लोग जान की बाजी लगा रहे हैं . लिम्का ने तो सालाना बुक आफ रिकार्डस की किताब ही छापनी शुरू कर दी है . हमारे देश में पुरस्कारो के नामो के लिये हम अपने अतीत पर गर्व करते हुये पुरातन प्रतीको को अपना ब्रांड आइकान बनाते रहे हैं , निशानेबाजी के लिये एकलव्य पुरुस्कार ,खेलो के लिये अर्जुन पुरुस्कार ,वीरता के लिये महाराणा प्रताप पुरुस्कार , सामाजिक कार्यों के लिये बाबा साहेब अंबेडकर आदि आदि के नाम पर गौरव पूर्ण पुरस्कारो की स्थापना हमने कर रखी है . अब जब से हमारे एक प्रदेश के ८६ वर्षीय बुजुर्ग महामहिम जी पर केंद्रित , पता नहीं , असल या नकल शयन शैया पर निर्मित फिल्म का प्रसारण एक टी वी चैनल पर हुआ है , जरूरत हो चली है कि वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना हो .वानप्रस्थ की परम्परा और जरावस्था को चुनौती देते कथित प्रकरण से कई बुजुर्गो को नई उर्जा मिलेगी ,प्राचीन समय से हमारे ॠषि मुनी और आज भी वैज्ञानिक चिर युवा बने रहने की जिस खोज में लगे रहे हैं , उसी दिशा में यह एक कदम है . महर्षि वात्सायन ने जिस कामसूत्र की रचना की है , उसका सारा विश्व सदा से दीवाना रहा है .खजुराहो के विश्व विख्यात मंदिर वात्सायन के कामसूत्र को अद्वितीय मूर्तिकला के रूप में प्रदर्शित करते हैं . पाश्चात्य चिंतक फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार भी दुनिया के हर कार्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष , आधारभूत रूप से सैक्स ही होता है. . अर्थात हमें यह समझ लेने की जरूरत है कि सैक्स की जिस धारणा को जिसे छुपा छुपा कर हम बेवजह परेशान हैं , को गर्व से उजागर करने की आवश्यकता है . अब समय आ गया है कि यौन कुंठाओ का अंत हो . इंटरनेट पर वैसे ही सब कुछ केवल एक क्लिक पर सर्व सुलभ है . सैक्स टायज का बाजार करोड़ो में पहुंच रहा है .वियाग्रा , व अन्य कथित सैक्सवर्धक जड़ी बूटियों , दवाओ की विश्वव्यापी मांग है . फिल्मों में लम्बे किस सीन , निर्वस्त्र हीरोइन पुरानी बातें हो चली हैं . अब लासवेगास में लम्बे चुम्बन को लेकर प्रतियोगितायें हो रही हैं ,एक ही व्यक्ति कितनी लड़कियों से लगातार एक के बाद एक चुम्बन ले सकता ये कीर्तिमान बनाये जा रहे हैं . हमारे ही देश में वैश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा देने की मांग उठ रही है . अब समय है कि वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना हो .इससे पहले कि विदेशी बाजी मार लें , सैक्सोलाजिस्ट वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना , प्रतियोगिता के स्वरूप आदि को लेकर खुली चर्चा करे और महर्षि वात्सासयन के देश में विभिन्न कैटेगरीज में वात्सायन पुरस्कारो की स्थापना की जावे . जिससे जब किसी छिपे कैमरे से किसी कमरे की छुपी तस्वीरें बाहर आ जावें तो किसी योग्य नेता को त्यागपत्र न देना पड़े , वरन उसे वात्सायन पुरस्कारो की समुचित श्रेणि से सम्मानित कर हम गौरवांवित हो सकें .
Wednesday, February 24, 2010
Tuesday, February 23, 2010
बतंगड़ जी के घर की सरकार का इलेक्शन
व्यंग
बतंगड़ जी के घर की सरकार का इलेक्शन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
बतंगड़ जी मेरे पड़ोसी हैं . उनके घर में वे हैं , उनकी एकमात्र सुंदर सुशील पत्नी है , तीन बच्चे हैं जिनमें दो बेटियां और एक आज्ञाकारी होनहार , होशियार बेटा है , और हैं उनके वयोवृद्ध पिता . मैं उनके घर के रहन सहन परिवार जनो के परस्पर प्यार , व्यवार का प्रशंसक हूं . जितनी चादर उतने पेर पसारने की नीति के कारण इस मंहगाई के जमाने में भी बतंगड़ जी के घर में बचत का ही बजट रहता है . परिवार में शिक्षा का वातावरण है . उनके यहां सदा ही आदर्श आचार संहिता का वातावड़ण होता है , जिससे मैं प्रभावित हूं .
देश की संसद के चुनाव हुये , सरकार बनी . हम चुनावों के खर्च से बढ़ी हुई मंहगाई को सहने की शक्ति जुटा ही रहे थे कि लोकतंत्र की दुहाई देते हुये राज्य की सरकार के गठन के लिये चुनावी अधिसूचना जारी हो गई . आदर्श आचार संहिता लग गई , सरकारी कर्मचारियों की छुट्टियां कैंसिल कर दी गई . उन्हें एक बार फिर से चुनावी प्रशिक्षण दिया गया . अखबारों में पुनः नेता जी की फुल पेज रंगीन तस्वीर के विज्ञापन छपने लगे . नेता जी पुनः गली मोहल्ले में सघन जन संपर्क करते नजर आने लगे .वोट पड़े . त्रिशंकु विधान सभा चुनी गई . हार्स ट्रेडिंग , दल बदल , भीतर बाहर से समर्थन वगैरह के जुमले , कामन मिनिमम प्रोग्राम इत्यादि इत्यादि के साथ अंततोगत्वा सरकार बन ही गई . लोकतंत्र की रक्षा हुई . लोग खुश हुये . मंत्री जी प्रदेश के न होकर अपनी पार्टी और अपने विधान सभा क्षेत्र के होकर रह गये ,नेता गण हाई कमान के एक इशारे पर अपना इस्तीफा हाथ में लिये गलत सही मानते मनवाते दिखे . कुर्सी से चिपके नेता अपने कुर्सी मोह को शब्दो के वाक्जाल से आदर्शो का नाम देते रहे . साल डेढ़ साल बीता होगा कि फिर से चुनाव आ गये , इस बार नगर निगम और ग्राम पंचायतो के चुनाव होने थे . झंडे ,बैनर वाले , टेट हाउस वाले , माला और पोस्टर वाले को फिर से रोजगार मिल गया .पछले चुनावों के बाद हार जीत के आधार पर मुख्यमंत्री जी द्वारा बदल दिया गया सरकारी अमला पुनः लोकतंत्र की रक्षा हेतु चुनाव कराने में जुट गया . इस बार एक एक वोट की खीमत ज्यादा थी , इसलिये नेता जी ने झुग्गी बस्तियो में नाच गाने के आयोजन करवाये , अब यह तो समझने की बात है कि जब हर वोट कीमती हो तो दारू वारू , कम्बल धोती जैसी छोटी मोटी चीजें उपहार स्वरूप ली दी गईं होंगी , पत्रकारो को रुपये बांटकर अखबारो में जगह बनाई गई होगी . एवरी थिंग इज फेयर इन लव वार एण्ड इलेक्शन . खैर , ये चुनाव भी सुसंपन्न हुये , क्या हुआ जो कुछ एक घटनाये मार पीट की हुई , कही छुरे चले , दो एक वारदात गोली बारी की हुईं . इतनी कीमत में जनता की जनता के द्वारा , जनता के लिये चुनी गई सरकार कुछ ज्यादा बुरी नही है .
लगातार , हर साल दो साल में होते इन चुनावो का असर बतंगड़ जी घर पर भी हुआ . बतंगड़ जी की पत्नी , और बच्चो के अवचेतन मस्तिष्क में लोकतांत्रिक भावनाये संपूर्ण परिपक्वता के साथ घर कर गई . उन्हे लगने लगा कि घर में जो बतंगड़ जी का राष्ट्रपति शासन चल रहा है वह नितांत अलोकतांत्रिक है . उन्हें अमेरिका से कंम्पेयर किया जाने लगा , जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक सिद्धांतो की सबसे ज्यादा बात तो करता है पर करता वही है जो उसे करना होता है . बच्चो के सिनेमा जाने की मांग को उनकी ही पढ़ाई के भले के लिये रोकने की विटो पावर को चैलेंज किया जाने लगा , पत्नी की मायके जाने की डिमांड बलवती हो गई . मुझे लगने लगा कि एंटी इनकंम्बेंसी फैक्टर बतंगड़ जी को कही का नही छोड़ेगा . अस्तु , एक दिन चाय पर घर की सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को लेकर खुली बहस हई . महिला आरक्षण का मुद्दा गरमाया .संयोग वश मै भी तब बतंगड़ जी के घर पर ही था , मैने अपना तर्क रकते हुये भारतीय संस्कृति की दुहाई दी और बच्चो को बताया कि हमारे संस्कारो में विवाह के बाद पत्नी स्वतः ही घर की स्वामिनी होती है ,बतंगड़ जी जो कुछ करते कहते है उसमे उनकी मम्मी की भी सहमति होती है . पर मेरी बातें संसद में विपक्ष के व्यक्तव्य की तरह अनसुनी कर दी गई . तय हुआ कि घर के सुचारु संचालन के लिये चुनाव हों . निष्पक्ष चुनावों के लिये बच्चो ने मेरी एक सदस्यीय समिति का गठन कर , तद्संबंधी सूचना परिवार के सभी सदस्यो को दे दी . अपने अस्तित्व की लोकतांत्रिक लड़ाई लड़ने के लिये गृह प्रतिनिधि चयन हेतु बतंगड़ जी को अपनी उम्मीदवारी की घोषणा करनी ही पड़ी . मुख्य प्रतिद्वंदी उनकी ही अपनी पत्नी थी , मतदान से पहले एक सप्ताह का समय , प्रचार के लिये मिला है . जिसके चलते पत्नी जी नित नये पकवान बनाकर बच्चो सहित हम सबका मन मोह लेना चाहती थी ,निष्पक्ष चुनाव प्रभारी होने के नाते मै अतिथि होते हुये भी इन दिनो उन पकवानो से वंचित हूं . बतंगड़ जी ने भी कुछ लिबरल एटीट्यूड अपनाते हुये सबको फिल्म ले जाने की पेशकश की है , सरप्राइज गिफ्ट के तौर पर बच्चो के लिये नये कपड़े , पिताजी की एक छड़ी सही सलामत होते हुये भी नई मेडिको वाकिंग स्टिक और पत्नी के लिये मेकअप का ढ़ेर सा सामान ले आये है. इन चुनावो के चक्कर में जो बजट बिगड़ा है उसकी पूर्ति हेतु बतंगड़ जी मुझसे सलाह कर रहे थे , तो मैने उन्हें बताया कि जब चुनावी खर्च के लिये देश चिंता नही करता तो फिर आप क्यों कर रहे हैं ? देश एशियन डेवलेप मेंट बैंक से लोन लेता है , डेफिशिट का बजट बनाता है , आप भी लोन लेने के लिये बैंक से फार्म ले आयें . बतंगड़ जी के घर के चुनावो में बच्चो के मामा और बुआ जी के परिवार अपना प्रभाव स्थापित करने के पूरे प्रयास करते दिख रहे है, जैसे हमारे देश के चुनावो में विदेशी सरकारे करती है . स्वतंत्र व निष्पक्ष आब्जरवर की हैसियत से मैने बतंगड़ जी के दूसरे पड़ोसियो को भी बुलावा भेजा है ... मतदान की तिथी अभी दूर है पर बिना मतदान हुये , केवल घर की सरकार के चुनावो के नाम पर ही बतंगड़ जी के घर में रंगीनियो का सुमधुर वातावरण है , और हम सब उसका लुत्फ ले रहे हैं .
बतंगड़ जी के घर की सरकार का इलेक्शन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
बतंगड़ जी मेरे पड़ोसी हैं . उनके घर में वे हैं , उनकी एकमात्र सुंदर सुशील पत्नी है , तीन बच्चे हैं जिनमें दो बेटियां और एक आज्ञाकारी होनहार , होशियार बेटा है , और हैं उनके वयोवृद्ध पिता . मैं उनके घर के रहन सहन परिवार जनो के परस्पर प्यार , व्यवार का प्रशंसक हूं . जितनी चादर उतने पेर पसारने की नीति के कारण इस मंहगाई के जमाने में भी बतंगड़ जी के घर में बचत का ही बजट रहता है . परिवार में शिक्षा का वातावरण है . उनके यहां सदा ही आदर्श आचार संहिता का वातावड़ण होता है , जिससे मैं प्रभावित हूं .
देश की संसद के चुनाव हुये , सरकार बनी . हम चुनावों के खर्च से बढ़ी हुई मंहगाई को सहने की शक्ति जुटा ही रहे थे कि लोकतंत्र की दुहाई देते हुये राज्य की सरकार के गठन के लिये चुनावी अधिसूचना जारी हो गई . आदर्श आचार संहिता लग गई , सरकारी कर्मचारियों की छुट्टियां कैंसिल कर दी गई . उन्हें एक बार फिर से चुनावी प्रशिक्षण दिया गया . अखबारों में पुनः नेता जी की फुल पेज रंगीन तस्वीर के विज्ञापन छपने लगे . नेता जी पुनः गली मोहल्ले में सघन जन संपर्क करते नजर आने लगे .वोट पड़े . त्रिशंकु विधान सभा चुनी गई . हार्स ट्रेडिंग , दल बदल , भीतर बाहर से समर्थन वगैरह के जुमले , कामन मिनिमम प्रोग्राम इत्यादि इत्यादि के साथ अंततोगत्वा सरकार बन ही गई . लोकतंत्र की रक्षा हुई . लोग खुश हुये . मंत्री जी प्रदेश के न होकर अपनी पार्टी और अपने विधान सभा क्षेत्र के होकर रह गये ,नेता गण हाई कमान के एक इशारे पर अपना इस्तीफा हाथ में लिये गलत सही मानते मनवाते दिखे . कुर्सी से चिपके नेता अपने कुर्सी मोह को शब्दो के वाक्जाल से आदर्शो का नाम देते रहे . साल डेढ़ साल बीता होगा कि फिर से चुनाव आ गये , इस बार नगर निगम और ग्राम पंचायतो के चुनाव होने थे . झंडे ,बैनर वाले , टेट हाउस वाले , माला और पोस्टर वाले को फिर से रोजगार मिल गया .पछले चुनावों के बाद हार जीत के आधार पर मुख्यमंत्री जी द्वारा बदल दिया गया सरकारी अमला पुनः लोकतंत्र की रक्षा हेतु चुनाव कराने में जुट गया . इस बार एक एक वोट की खीमत ज्यादा थी , इसलिये नेता जी ने झुग्गी बस्तियो में नाच गाने के आयोजन करवाये , अब यह तो समझने की बात है कि जब हर वोट कीमती हो तो दारू वारू , कम्बल धोती जैसी छोटी मोटी चीजें उपहार स्वरूप ली दी गईं होंगी , पत्रकारो को रुपये बांटकर अखबारो में जगह बनाई गई होगी . एवरी थिंग इज फेयर इन लव वार एण्ड इलेक्शन . खैर , ये चुनाव भी सुसंपन्न हुये , क्या हुआ जो कुछ एक घटनाये मार पीट की हुई , कही छुरे चले , दो एक वारदात गोली बारी की हुईं . इतनी कीमत में जनता की जनता के द्वारा , जनता के लिये चुनी गई सरकार कुछ ज्यादा बुरी नही है .
लगातार , हर साल दो साल में होते इन चुनावो का असर बतंगड़ जी घर पर भी हुआ . बतंगड़ जी की पत्नी , और बच्चो के अवचेतन मस्तिष्क में लोकतांत्रिक भावनाये संपूर्ण परिपक्वता के साथ घर कर गई . उन्हे लगने लगा कि घर में जो बतंगड़ जी का राष्ट्रपति शासन चल रहा है वह नितांत अलोकतांत्रिक है . उन्हें अमेरिका से कंम्पेयर किया जाने लगा , जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक सिद्धांतो की सबसे ज्यादा बात तो करता है पर करता वही है जो उसे करना होता है . बच्चो के सिनेमा जाने की मांग को उनकी ही पढ़ाई के भले के लिये रोकने की विटो पावर को चैलेंज किया जाने लगा , पत्नी की मायके जाने की डिमांड बलवती हो गई . मुझे लगने लगा कि एंटी इनकंम्बेंसी फैक्टर बतंगड़ जी को कही का नही छोड़ेगा . अस्तु , एक दिन चाय पर घर की सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को लेकर खुली बहस हई . महिला आरक्षण का मुद्दा गरमाया .संयोग वश मै भी तब बतंगड़ जी के घर पर ही था , मैने अपना तर्क रकते हुये भारतीय संस्कृति की दुहाई दी और बच्चो को बताया कि हमारे संस्कारो में विवाह के बाद पत्नी स्वतः ही घर की स्वामिनी होती है ,बतंगड़ जी जो कुछ करते कहते है उसमे उनकी मम्मी की भी सहमति होती है . पर मेरी बातें संसद में विपक्ष के व्यक्तव्य की तरह अनसुनी कर दी गई . तय हुआ कि घर के सुचारु संचालन के लिये चुनाव हों . निष्पक्ष चुनावों के लिये बच्चो ने मेरी एक सदस्यीय समिति का गठन कर , तद्संबंधी सूचना परिवार के सभी सदस्यो को दे दी . अपने अस्तित्व की लोकतांत्रिक लड़ाई लड़ने के लिये गृह प्रतिनिधि चयन हेतु बतंगड़ जी को अपनी उम्मीदवारी की घोषणा करनी ही पड़ी . मुख्य प्रतिद्वंदी उनकी ही अपनी पत्नी थी , मतदान से पहले एक सप्ताह का समय , प्रचार के लिये मिला है . जिसके चलते पत्नी जी नित नये पकवान बनाकर बच्चो सहित हम सबका मन मोह लेना चाहती थी ,निष्पक्ष चुनाव प्रभारी होने के नाते मै अतिथि होते हुये भी इन दिनो उन पकवानो से वंचित हूं . बतंगड़ जी ने भी कुछ लिबरल एटीट्यूड अपनाते हुये सबको फिल्म ले जाने की पेशकश की है , सरप्राइज गिफ्ट के तौर पर बच्चो के लिये नये कपड़े , पिताजी की एक छड़ी सही सलामत होते हुये भी नई मेडिको वाकिंग स्टिक और पत्नी के लिये मेकअप का ढ़ेर सा सामान ले आये है. इन चुनावो के चक्कर में जो बजट बिगड़ा है उसकी पूर्ति हेतु बतंगड़ जी मुझसे सलाह कर रहे थे , तो मैने उन्हें बताया कि जब चुनावी खर्च के लिये देश चिंता नही करता तो फिर आप क्यों कर रहे हैं ? देश एशियन डेवलेप मेंट बैंक से लोन लेता है , डेफिशिट का बजट बनाता है , आप भी लोन लेने के लिये बैंक से फार्म ले आयें . बतंगड़ जी के घर के चुनावो में बच्चो के मामा और बुआ जी के परिवार अपना प्रभाव स्थापित करने के पूरे प्रयास करते दिख रहे है, जैसे हमारे देश के चुनावो में विदेशी सरकारे करती है . स्वतंत्र व निष्पक्ष आब्जरवर की हैसियत से मैने बतंगड़ जी के दूसरे पड़ोसियो को भी बुलावा भेजा है ... मतदान की तिथी अभी दूर है पर बिना मतदान हुये , केवल घर की सरकार के चुनावो के नाम पर ही बतंगड़ जी के घर में रंगीनियो का सुमधुर वातावरण है , और हम सब उसका लुत्फ ले रहे हैं .
Tuesday, December 29, 2009
इसकी टोपी उसके सिर
इसकी टोपी उसके सिर
बचपन में हमने नकलची बंदर की कहानी पढ़ी थी, उस कहानी में बंदर इतने होशियार थे, कि उन्होनें टोपी बेचने वाले की गठरी से निकाल कर, टोपियां पहन ली थीं, और फिर जब टोपी वाले की नींद खुली तो उसने, बंदरो से टोपियां वापस प्राप्त करने के लिये, अपने सिर की टोपी निकाल कर जमीन में फेंक दी, नकलची बंदरो ने भी अपनी अपनी टोपियां जमीन पर फेंक दी, जिन्हें टोपीवाले ने समेट लिया और चला गया । मुझे मास्साब के बहुत समझाने पर भी इस कहानी का ``मारेल´´ आज तक समझ नहीं आया। मैं यही सोचता रहा हंू कि तब के बंदर भी कितने इज्जतदार प्रतिष्ठा स्थापित करने की धुन थी, समय बदला है, अब लोगों ने टोपी लगाना ही छोड़ दिया हैं, कहॉं तो टोपी लगाकर लोग अपना सिर ढॉंकते घूमते थे, और कहॉं अब अंर्तवस्त्र तक उतार फेंकने पर उतारू है। विरोध प्रदशZन के लिये स्त्रियां तक नग्नता की सीमाओं से आगे निकलकर दौड़ लगा रही है। प्रगतिशील जमाना है, अब टोपी पहनाने का अर्थ ही बदल गया है। किसी को मुगाZ बनाना या शुद्ध शब्दों में कहें तो बेवकूफ बनाना, टोपी पहनाने का अर्थ बन गया है।
वैसे सच कहें तो उधार लेकर जीने वाले, इसकी टोपी उसके सिर रखने के मामले में शुरू होते है, ऋण कृत्वा घृंत पिवेत के सुकुन में जीना भी एक कला है, जिसका नवीनतम संस्करण क्रेडिट कार्ड है, ऋण लीजिये, आनंद करिये, उसे जमा करने के लिये, उससे भी बड़ा ऋण लीजिये, किश्तों में थोड़ा थोड़ा कर, कुछ जमा कीजिये, कुछ माफ करवाईये, कुछ सिब्सडी पाइये, इसकी टोपी उसके सिर रखते चलिये, ग्रोइंग इकानामी है, सबके टर्नओवर बढ़ने दीजिये। बीवी बच्चों की नई नई फरमाईश पूरी करने के लिये एअर कंडीशन्ड बड़े बड़े माल्स में घूमिये, फिरिये, प्लास्टिक मनी से क्रेडिट-डेबिड करिये, इसकी टोपी उसे, और उसकी टोपी किसी और को पहनाने की कुशलता यदि आपमें है, तो आप बिंदास रहिये, चार दिन की जिदंगी है, फिक्र से क्या फायदा र्षोर्षो
मैं एक रेस्टरां में गया, वहॉं एक अद्भुत नोटिस पढ़ा, लिखा हुआ था, ``जितना चाहे उतना खाईये, बिल हम आपके पुत्र से ले लेगें´´ इतने लंबे बिना ब्याज के उधार से कौन खुश न होगा र्षोर्षो मुझे भी बड़ी प्रसन्नता हुई, मैने भरपूर भोजन किया और हाथ पोंछकर खुशी से निकल रहा था, कि तभी वेटर एक बिल लेकर आया । मुझे बड़ा गुस्सा आया और मेैने मैनेजर से प्रवेश द्वार पर लिखी सूचना का हवाला दिया, मैनेजर ने विनम्रता से कहा सर, यह आपका नहीं, आपके पिताजी का बिल है।
वैसे इस जेब का पैसा उस जेब में रखने और अपने ऑंकड़ो में प्राफिट दर्ज करने में सरकारी महकमों का कोई मुकाबला नहीं है। वित्तीय वर्ष के अंत में हर सरकारी मुहकमें अपनी बैलेंस शीट की चिंता सताती है, तब होशियार एक्जीक्यूटिव एक विभाग का मद दूसरे में, इस होशियारी से करते है, कि आडिट भी चकमा खा जाता है। मोबाईल, टेलीफोन, बिजली, पानी, प्रापर्टी वगैरह के सरकारी भुगतान प्राय: इसलिये बारीकी से मिलान नहीं किये जाते कि कम्प्यूटराइज्ड बिल में गलती कहॉं होगी र्षोर्षो टैक्स, सरचार्ज, एडमिनिस्ट्रेटिव चार्जेज, फ्यूल कास्ट, कमर्शियल टैक्स, सर्विस टैक्स, इनकम टैक्स, वगैरह वगैरह सुंदर सुंदर टर्मिनालाजी का इस्तेमाल कर इसकी टोपी उसके सिर रख दी जाती है। सबकी बैलेंस शीट सुधर जाती है। कभी किसी मेरे जैसे मीन मेख निकालने वाले ने कुछ पकड़ भी लिया तो प्रोग्रामिंग इरर का बहाना मुंंह छिपाने के लिये पर्याप्त होता हैं
खैर ! अपनी तो प्रभु से यही प्रार्थना है कि इसकी टोपी उसके सिर भले ही रखी जावे, पर कभी किसी की पगड़ी किसी के पैरो में रखने की नोैबत न आवे !
विवेकरंजन श्रीवास्तव
बचपन में हमने नकलची बंदर की कहानी पढ़ी थी, उस कहानी में बंदर इतने होशियार थे, कि उन्होनें टोपी बेचने वाले की गठरी से निकाल कर, टोपियां पहन ली थीं, और फिर जब टोपी वाले की नींद खुली तो उसने, बंदरो से टोपियां वापस प्राप्त करने के लिये, अपने सिर की टोपी निकाल कर जमीन में फेंक दी, नकलची बंदरो ने भी अपनी अपनी टोपियां जमीन पर फेंक दी, जिन्हें टोपीवाले ने समेट लिया और चला गया । मुझे मास्साब के बहुत समझाने पर भी इस कहानी का ``मारेल´´ आज तक समझ नहीं आया। मैं यही सोचता रहा हंू कि तब के बंदर भी कितने इज्जतदार प्रतिष्ठा स्थापित करने की धुन थी, समय बदला है, अब लोगों ने टोपी लगाना ही छोड़ दिया हैं, कहॉं तो टोपी लगाकर लोग अपना सिर ढॉंकते घूमते थे, और कहॉं अब अंर्तवस्त्र तक उतार फेंकने पर उतारू है। विरोध प्रदशZन के लिये स्त्रियां तक नग्नता की सीमाओं से आगे निकलकर दौड़ लगा रही है। प्रगतिशील जमाना है, अब टोपी पहनाने का अर्थ ही बदल गया है। किसी को मुगाZ बनाना या शुद्ध शब्दों में कहें तो बेवकूफ बनाना, टोपी पहनाने का अर्थ बन गया है।
वैसे सच कहें तो उधार लेकर जीने वाले, इसकी टोपी उसके सिर रखने के मामले में शुरू होते है, ऋण कृत्वा घृंत पिवेत के सुकुन में जीना भी एक कला है, जिसका नवीनतम संस्करण क्रेडिट कार्ड है, ऋण लीजिये, आनंद करिये, उसे जमा करने के लिये, उससे भी बड़ा ऋण लीजिये, किश्तों में थोड़ा थोड़ा कर, कुछ जमा कीजिये, कुछ माफ करवाईये, कुछ सिब्सडी पाइये, इसकी टोपी उसके सिर रखते चलिये, ग्रोइंग इकानामी है, सबके टर्नओवर बढ़ने दीजिये। बीवी बच्चों की नई नई फरमाईश पूरी करने के लिये एअर कंडीशन्ड बड़े बड़े माल्स में घूमिये, फिरिये, प्लास्टिक मनी से क्रेडिट-डेबिड करिये, इसकी टोपी उसे, और उसकी टोपी किसी और को पहनाने की कुशलता यदि आपमें है, तो आप बिंदास रहिये, चार दिन की जिदंगी है, फिक्र से क्या फायदा र्षोर्षो
मैं एक रेस्टरां में गया, वहॉं एक अद्भुत नोटिस पढ़ा, लिखा हुआ था, ``जितना चाहे उतना खाईये, बिल हम आपके पुत्र से ले लेगें´´ इतने लंबे बिना ब्याज के उधार से कौन खुश न होगा र्षोर्षो मुझे भी बड़ी प्रसन्नता हुई, मैने भरपूर भोजन किया और हाथ पोंछकर खुशी से निकल रहा था, कि तभी वेटर एक बिल लेकर आया । मुझे बड़ा गुस्सा आया और मेैने मैनेजर से प्रवेश द्वार पर लिखी सूचना का हवाला दिया, मैनेजर ने विनम्रता से कहा सर, यह आपका नहीं, आपके पिताजी का बिल है।
वैसे इस जेब का पैसा उस जेब में रखने और अपने ऑंकड़ो में प्राफिट दर्ज करने में सरकारी महकमों का कोई मुकाबला नहीं है। वित्तीय वर्ष के अंत में हर सरकारी मुहकमें अपनी बैलेंस शीट की चिंता सताती है, तब होशियार एक्जीक्यूटिव एक विभाग का मद दूसरे में, इस होशियारी से करते है, कि आडिट भी चकमा खा जाता है। मोबाईल, टेलीफोन, बिजली, पानी, प्रापर्टी वगैरह के सरकारी भुगतान प्राय: इसलिये बारीकी से मिलान नहीं किये जाते कि कम्प्यूटराइज्ड बिल में गलती कहॉं होगी र्षोर्षो टैक्स, सरचार्ज, एडमिनिस्ट्रेटिव चार्जेज, फ्यूल कास्ट, कमर्शियल टैक्स, सर्विस टैक्स, इनकम टैक्स, वगैरह वगैरह सुंदर सुंदर टर्मिनालाजी का इस्तेमाल कर इसकी टोपी उसके सिर रख दी जाती है। सबकी बैलेंस शीट सुधर जाती है। कभी किसी मेरे जैसे मीन मेख निकालने वाले ने कुछ पकड़ भी लिया तो प्रोग्रामिंग इरर का बहाना मुंंह छिपाने के लिये पर्याप्त होता हैं
खैर ! अपनी तो प्रभु से यही प्रार्थना है कि इसकी टोपी उसके सिर भले ही रखी जावे, पर कभी किसी की पगड़ी किसी के पैरो में रखने की नोैबत न आवे !
विवेकरंजन श्रीवास्तव
Sunday, December 13, 2009
जरूरत है एक कंपनी की जो कार बनाने वाली कंपनियो से कार का चैसिस खरीदे और फिर ले आपसे आर्डर , आपकी कार को कस्टमाइज करने का ...
नवाचार का स्वागत ....
हम सब अपनी कार को करते हैं प्यार ..
कही लग जाये थोड़ी सी खरोंच तो हो जाते हैं उदास ..
मित्रो से , पड़ोसियों से , परिवार जनो से करते हैं कार को लेकर ढ़ेर सी बात ...
केवल लक्जरी नही है , अब जरूरत ... है कार
घर की दीवारो पर हम करवाते हैं मनपसंद रंग , , अब तो वालपेपर या प्रंटेड दीवारो का है फैशन ..
फिर क्यो? कार पर हो वही एक रंग का , रटा पिटा कंपनी का कलर , क्यों न हो हमारी कार युनिक??जिसे देखते ही झलके हमारी अपनी अभिव्यक्ति , विशिष्ट पहचान हो हमारी अपनी कार की ...
कार के भीतर भी ,
कार में बिताते हैं हम जाने कितना समय
रोज फार्म हाउस से शहर की ओर आना जाना , या घंटो सड़को के जाम में फंसे रहना ..
कार में बिताया हुआ समय प्रायः हमारा होता है सिर्फ हमारा
तब उठते हैं मन में विचार , पनपती है कविता
हम क्यों न रखे कार का इंटीरियर मन मुताबिक ,क्यों न उपयोग हो एक एक क्युबिक सेंटीमीटर भीतरी जगह का हमारी मनमर्जी से ..
क्यो कंपनी की एक ही स्टाइल की बेंच नुमा सीटें फिट हो हमारी कार में .. जो प्रायः खाली पड़ी रहे , और हम अकेले बोर होते हुये सिकुड़े से बैठे रहें ड्राइवर के डाइगोनल ..
क्या अच्छा हो कि हमारी कार के भीतर हमारी इच्छा के अनुरूप सोफा हो , राइटिंग टेबल हो , संगीत हो , टीवी हो , कम्प्यूटर हो ,कमर सीधी करने लायक व्यवस्था हो , चाय शाय हो , शेविंग का सामान हो , एक छोटी सी अलमारी हो , वार्डरोब हो कम से कम दो एक टाई , एक दो शर्ट हों ..ड्राइवर और हमारे बीच एक पर्दा हो ..
बहुत कुछ हो सकता है ....
बस जरूरत है एक कंपनी की जो कार बनाने वाली कंपनियो से कार का चैसिस खरीदे और फिर ले आपसे आर्डर , आपकी कार को कस्टमाइज करने का ...
यही तो है मेरा आइडिया , क्या मुझसे सहमत है आप ???
इस विचार को मैने जमा किया है www.wagonrsmartideas.com में
आपसे है गुजारिश कि कृपया http://www.wagonrsmartideas.com/index.php?option=com_comprofiler&task=userProfile&user=1417 पर क्लिक करके मुझे अपना अनमोल मत जरूर दें ....और करे नवाचार का स्वागत ....
आपका
विवेक रंजन श्रीवास्तव
हम सब अपनी कार को करते हैं प्यार ..
कही लग जाये थोड़ी सी खरोंच तो हो जाते हैं उदास ..
मित्रो से , पड़ोसियों से , परिवार जनो से करते हैं कार को लेकर ढ़ेर सी बात ...
केवल लक्जरी नही है , अब जरूरत ... है कार
घर की दीवारो पर हम करवाते हैं मनपसंद रंग , , अब तो वालपेपर या प्रंटेड दीवारो का है फैशन ..
फिर क्यो? कार पर हो वही एक रंग का , रटा पिटा कंपनी का कलर , क्यों न हो हमारी कार युनिक??जिसे देखते ही झलके हमारी अपनी अभिव्यक्ति , विशिष्ट पहचान हो हमारी अपनी कार की ...
कार के भीतर भी ,
कार में बिताते हैं हम जाने कितना समय
रोज फार्म हाउस से शहर की ओर आना जाना , या घंटो सड़को के जाम में फंसे रहना ..
कार में बिताया हुआ समय प्रायः हमारा होता है सिर्फ हमारा
तब उठते हैं मन में विचार , पनपती है कविता
हम क्यों न रखे कार का इंटीरियर मन मुताबिक ,क्यों न उपयोग हो एक एक क्युबिक सेंटीमीटर भीतरी जगह का हमारी मनमर्जी से ..
क्यो कंपनी की एक ही स्टाइल की बेंच नुमा सीटें फिट हो हमारी कार में .. जो प्रायः खाली पड़ी रहे , और हम अकेले बोर होते हुये सिकुड़े से बैठे रहें ड्राइवर के डाइगोनल ..
क्या अच्छा हो कि हमारी कार के भीतर हमारी इच्छा के अनुरूप सोफा हो , राइटिंग टेबल हो , संगीत हो , टीवी हो , कम्प्यूटर हो ,कमर सीधी करने लायक व्यवस्था हो , चाय शाय हो , शेविंग का सामान हो , एक छोटी सी अलमारी हो , वार्डरोब हो कम से कम दो एक टाई , एक दो शर्ट हों ..ड्राइवर और हमारे बीच एक पर्दा हो ..
बहुत कुछ हो सकता है ....
बस जरूरत है एक कंपनी की जो कार बनाने वाली कंपनियो से कार का चैसिस खरीदे और फिर ले आपसे आर्डर , आपकी कार को कस्टमाइज करने का ...
यही तो है मेरा आइडिया , क्या मुझसे सहमत है आप ???
इस विचार को मैने जमा किया है www.wagonrsmartideas.com में
आपसे है गुजारिश कि कृपया http://www.wagonrsmartideas.com/index.php?option=com_comprofiler&task=userProfile&user=1417 पर क्लिक करके मुझे अपना अनमोल मत जरूर दें ....और करे नवाचार का स्वागत ....
आपका
विवेक रंजन श्रीवास्तव
Thursday, October 29, 2009
भ्रष्टाचार की जय हो !
भ्रष्टाचार की जय हो !
vivek ranjan shrivastava
भ्रष्टाचार की जय हो ! एक और घोटाला सफलता पूर्वक संपन्न हुआ . सरकार हिल गई . स्वयं प्रधानमंत्री को एक बार फिर से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर से कठोर कदम उठाने की घोषणायें दोहरानी पड़ी . एक और उच्चस्तरीय जांच कमेटी गठित की गई . सी बी आई के पास एक और फाइल बढ़ गई . भ्रष्टाचार यूं तो सारे विश्व में ही व्याप्त है , पर उन देशो में अधिक है जहां आबादी अधिक संसाधन कम , और भ्रष्टाचार के पनपने के मौके ज्यादा हैं , भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के सरकारी नियम कमजोर हैं . भारत के संदर्भ में बात करे तो मै समझता हूं कि हम सदा से किसी न किसी से डर कर ही सही काम करते रहे हैं चाहे राजा से , भगवान से , या स्वयं अपने आप से . पिछले सालों मे आजादी के बाद से हमारा समाज निरंकुश होता चला गया . हर कहीं प्रगति हुई , बस आचरण का पतन हुआ . नैतिक शिक्षा को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल जरूर किया गया है पर जीवन से नैतिकता गायब होती जा रही है . धर्म निरपेक्षता के चलते धर्म का , दिखावे का सार्वजनिक स्वरूप तो बढ़ा पर धर्म के आचरण का वैयक्तिक चरित्र पराभव का शिकार हुआ . यह बात लोगो के जहन में घर कर गई कि सरकारी मुलाजिमों को खरीदा जा सकता है , कम या अधिक कीमत में . हाल के , घोटाले ने भ्रष्टाचार की इस चर्चा को पुनः सामयिक , प्रासंगिक बना दिया है . अपने इस व्यंग लेख में मैं किसी घोटाले विशेष का नाम न लिखकर इसे जनरलाइज करते हुये व्यंग लिख रहा हूं , जिससे कैलेंडर की तारीखें मेरे व्यंग को पुराना न कर सकें . घोटालों का क्या है , औसतन महीने में दो की दर से उच्च स्तरीय ऐसे घोटाले होते ही रहते हैं , जो चैनलों के लिये सनसनी खेज होते हैं , पत्र पत्रिकाओं के लिये स्कूप स्टोरी बन सकते हैं , जिनमें सरकारों को हिलाने का दम होता है , जो विरोधी पार्टी को नवजीवन और एकजुटता प्रदर्शित करने का मौका देते हैं . सो मेरा यह आलेख आर्काइव के रूप में संजोया जा सकता है , जिस संपादक को जब मन हो तब इसे प्रकाशित करे , यह सामयिक , तात्कालिक और प्रासंगिक रहेगा .
सरवाइवल आफ फिटेस्ट के सिद्धांत को ध्यान में रखे , तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी जिस तरह से भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से फल फूल रहा है , उसे देखते हुये मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि विश्व गुरु भारत को भ्रष्टाचार के पक्ष में खुलकर सामने आ जाना चाहिये . हमें दुनियां को भ्रष्टाचार के लाभ बताना चाहिये . पारदर्शिता का समय है , विज्ञापन बालायें और फिल्मी नायिकायें पूर्ण पारदर्शी होती जा रही हैं . पारदर्शिता के ऐसे युग में भ्रष्टाचार को स्वीकारने में ही भलाई है . स्वयं हमारे प्रधानमंत्री जी स्वीकार कर चुके हैं कि दिल्ली से चला एक रुपया , गांवों में पहुंचते पहुंचते १५ पैसे में बदल जाता है ... भ्रष्टाचार करते हुये , सार्वजनिक रूप से भ्रष्टाचार की बुराई करने की दोहरी मानसिकता के साथ अब और जीना ठीक नही . जब भ्रष्टाचार के ढ़ेर सारे लाभ हैं तो फिर उन्हें गिने गिनायें और गर्व से यह कहें कि हाँ हम भ्रष्टाचारी हैं , हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे . भ्रष्टाचार के अनंत लाभ हैं . बिना लम्बी लाइन में लगे हुये यदि घर बैठे आपका काम हो जाये तो इसमें बुरा क्या है ? अब जब ऐसा होगा तो इसके लिये कुछ सुविधा शुल्क भी आप चुकायेंगे . देने वाले राजी , लेने वाले राजी , पर आपकी इस सफलता व योग्यता को देखकर लाइन में लगे बेचारे आम आदमी इस सबको भ्रष्टाचार की संज्ञा दें , तो यह उनकी नादानी ही कही जानी चाहिये . स्कूल कालेज में एडमीशन का मसला हो , नौकरी का मामला हो , नियम कानून को पकड़कर बैठो तो बस परीक्षा और इंटरव्यू ही देते रहो . समय , पैसे सबकी बरबादी ही बरबादी होती है . बेहतर है सिफारिशी फोन करवायें , और पहले ही प्रयास में मन वांछित फल पायें . अब जब मन वांछित फल मिलेगा तो आप मूर्ख थोड़े ही हैं जो प्रसाद न चढ़ायेंगे ? इस प्रक्रिया को जो भ्रष्टाचार मानते हैं उन्हें नैतिकता का राग अलापने दें , ये समय से सामंजस्य न बैठा पाने वाले असफल लोग हैं . जो कुछ जितने में खरीदा जाना है वह तो उतने में ही आयेगा , अब यदि सप्लायर सदाशयी व्यवहार के चलते आर्डर करने वाले अधिकारी और बिल पास करने वाले बाबू साहब को कुछ भेंट करे तो समझ से परे है कि यह भ्रष्टाचार कैसे हुआ . शिकायत कर्ता को उसका समाधान मिल जाये , उसके दुख , कष्ट दूर हो जायें और वह खुशी से वर्दी वालों को कुछ दे देवे तो भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम चलाने वालों के पेट में दर्द होने लगता है , अरे भैया ! दान , दक्षिणा , भेंट , बख्शीस , आदान प्रदान , का महत्व समझिये .
भ्रष्टाचार के लाभ ही लाभ हैं . परस्पर प्रेम बना रहता है , कामों में सुगमता होती है , निश्चिंतता रहती है . सब एक दूसरे की चिंता करते हैं . सद्भाव पनपता है . भ्रष्टाचार एक जीवन शैली है . इसे अपनाना समय की जरूरत है . इस व्यवस्था में आनंद ही आनंद है . एक बार इसका हिस्सा बनकर तो देखिये , आपकी रुकी हुई फाइल दौड़ पड़ेगी , कार्यालयों के व्यर्थ चक्कर लगाने से जो समय बचे उसे परमार्थ में लगाइये , कुछ भ्रष्टाचार कीजिये किसी का भला ही करेंगे आप इस तरह . गीता का ज्ञान गांठ बांध लीजिये , साथ क्या लाये थे ? साथ क्या ले जायेंगे , अरे कुछ व्यवहार बनाइये . मिल बांटकर खाइये खिलाइये . जियो और जीने दो . जितनी ईमानदारी भ्रष्टाचार की अलिखित व्यवस्था में है उतनी स्टेम्प पेपर में नोटराइज्ड एग्रीमेंट्स में हो जाये तो अदालतों के चक्कर ही न लगाना पड़े लोगों को . भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी अविश्वास , संदेह , या गवाही जैसी बकवास चीजों की कोई जरुरत नही होती . यदि कभी कोई भ्रष्टाचारी विवशतावश किसी का कोई काम नहीं कर पाता तो , सामने वाला उसे सहज ही क्षमा करने का माद्दा रखता है , वह स्वयं भ्रष्टाचार कर अपने नुकसान को पूरा करने की हिम्मत रखता है , ऐसी उदारहृदय व्यवस्था , मानवीयता की वाहक है , आइये भ्रष्टाचार का खुला समर्थन करें , भ्रष्टाचार अपनायें , भ्रष्ट व्यवस्था के अभिन्न अंग बने . जब हम सब हमाम में नंगे हैं ही तो फिर शर्म कैसी ?
vivek ranjan shrivastava
भ्रष्टाचार की जय हो ! एक और घोटाला सफलता पूर्वक संपन्न हुआ . सरकार हिल गई . स्वयं प्रधानमंत्री को एक बार फिर से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर से कठोर कदम उठाने की घोषणायें दोहरानी पड़ी . एक और उच्चस्तरीय जांच कमेटी गठित की गई . सी बी आई के पास एक और फाइल बढ़ गई . भ्रष्टाचार यूं तो सारे विश्व में ही व्याप्त है , पर उन देशो में अधिक है जहां आबादी अधिक संसाधन कम , और भ्रष्टाचार के पनपने के मौके ज्यादा हैं , भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के सरकारी नियम कमजोर हैं . भारत के संदर्भ में बात करे तो मै समझता हूं कि हम सदा से किसी न किसी से डर कर ही सही काम करते रहे हैं चाहे राजा से , भगवान से , या स्वयं अपने आप से . पिछले सालों मे आजादी के बाद से हमारा समाज निरंकुश होता चला गया . हर कहीं प्रगति हुई , बस आचरण का पतन हुआ . नैतिक शिक्षा को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल जरूर किया गया है पर जीवन से नैतिकता गायब होती जा रही है . धर्म निरपेक्षता के चलते धर्म का , दिखावे का सार्वजनिक स्वरूप तो बढ़ा पर धर्म के आचरण का वैयक्तिक चरित्र पराभव का शिकार हुआ . यह बात लोगो के जहन में घर कर गई कि सरकारी मुलाजिमों को खरीदा जा सकता है , कम या अधिक कीमत में . हाल के , घोटाले ने भ्रष्टाचार की इस चर्चा को पुनः सामयिक , प्रासंगिक बना दिया है . अपने इस व्यंग लेख में मैं किसी घोटाले विशेष का नाम न लिखकर इसे जनरलाइज करते हुये व्यंग लिख रहा हूं , जिससे कैलेंडर की तारीखें मेरे व्यंग को पुराना न कर सकें . घोटालों का क्या है , औसतन महीने में दो की दर से उच्च स्तरीय ऐसे घोटाले होते ही रहते हैं , जो चैनलों के लिये सनसनी खेज होते हैं , पत्र पत्रिकाओं के लिये स्कूप स्टोरी बन सकते हैं , जिनमें सरकारों को हिलाने का दम होता है , जो विरोधी पार्टी को नवजीवन और एकजुटता प्रदर्शित करने का मौका देते हैं . सो मेरा यह आलेख आर्काइव के रूप में संजोया जा सकता है , जिस संपादक को जब मन हो तब इसे प्रकाशित करे , यह सामयिक , तात्कालिक और प्रासंगिक रहेगा .
सरवाइवल आफ फिटेस्ट के सिद्धांत को ध्यान में रखे , तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी जिस तरह से भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी गति से फल फूल रहा है , उसे देखते हुये मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि विश्व गुरु भारत को भ्रष्टाचार के पक्ष में खुलकर सामने आ जाना चाहिये . हमें दुनियां को भ्रष्टाचार के लाभ बताना चाहिये . पारदर्शिता का समय है , विज्ञापन बालायें और फिल्मी नायिकायें पूर्ण पारदर्शी होती जा रही हैं . पारदर्शिता के ऐसे युग में भ्रष्टाचार को स्वीकारने में ही भलाई है . स्वयं हमारे प्रधानमंत्री जी स्वीकार कर चुके हैं कि दिल्ली से चला एक रुपया , गांवों में पहुंचते पहुंचते १५ पैसे में बदल जाता है ... भ्रष्टाचार करते हुये , सार्वजनिक रूप से भ्रष्टाचार की बुराई करने की दोहरी मानसिकता के साथ अब और जीना ठीक नही . जब भ्रष्टाचार के ढ़ेर सारे लाभ हैं तो फिर उन्हें गिने गिनायें और गर्व से यह कहें कि हाँ हम भ्रष्टाचारी हैं , हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे . भ्रष्टाचार के अनंत लाभ हैं . बिना लम्बी लाइन में लगे हुये यदि घर बैठे आपका काम हो जाये तो इसमें बुरा क्या है ? अब जब ऐसा होगा तो इसके लिये कुछ सुविधा शुल्क भी आप चुकायेंगे . देने वाले राजी , लेने वाले राजी , पर आपकी इस सफलता व योग्यता को देखकर लाइन में लगे बेचारे आम आदमी इस सबको भ्रष्टाचार की संज्ञा दें , तो यह उनकी नादानी ही कही जानी चाहिये . स्कूल कालेज में एडमीशन का मसला हो , नौकरी का मामला हो , नियम कानून को पकड़कर बैठो तो बस परीक्षा और इंटरव्यू ही देते रहो . समय , पैसे सबकी बरबादी ही बरबादी होती है . बेहतर है सिफारिशी फोन करवायें , और पहले ही प्रयास में मन वांछित फल पायें . अब जब मन वांछित फल मिलेगा तो आप मूर्ख थोड़े ही हैं जो प्रसाद न चढ़ायेंगे ? इस प्रक्रिया को जो भ्रष्टाचार मानते हैं उन्हें नैतिकता का राग अलापने दें , ये समय से सामंजस्य न बैठा पाने वाले असफल लोग हैं . जो कुछ जितने में खरीदा जाना है वह तो उतने में ही आयेगा , अब यदि सप्लायर सदाशयी व्यवहार के चलते आर्डर करने वाले अधिकारी और बिल पास करने वाले बाबू साहब को कुछ भेंट करे तो समझ से परे है कि यह भ्रष्टाचार कैसे हुआ . शिकायत कर्ता को उसका समाधान मिल जाये , उसके दुख , कष्ट दूर हो जायें और वह खुशी से वर्दी वालों को कुछ दे देवे तो भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम चलाने वालों के पेट में दर्द होने लगता है , अरे भैया ! दान , दक्षिणा , भेंट , बख्शीस , आदान प्रदान , का महत्व समझिये .
भ्रष्टाचार के लाभ ही लाभ हैं . परस्पर प्रेम बना रहता है , कामों में सुगमता होती है , निश्चिंतता रहती है . सब एक दूसरे की चिंता करते हैं . सद्भाव पनपता है . भ्रष्टाचार एक जीवन शैली है . इसे अपनाना समय की जरूरत है . इस व्यवस्था में आनंद ही आनंद है . एक बार इसका हिस्सा बनकर तो देखिये , आपकी रुकी हुई फाइल दौड़ पड़ेगी , कार्यालयों के व्यर्थ चक्कर लगाने से जो समय बचे उसे परमार्थ में लगाइये , कुछ भ्रष्टाचार कीजिये किसी का भला ही करेंगे आप इस तरह . गीता का ज्ञान गांठ बांध लीजिये , साथ क्या लाये थे ? साथ क्या ले जायेंगे , अरे कुछ व्यवहार बनाइये . मिल बांटकर खाइये खिलाइये . जियो और जीने दो . जितनी ईमानदारी भ्रष्टाचार की अलिखित व्यवस्था में है उतनी स्टेम्प पेपर में नोटराइज्ड एग्रीमेंट्स में हो जाये तो अदालतों के चक्कर ही न लगाना पड़े लोगों को . भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी अविश्वास , संदेह , या गवाही जैसी बकवास चीजों की कोई जरुरत नही होती . यदि कभी कोई भ्रष्टाचारी विवशतावश किसी का कोई काम नहीं कर पाता तो , सामने वाला उसे सहज ही क्षमा करने का माद्दा रखता है , वह स्वयं भ्रष्टाचार कर अपने नुकसान को पूरा करने की हिम्मत रखता है , ऐसी उदारहृदय व्यवस्था , मानवीयता की वाहक है , आइये भ्रष्टाचार का खुला समर्थन करें , भ्रष्टाचार अपनायें , भ्रष्ट व्यवस्था के अभिन्न अंग बने . जब हम सब हमाम में नंगे हैं ही तो फिर शर्म कैसी ?
Saturday, October 24, 2009
आतंकवाद अमर हो

मेरा व्यंग पढ़िये .. अपना अभिमत दीजीये .. और आप भी हिस्सा लीजिये व्यंग लेखन में
http://rachanakar.blogspot.com/2009/10/blog-post_24.html
प्रत्येक वस्तु को देखने के दो दृष्टिकोण होते हैं . आधे भरे गिलास को देखकर नकारात्मक विचारों वाले लोग कहते हैं कि गिलास आधा खाली है , पर मेरे तरह के लोग कहते हैं कि गिलास आधा भरा हुआ है . मनोवैज्ञानिक इस दृष्टिकोण को सकारात्मक विचारधारा कहते हैं . आज सारी दुनिया आतंकवाद और आतंकवादियों के विरुद्ध दुराग्रह , और ॠणात्मक दृष्टिकोण के साथ नहा धोकर पीछे पड़ी हुई है . आतंकवाद के विरोध में बयान देना फैशन हो गया है . जब दो राष्ट्राध्यक्ष मिलें और घोषणा पत्र जारी करने के लिये कुछ भी न हो तो आतंकवाद के विरोध में साथ काम करने की विज्ञप्ति सहज ही जारी कर दी जाती है .
कभी सोचकर तो देखिये कि आतंकवाद के कितने लाभ हैं . आतंकवादियों के डर से दिन रात चौबीसों घंटे हमारी सुरक्षा व्यवस्था और सैनिक चाक चौबंद रहते हैं , अनेक दुर्घटनाएं घटने से पहले ही निपट जाती हैं . सोचिये यदि आतंक का हौआ न होता तो क्या कमांडो फोर्स गठित होती ? क्या हमारे नेताओं का स्टेटस सिंबल , उनकी जेड सुरक्षा उन्हें मिलती ? जिस तेजी से सुरक्षा बलों में नये पद सृजित हुये है आतंकवाद का बेरोजगारी मिटाने में अपूरणीय योगदान है . हर छोटा बड़ा देश जिस मात्रा में आतंकवाद के विरोध में बजट बढ़ा रहा है , और इस सबसे जो विकास हो रहा है उसे देखते हुये मेरा सोचना है कि हमें तो आतंकवाद की अमरता की कामना करनी चाहिये . नयी-नयी वैज्ञानिक तकनीकी संसाधनों के अन्वेषण का श्रेय आतंकवाद को ही जाता है . सारी दुनिया में अनेक वैश्विक संगठन , शांति स्थापना हेतु विचार गोष्ठियां कर रहे है , आतंक के विरोध में धुरविरोधी देश भी एक जुटता प्रदर्शित कर रहे हैं , यह सब आतंकवाद की बदौलत ही संभव हुआ है . शांति के नोबल पुरस्कार का महत्व बढ़ा है . यह सब आतंकवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप ही हुआ है , क्या यह सच नहीं है ? अमेरिका की वैश्विक दादागिरी और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति , आतंकवाद के विरोध पर ही आधारित है . प्रत्यक्ष या परोक्ष आतंकवाद हर किसी को प्रभावित कर रहा है , कोई उससे डरकर अपने चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगा रहा है तो कोई फैलते आतंक को ओढ़ बिछा रहा है . लोगों में आत्म विश्वास बढ़ा है , न्यूयार्क हो मुम्बई या लाहौर हर आतंकी गतिविधि के बाद नये हौसले के साथ लोग जिस तरह से फिर से उठ खड़े हुये हैं , जनमानस में वैसा आत्मविश्वास जगाना अन्यथा सरल नही था , इसके लिये समाज को आतंकवाद का आभार मानना चाहिये . मेरी स्पष्ट धारणा है कि आतंकवाद एक अति-लाभदायक क्रिया कलाप है , अब समय आ चुका है कि कम से कम हम सब व्यंगकारों को आतंकवाद के इस रचनात्मक पहलू पर एकजुट होकर दुनिया का ध्यान आकृष्ट करना चाहिये .
कभी बेचारे आतंकवादियों के दृष्टिकोण से भी तो सोचिये , कितनी मुश्किलों में रहते हैं वे , गुमनामी के अंधेरों में , संपूर्ण डेडीकेशन के साथ , अपने मकसद के लिये जान हथेली पर रखकर , घर परिवार छोड़ जंगलों में प्रशिक्षण प्राप्त कर जुगाड़ करके श्रेष्ठतम अस्त्र शस्त्र जुटाना सरल काम नही है . पल दो पल के धमाके के लिये सारा जीवन होम कर देना कोई इन जांबाजों से सीखे . आत्मघात का जो उदाहरण हमारे आतंकवादी भाई प्रस्तुत कर रहे हैं , वह अन्यत्र दुर्लभ है . जीवन से निराश , पलायनवादी , या प्रेम में असफल जो लोग आत्महत्या करते है वह बेहद कायराना होती है , पर अपने मिशन के पक्के ढ़ृढ़प्रतिज्ञ हमारे आतंकी भाई जो हरकतें कर रहे है वह वीरता के उदाहरण बन सकते हैं जरूरत बस इतनी है कि कोई मेरे जैसा लेखक उन पर अपनी कलम चला दे .
हमारे आतंकवादी भाई जाने कितनों के प्रेरणा स्रोत हैं , अनेकों फिल्मकार बिना रायल्टी दिये उनसे अपनी कहानियां बना चुके हैं , कई चैनल्स सनसनीखेज समाचारों के लाईव टेलीकास्ट कर अपनी टी आर पी बढ़ा चुके हैं , ढ़ेरों खोजी पत्रकारों को उनके खतरनाक कवरेज के लिये पुरस्कार मिल चुका है , और तो और बच्चों के खिलौने बनाने वाली कंपनियां बढ़ते आतंक को पिस्तौल और अन्य खिलौनों की शक्ल में इनकैश भी कर चुकी हैं .
मेरी समझ में किसी न किसी शक्ल सूरत में आतंक सदा से दुनियां में रहा है , और हमेशा रहेगा . मां की गोद में मचलता हुआ बच्चा देखा है ना आपने , अपनी आतंकी वृत्ति से ही वह मां से उसकी मांग पूरी करवा लेता है . पत्नी के आतंक पर भी प्यार आता है . हम सब के भीतर बहुत भीतर थोड़ा सा गांधी और एक टुकड़ा लादेन प्रकृति प्रदत्त है . और तय है कि प्रकृति कुछ भी अनावश्यक नही करती . आवश्यकता मात्र इतनी सी है कि सकारात्मक तरीके से उसका सदुपयोग किया जाये . सांप के विष से भी चिकित्सा की जाती है . अतः मेरी तो आतंकी भाइयों से फिर-फिर अपील है कि आओ मेरा खून बहाओ, यदि इससे उनका मकसद हल हो जाये , पर तय है कि इससे कुछ होने वाला नही है . लाखों को तो मार डाला आतंकवाद ने , हजारों आतंकवादी मर भी गये , क्या मिला किसी को ? इसलिये बेहतर है कि अपनी आतंक को समर्पित उर्जा को , सकारात्मक सोच के साथ , रचनात्मक कार्यो में लगायें , हमारे आतंकी भाई बहन और उनके संगठन , जिससे मेरे जैसे व्यंगकार ही नही , सारी दुनिया चिल्ला-चिल्ला कर कह सके आतंकवाद अमर हो , और आतंकी भाइयों के किस्से किताबों में सजिल्द छपें तथा गर्व से पढ़े जायें.
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विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११
, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
Saturday, March 21, 2009
कम्प्यूटर पीडित।
व्यंग्य
कम्प्यूटर पीडित।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.
हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।
कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है - दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।
कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें `` सिंगल विंडो प्रणाली बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को `ओबलाइज कैसे करेगा, हुये ना बडे बाबू कम्प्यूटर पीडित।
दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहॉ तो ``एंटर´´ का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।
वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीडा भर नही देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूंं । जो पहली नौकरी मिली , आज तक उसी में लगा हुआ हूंं यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता `` नौकरी डॉट कॉम की मदद से,पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीडित युवाओं की तरह नही कि सगाई के समय किसी कंपनी में , शादी के समय किसी और में , एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में , ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही- सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूं, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते- उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।
आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी,फिर बीटिंग करते हुए तलाक।
हॉं हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीडाओं की चर्चा कर रहे थ्ेा, अब तो `` पैन ³ªाइव´´ का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अथाZत कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, ``सेलरॉन´´ से ``पी-5´´ के कम्प्यूटर बदलते- बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर , डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदशोZं के चलते मेरी कम्प्यूटर पीडित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहॉं इंटरनेट पर सब कुछ खुला- खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी.-6, रामपुर, जबलपुर.
कम्प्यूटर पीडित।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.
हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।
कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है - दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।
कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें `` सिंगल विंडो प्रणाली बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को `ओबलाइज कैसे करेगा, हुये ना बडे बाबू कम्प्यूटर पीडित।
दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहॉ तो ``एंटर´´ का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।
वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीडा भर नही देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूंं । जो पहली नौकरी मिली , आज तक उसी में लगा हुआ हूंं यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता `` नौकरी डॉट कॉम की मदद से,पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीडित युवाओं की तरह नही कि सगाई के समय किसी कंपनी में , शादी के समय किसी और में , एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में , ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही- सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूं, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते- उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।
आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी,फिर बीटिंग करते हुए तलाक।
हॉं हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीडाओं की चर्चा कर रहे थ्ेा, अब तो `` पैन ³ªाइव´´ का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अथाZत कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, ``सेलरॉन´´ से ``पी-5´´ के कम्प्यूटर बदलते- बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर , डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदशोZं के चलते मेरी कम्प्यूटर पीडित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहॉं इंटरनेट पर सब कुछ खुला- खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी.-6, रामपुर, जबलपुर.
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