Friday, July 4, 2008

किसकी बोली कितनी


व्यंग्य

किसकी बोली कितनी



विवके रंजन श्रीवास्तव

एम.पी.एस.ई.बी. कालोनी,

रामपुर, जबलपुर.

अपने क्रिकेट के खिलाडी नीलाम हो गये, सबकी बढ चढ कर बोली लगाई गई . अच्छा हुआ, सब कुछ पारदर्षी तरीको से सबके सामने संपन्न हुआ, इस हम्माम में सब नंगे हैं. वरना बिकते तो पहले भी थे, सटोरियों के साथों, ब्लैक मनी में, अपने जडेजा, अजहर भैया के जमाने मैं। मुझे तो लगता है कि जितना समय देष भर के लोगों का क्रिकेट देखने में लगता है, और उससे जितना काम प्रभावित होता है, उसका सही मूल्यांकन किया जाना चाहिये , और उसके एवज में हमारे सुयोग्य, खिलाडियों की कीमत आॅकी जानी चाहिये. ऐसे मापदण्ड से खिलाडियों की कीमत करोडों में नहीं अरबों में पहॅुच सकेगी. एक और भी अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है, जिसकी भी कंसीडर किया जाना चाहिये , वह है, खिलाडियों से देषवासियों का भावनात्मक लगाव. आखिर हमारे खिलाडी तिरंगे सहित सभी राष्ट्र्ीय प्रतीको का उपयोग करते है, उनकी हेयर स्आईल था युवा अंधानुकरण करते है, कालेज की लडकियां उन पर फिदा रहती है, इन सबकी भी तो गणना होनी ही चाहिये. शक्ति वर्धक पेय, या अन्य विज्ञापनो में इन्हों खिलाडियों को दिखाकर कंपनियां करोडों का व्यापार कर लेती है, यह भावनात्मक लगाव का ही परिणाम है, अतः नीलामी में खिलाडी के केवल खेल के प्रदर्षन पर उसका आकलन ठीक नहीं है, यह तो सरासर खिलाडी की नीलामी कीमत का अवमूल्यन करने की विदेषी साजिष प्रतीत होती है , अच्छे खेल के सहारे लोकप्रियता की सीढीयां चढ जाने के बाद खेल तो साइड बिजनेस रह जात है, यह हमारे खिलाडियों का पुराना फंडा है, मुझे भरोसा है, कि मेरे इतने धारदार तर्को के आधार पर अगली बार क्रिकेट खिलाडियों की नीलामी की आफिषियल बोली तय करने वाली टीम में मुझे भी, अवष्यक ही शामिल किया जावेगा, फिर देेखियेगा कैसे मैं करोडो में मिट्टी मोल बिक रहे अपने नौनिहालो के हीरे के भाव अरबों में बेचूंगा। ये क्या देष का माल देष में नीलाम करके ही लोग खुष हो रहे है, अरे नवचार का जमाना है इंटरनेषनल बिडिंग होनी चाहिये, विदेषी मल्टीनेषनल्स का पैसा भारत आता, तब तो मजा आता चैको-छककों का ।

सब कुछ तो बिकाऊ है , माॅ की कोख, गरीब की किडनी , नेता का चरित्र, अफसर की आत्मा, डाक्टर का दिल, सन्यासी का प्रवचन सब कुछ तो बिकाऊ है। गरीब का दर्द और किसान का कर्ज, वोट में तब्दील करने की टेक्नीक हमारे नेताओं ने डेवेलेप कर डाली है। ऐसे माहौल में. मैं इसी पर खुष हंू कि आज की तारीख तक मेरी बीबी का प्यार और मेरी कलम दोनो अनमोल है, हाॅ मेरी पूरी सैलरी भी मेरे परिवार की मुस्कान खरीदने हेतु कम पड रही है, यह गम जरूर है।

भारतीयों की भरी थाली इस मॅंहगाई का कारण


भारतीयों की भरी थाली इस मॅंहगाई का कारण



व्यंग्य

अरे एक रोटी और लीजीये ना!
विवेक रंजन श्रीवास्तव
एम.पी.एस.ई.बी. कालोनी,
रामपुर, जबलपुर.

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुष्मन सारा जहाॅ हमारा। सचमुच कुछ बात तो है हम मेें । दो टाइम भरपेट खाना खाकर, डकार क्या ले ली, दुनियां में मॅंहगाई बढ गई । जीरो नम्बर के सिंड्र्ोम में फॅसे डाइटिंग करते हुये, अमेरिकन, इतने परेषान हो गये कि उनके राष्ट्र्पति को बयान देना पडा कि भारतीयों की भरी थाली इस मॅंहगाई का कारण है। और लो विष्व बाजार। ये तो होना ही था। हमारे गाॅधी जी ग्राम इकाई की बातें करते थे, जो भला, बुरा, घट, बढ होती थी गांव घर की बात, वहीं की समस्या, वहीं निदान। अब उसे तो माना नहीं, ग्लोबल विलेज का ढांचा खडा कर दिया, तो अब भुगतों। हिन्दी-चीनी आबादी, ही इन देषों की ताकत है, खूब माल खपाया, अमेरिका ने इन देषों में, मछलियों को खिलाने वाला लाल गेहॅू देकर उपकृत किया, नाम कमाया, अब जब हमने पचाने की क्षमता पैदा कर ली, तो इतना दर्द क्यूं ? पराई पतरी के बरे, सबको बडे ही दिखते है। पुरानी कहावत है। दूसरों की रोटियां गिनना बुरी बात है पर यह बात निखालिस हिन्दुस्तानी है, जो अमेरिकनस को समझ नहीं आयेगी।
जब मेंै छोटा था, तो चाकलेट के डिब्बे से एक - एक कर सारी चाकलेट चट कर डालता था। खाती तो दीदी, भी रहती थी, पर हल्ला मेरे नाम का ही रहता था, महीने के पहले हफ्ते में जब किराना आता तो डब्बा चाकलेट से लबालब होता। 4-6 दिनों में ही डब्बा सिर्फ डब्बा बच रहता । महीने के शेष दिनों में यदि कोई छोटा बच्चा घर आता, और चाकलेट की आवष्यकता माहसूस की जाती तो, मेरा नाम लिया जाता। यानी मेरी न्यूसेंस वैल्यू महसूस की जाती। कुछ यह हालात वैष्विक स्तर पर अमेरिका के है। हम भारतीय तो ताल ठोककर दम दे रहे है, तुम रखे रहो अपने परमाणु बम, यदि, ज्यादा नाटक किया तो, हम लोग दिन मेे तीन बार खाना,खाना शुरू कर देंगे, भूखे मर जाओगे तुम लोग। हमारी जनता को दस्त लगेंगे तो हम निपट लेंगे, पर देषं भक्ति के नाम पर, दो चार चपाती और खाकर ही रहेंगे।
मेरी पत्नी का मानना है कि पति के प्यार का परीक्षण,मनुहार भरी, रोटी से होता है । यदि भर पेट भोजन के बाद भी मनुहार करके वह एक रोटी और न खिलाये,तो उसे लगता है कि मै उसे कुछ कम प्यार करने लगा हॅूं। इसलिये भले ही मुझे अभिताभ बच्चन द्वारा विज्ञापित हाजमेला खाकर, अजीर्ण से निपटना पडे पर मैें भोजन के अंत में, श्रीमती जी की मनुहार भरी रोटी, खा ही लेता हॅू। पर बाबू बुष और मैडम राईस के वयानों से मुझे बडी राहत मिली है, अब मैें श्रीमती जी को मॅंहगाई पर काबू पाने के नेक उद्वेष्य से, मनुहार की जबर्दस्त रोटी न परोसने हेतु सहमत कर लेता हॅंू। अब मेरी पत्नी समझने लगी है कि क्यों राज ठाकरे के कल्चर में आधी, और चैथाई तक रोटी परोसने से पहले भी दो दो बार पूछा जाता है , आखिर विष्व स्तर पर महॅंगाई के नियंत्रण का महत्वपूर्ण मसला इसी पर जो टिका है।
अब तो अमेरिका को वर्चुएल रोटी के अनुसंधान में जुट जाना चाहिये। जिससे रोटी को देखकर ही पेट भर जाये । या फिर जैसे बचपन में जलेबी दौड में उचक उचक कर जलेबी खानी पडती थी, कुछ उस तरह लोगों केा हाथ बंाधकर भोजन पर आमंत्रित करने की व्यवस्था व्हाईट हाउस में बानगी के तौेर पर की जानी चाहिये। वैष्खिक मंहगाई नियंत्रित होती ही चाहिये ,और उसके लिये हर वह कदम उठाना चाहिये जो जरूरी है।

शहर में ’’ इंवेस्टर्स मीट ’’


शहर में ’’ इंवेस्टर्स मीट ’’


व्यंग्य

’’ दूध वाले की गली में इंवेस्टर ’’
विवेक रंजन श्रीवास्तव

रामपुर, जबलपुर.

पहले जब मिनिस्टस, आते थे, तो शहर में साफ सफाई विषेष ढंग से होती थी, सडकों के गड्डे भर दिये जाते थे, झंडे, बैनर लगाकर नगर बासी पलक पाॅवडे बिछाकर नेता जी का स्वागत करते थे. अतिथि सत्कार हमारी संस्कृति का हिस्सा है, जब पहली पहली बार मेरे जीजा जी घर आये थे, तब माॅं ने घर के सारे पर्दे नये खरीदे थे. पुराने सोफे पर नये कुषन कवर डाल दिये गये थे. सारे घर की साफ सफाई हुई थी, ऊपर के सारे जाले टेबिल पर खडे होकर मुझे ही निकालने पडे थे. बल्ब की जगह ट्यूबलाईट लगा दी गई थी, और तो और जीजा जी के सामने, घर पर पहनने के लिये पिताजी ने मेरे लिये नाईट सूट भी खरीद दिया था. अपने बालमन के अनुरूप जीजा जी के आने का , मुझ में उजास भर गया था.
इन दिन शहर में बडा उत्साह है. सारी सडकों पर उपरी सतह चुपडी जा रही है. चैराहों पर पोैधा रोपण नहीं , सीधा वृक्षारोपण ही हो रहा है बरसों से बंद पडी स्ट््रीट लाइट बदली जा रही है,षहर के अखबारों में बडे चर्चे है- शहर में ’’ इंवेस्टर्स मीट ’’ होने को है मैने अपने दुधवाले से इस स्वच्छता अभियान के बारे मेें जानना चाहा, तो उसने कहा ’’कौनो इंवेस्टर साहब, आन वाले है’’ हमार गली सोई आ जाते होन ओही को कल्याण हो जातो! मै उसके सामान्य ज्ञान का कायल हुआ। सचमुच इंवेस्टमेट की वास्तविक जरूरत दुधावाले की गली में ही है. काम वाली बाई की गली में है, और सब्जी वाले की बस्ती में भी है. पर फिलहाल में सब खूष है, क्योंकि इन सबको, सपरिवार रात दिन काम मिल रहा है. शहर को दुल्हन सा सजाया जा रहा है, लोगो में उत्साह है. नेताओं को लग रहा है, सरकारी पैसे न सही , इंवेस्टर जी के पैसो से ही सही, शहर, महानगर बन जाये. कुछ हुटर बजाते, कल कारखाने लग जायें. शहर विकास का पहाडा पढने लगें.
देषी, विदेषी इंवेस्टर्स आयेंगे, पाॅच सितारा सुविधाओं के बीच गुफ्तगू करेेंगे कुछ न कुछ हो अच्छा ही होगा. पर फिलहाल शहर ,खुष है , यह सोचकर कि कुछ अच्छा हो रहा है मैं बचपन की उन्हीं यादों में खोया हुआ हूॅं , जिनमें जीजा जी आये थे, तीन चार दिन जब तक जीजा जी घर पर थे, हलुआ ,पुरी, कचैरी, खीर, खूब मजे उडाये थे हमने , अब कुछ बडा हो गया हॅंू , समझने लगा हॅू कि जीजा जी की उस यात्रा में माॅं की गुल्लक गट हो गई थी. खैर! आज के परित्रेक्षय में यही आग्रह है , दुधवाले की जरूर सुन लेना, जो दिन से कह रहा है कभी हमारी गली आना ना इंवेस्टर जी ।

अमीर बनाने का साफ्टवेयर


व्यंग्य
अमीर बनाने का साफ्टवेयर

विवेक रंजन श्रीवास्तव

रामपुर, जबलपुर.

युग इंटरनेट का है . सब कुछ वर्चुएल है. चाॅद और मंगल पर भी लोग प्लाट खरीद और बेच रहे है. धरती पर तो अपने नाम दो गज जमीन नहीं है, गगन चुम्बी इमारतों में, किसी मंजिल के किसी दडबे नुमा फ्लैट में रहना महानगरीय विवषता है, पर कम्प्यूटर के माध्यम से अंतरजाल के जरिये दुसरी दुनियां की राकेट यात्राओं के लिये अग्रिम बुकिंग हो रही है , इस वर्चुएल दुनियाॅ में इन दिनों मैं बिलगेट्स से भी बडा रईस हॅूं . हर सुबह जब मैं अपना ई मेल एकाउण्ट, लागइन करता हॅूं , तो इनबाक्स बताता है कि कुछ नये पत्र आये है. मैं उत्साह पूर्वक माउस क्लिक करता हॅंॅू , मुझे आषा होती है कि कुछ संपादकों के स्वीकृति पत्र होगें, और जल्दी ही में एक ख्याति लब्ध व्यंग्यकार बन जाऊॅंगा, पत्र पत्रिकायें मुझ से भी अवसर विषेष के लिये रचनाओं की माॅग करेंगे. मेरी मृत्यु पर भी जाने अनजाने लोग शोक सभायें करेंगे, शासन, मेरा एकाध लेख, स्कूलों की किसी पाठ्यपुस्तक में ठॅूस कर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लेगा, हो सकता है मेेरे नाम पर कोइै व्यंग्य अलंकरण बगैरह भी स्थापित हो जावे. आखिर यही सब तो होता है ना, पिछले सुप्रिसद्व व्यंग्य धर्मियों के साथ पर मेरी आषा निराषा में बदल जाती है, क्योंकि मेल बाक्स में साहित्यिक डाक नहीं , वरन अनजाने लोगो की ढेर सी ऐसी डाक होती है, जिससे में वर्चुएली कुछ और रईस बन जाता हॅंू.
मुझे लगता है कि दोहरे चरित्र और मल्टिपल चेहरे की हो तरह ई मेल के इस जमाने में भी हम डाक के मामले में दोहरी व्यवस्था के दायरे में है. अपने विजिटिंग कार्ड पर, पत्र पत्रिका के मुख पृष्ठ पर वेब एड्र्ेस और ई मेल एड्र्ेस लिखना, स्टेटस सिंबल माज बना हुआ है. जिन संपादको को मैं ई मेल के जरिये फटाफट लेख भेजता हॅू, उनसे तो उत्तर नहीं मिलते, हाॅ जिन्हें हार्ड प्रिंट कापी में डाक भेजता हॅंू , वे जरूर फटाफट छप जाते है , मतलब साफ है, या तो साफ्टवेयर, फान्टस मिल मैच होता है, या मेल एकाउष्ट खोला ही नहीं जाता क्योंकि पिछली पीढी के लोगो ने पत्रिका का चेहरा सामयिक और चमकदार बनाने के लिये ई मेल एकाउण्ट क्रियेट करके उसे मुख पृष्ठ पर चस्पा तो कर लिया है, पर वे एकाउण्ट आपरेट नहीं हो रहे. वेब साईट्स अपडेट ही नहीं की जाती , हार्ड कापी में ही इतनी डाक मिल जाती है कि साफ्ट कापी खोलने की आवष्यकता ही नहीं पडती . ई सामग्री अनावरित, अपठित वर्चुएल रूप में ही रह जाती है ,
सरकारी दफ्तरों में पेपर लैस आफिस की अवधारणा के चलते इन दिनों प्रत्येक जानकारी ई मेल पर, साथ ही सी.डी.पर और त्वरित सुविधा हेतु हार्ड कापी पर भी बुलाते है. समय के साथ चलना फैषन है.
यदि मेरे जैसा कोई अधिकारी कभी गलती से , ई मेल पर कोई संदेष अपने मातहतो को प्रेषित कर, यह सोचता है कि नवीनतम तकनीक का प्रयोग कर सस्ते में, शाध्रिता से, कार्य कर लिया गया है, तो उसे अपनी गलती का आभास तब होता है , जब प्रत्येक मातहत को फोन पर अलग से सूचना देनी पडती है, कि वे कृपया अपना ई मेल एकाउण्ट खोलक देखें एवं कार्यवाही करें,
ई वर्किग का सत्य मेरे सम्मुख तब उजागर हुआ, जब मेरे एक मातहत से प्राप्त सी.डी. मैने अपने कम्प्यूटर पर चढाकर पढनी चाही. वह पूर्णतया ब्लैंक थी. पिछले अफसर के कोप भाजन से बचने के लिये , कम्प्यूटर पर जानकारी न वनने पर भी , वे लगातार कई महीनों से ब्लैंक सी.डी. जमा कर देते थे. और अब तक कभी पकडे नहीं गये थे. कभी किसी बाबू ने कोई पूछताछ करने की कोषिष की तो सी.डी.न खुलने का , साफ्टवेयर न होने या सी. डी. करप्ट हो जाने का , वायरस होने वगैरह का स्मार्ट बहाना कर वे उसे टालू मिक्चर पिला देते थे. ई गर्वनेंस का सत्य उद्घाटित करना हो तो पाॅच-दस सरकारी विभागों की वेब साईटस पर सर्फिग कीजिये. नो अपडेट महीनों से सब कुछ यथावत संरक्षित मिलेगा अपनी विरासत से लगाव का उत्कृष्ट उदाहरण होता है ये साइट्स
सरकारी वर्क कल्चर में आज भी ई वर्किग , युवा बडे साहब के दिमाग का फितूर माना जाता है दृ अनेक बडे साहबों ने पारदर्षिता एवं शीध्रता के नारे के साथ, पुरूस्कार पाने का एक साधन बनाकर, प्रारंभ करवाया . हौवा खडा हुआ विभाग का वेब पेज बना. पर साहब विषेष के स्थानांतरण के साथ ही ऐसी वबे साईट्स का हश्र हम समझ सकते है.
कुछ समझदार साहबों ने आम कर्मचारी की ई अज्ञानता का संज्ञान लेकर विभाग के विषिष्ट साफ्टवेयर, विषेष प्रषिक्षण, एवं कम्प्यूटर की दुनियाॅ में तेजी से होते बदलाव तथा कीमतों में कभी के चलते, कमाई के ऐसे कीर्तिमान बनाये, जिन पर कोई अंगुली भी नहीं उठा सकता . मसला ई गर्वनेंस का जो है .बौद्विक साफ्टवेयर कहाॅ, कितने का डेवेलेप हो यह केवल बडे, युवा साहब ही जानते है, अस्तु
जब से मैने एक नग ब्लाग बनाकर अपना ई मेल पता सार्वजनिक किया है , मैं दिन पर दिन अमीर होता जा रहा हॅंू वर्चुएल रूप में ही सही. गरीबी उन्मूलन का यह सरल, सुगम ई रास्ता मैं सार्वजनिक करना चाहता हॅू. इन दिनों मुझे प्रतिदिन ऐसी मेल मिल रही है. जिनमे मुझे लकी विनर, घोषित किया जाता है. या दक्षिण आफ्किा के किसी एड्वोकेट से कोई मेल मिलता है, जिसक अनुसार मेरे पूर्वजों में से कोई ब्लड रिलेषन, एअर क्रेष में सपरिवार मारे गये होते है मेरी संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार यह पढकर मुझे गहन दुख होना चाहिये, जो होने को ही था, कि तभी मैने मेल की अगली लाइन पढी मेल के अनुसार अब उनकी अकूत संपत्ति का एकमात्र स्वामी में हॅंू , और एडवोकेट साहब ने बेहद खुफिया जाॅच के बाद मेरा पता लगाकर, अपने कत्र्तव्य पालन हेतु मुझे मेल किया है. और अब लोगल. कार्यवाहियों हेतु मुझ से कुछ डालर चाहते है.
मैं दक्षिण अफ्रिका के उस समर्पित कत्र्तव्य निष्ठ एड्वोकेट की प्रषंसा करता हुआ अपने गांव के उस फटीचर वकील की बुराई करने लगा, जो गांव के ही पोस्ट आफिस में जमा मेरे ही पैसे , पास बुक गुम हो जाने के कारण , मुझे ही नहीं दिलवा पा रहा है. यह राषि मिले तो मैं अफ्रिका के वकील को उसके वंाधित डालर देकर उस बेहिसाब संपत्ति का स्वामी बनूं, जिसकी सूचना मुझे ई मेल से दी गई है. इस पहले पत्र के बाद लगातार कभी दीवाली, ईद,क्रिसमस, न्यूईयर आदि फेस्टिवल आफर में, कभी किसी लाटरी में, तो कभी किसी अन्य बहाने मुझे करोडों डालर मिल रहे है, पर उन्हें प्राप्त करने के लिये जरूरी यही होता है कि मैं उनके एकाउंट में कुछ डालर की प्रोसेसिंग फीस जमा करूं मैं गरीब देष का गरीब लेखक, वह नहीं कर पाता और गरीब ही रह जाता हॅू, तो इस तरह, नोषनल रूप से मैं इन दिनों बिल गेट्स से भी अमीर हॅू, अपने एक अद्द, फ्री, ई मेल एडेस के जरिये,
जब मैने ई मेलाचार के इस पक्ष को समझने का प्रयत्न किया तो ज्ञात हुआ कि ई मेल एड्र्ेसेस, खरीदे बेचे जाते है , कोई है जो मेरा ई मेल एड्र्ेस भी बेच रहा है . स्वयं तो उसे बेचकर अमीर बन रहा है , और मुझे मुर्गा बनाने के लिये , अमीर बनाने का प्रलोभन दिया जा रहा है . अरबों की आबादी वाली दुनियां में 2-4 लोग भी मुर्गा बन जाये तो, ऐसे मेल करने वालों को तो, बेड बटर का जुगाड हो ही जायेगा ना हो ही जाता है.
अब मुझे पूर्वजों के अनुभवों से बनाई गई कहावतों पर संषय होने लगा है. कौन कहता है कि ’’लकडी की हाॅडी बार-बार नहीं चढती ’’ ? कम से कम अमीर बनाने ये मेल तो यही प्रमणित कर रहे है, अब मैं यह भी समझने लगा हॅू कि मैं स्वयं को ही बेवकूफ नहीं समझता मेरी पत्नी, सहित वे सब लोग जो मुझे इस तरह के मेल कर रहे है, मुझे निषुद्व बेवकूफ ही मानते है, वे मानते है कि मै उनके झांसे में आकर उन्हें उनके बांधित ’ डालर ’ भेज दूंगा. पर में इतना भी बेवकूफ नहीं हूॅ मैने वर्चुएल रईसी का यह फार्मूला निकाल लिया है, और बिना एक डालर भी भेजे, मैं अपनी बर्चुएल संपत्ति को एकत्रित करता जा रहा हूं,
तो आप भी अपना एक ई मेल एकांउट बना डालिये ! बिल्कुल फ्री उसे सार्वजनिक कर डालिये. और फिर देखिये कैसे फटाफट आप रईस बन जाते है. वर्चुएल रईस.

आज कितनी बार मरे!


आज कितनी बार मरे!



व्यंग्य

आज कितनी बार मरे!
विवके रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.

बचपन में बडी मधुरता होती है, ढेरों गलतियं माफ होती है, सब की संवेदना साथ होती है, ’’अरे क्या हुआ बच्चा है’’ ! तभी तो भगवान कृष्ण ने कन्हैया के अपने बाल रूप में खूब माखन चुरा चुरा कर खाया, गोपियों के साथ छेडखानी की, कंकडी से निषाना साधकर मटकियाॅं तोडीं, पर बेदाग बने रहे. बच्चे किसी के भी हों बडे प्यारे लगते है, चूहे का नटखट, बडे- बडे कान वाला बच्चा हो या कुत्ते का पिल्ला प्यारा ही लगता है, शेर के बच्चे से डर नहीं लगता, और सुअर के बच्चे से धिन नहीं लगती मैने भी बचपन में खूब बदमाषियाॅं की है, बहनों की चोटी खींची है, फ्रिज में कागज के पुडे में रखे अंगूर, एक - एक कर चट कर डाले है, और पुडा ज्यों का त्यों रखा रह जाता, जब माॅं पुडा खोलती तो उन्हें सिर्फ डंठल ही मिलते. छोटी बडी गलती पर जब भी पिटाई की नौबत आती तो, उई मम्मी मर गया की गुहार पर, माॅं का प्यार फूट पडता ओैर मैं बच निकलता. स्कूल पहॅंचता, जब दोस्तों की कापियां देखता तो याद आती कि मैने तो होमवर्क किया ही नहीं है, स्वगत की अस्फुट आवाज निकल पडती मर गये,
बचपन बीत गया नौकरी लग गई, षादी हो गई, बच्चे हो गये पर यह मरने की परम्परा बाकायदा कायम है. दिन में कई - कई बार मरना जैसे नियति बन गई है. जब दिन भर आफिस मे सिर खपाने के बाद, घर लौटने को होता हॅू , तो घर में घुसते घुसते याद आता है कि सुबह जाते वक्त बीबी, बच्चों ने क्या फरमाईष की थी. कोई नया बहाना बनाता हॅू और ’मर गये’ का स्वगत गान करता हॅू. आफिस में वर्क लोड से मीटिंग की तारीख सिर पर आती है, तब ’मर गये’ का नारा लगाता हॅू और इससे इतनी उर्जा मिलती है कि घण्टों का काम मिनटों मेें निपट जाता है. जब साली साहिबा के फोन से याद आता है कि आज मेरी शादी की सालगिरह है या बीबी का बर्थ डे, तो अपनी याददाषत की कमजोरी पर ’मर गये’ के सिवा और कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया होती ही नहीं. परमात्मा की कृपा है कि दिन में कई कई बार मरने के बाद भी’ ’वन पीस’ में हट्टा कट्टा जिंदा हॅंू और सबसे बडी बात तो यह है कि पूरी आत्मा साबुत है. वह कभी नहीं मरी, न ही मैने उसे कभी मारा वरना रोजी, रोटी, नाम,काम के चक्कर में ढेरों लोगों को कुछ बोलते, कुछ सोचते, और कुछ अलग ही करते हुये, मन मारता हुआ, रोज देखता हॅू निहित स्वार्थे के लिये लोग मन ,आत्मा, दिल, दिमाग सब मार रहे है. पल पल लोग, तिल तिल कर मर रहे है. चेहरे पर नकली मुस्कान लपेटे, मरे हुये, जिंदा लोग, जिंदगी ढोने पर मजबूर है. टी.वी. कैमरों के सम्मुख घोटाले करते पकडे गये राजनेता, जब पुनः अपने मतदाताओं से मुखातिब होते है, तो मुझे तो लगता है , मर मर कर अमर बने रहने की उनकी कोषिषों से हमें सीख लेनी चाहिये, जिंदगी जिंदा दिली का नाम है.
मेरा मानना है, जब भी, कोई बडी डील होती है, तो कोई न कोई, थोडी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बडे बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बडे बनने के, बडे सपने सजोंये अपने जुगाड भिडाये, बार बार मरने को, मन मारने को तैयार खडा है, तो आप आज कितनी बार मरे ? मरो या मारो ! तभी डील होंगी !