व्यंग्य
बैठे बैठे
विवेक रंजन श्रीवास्तव
"बैठे बैठे क्या करें, करना है कुछ काम” टाइम पास के लिए, बोर होते समूह की अंताक्षरी की शुरुआत के लिए सिर्फ पंक्ति नहीं, बल्कि आज के डिजिटल, सोशल-मीडिया-व्यस्त, पर फिर भी बेरोजगार दिखते समाज का सटीक रूपक है। “बैठे बैठे क्या करें…” यह आज के समाज की स्थायी प्लेलिस्ट बन चुकी है। फर्क बस इतना है कि पहले यह शाम को छतों पर गाई जाती थी, अब यह मोबाइल की स्क्रीन पर स्क्रॉल करते लोगों के मन वचन कर्म में दिखती है।
सोशल मीडिया पर कई लोग इन दिनों ‘कंटेंट’ पर बहस कर रहे हैं ,कोई रो रहा है कि लोग बेवजह रील बना रहे हैं, तो कोई कह रहा है, “कुछ तो करो!”और ये “कुछ”प्रायः टच स्क्रीन पर नाचती हुई अंगुलियों में सिमट जाता है।
ऑफिस में भी दृश्य समान है , ज़ूम मीटिंग का कैमरा बंद हुआ , और कर्मचारी का मन दिमाग सब टिकटॉक मोड में कुछ करने लगता है। बॉस पूछे, “फाइल भेजी?” तो आत्मा जवाब देती है, “सावन आया, बदरा छाए…” क्योंकि फाइल निपटाने से ज़्यादा भावना का भोजन ज़रूरी है।
‘बैठे बैठे कुछ करें’ का नया संस्करण ए आई पर भी चल पड़ा है । “कुछ वायरल कंटेंट बना दो…” मतलब ‘करना है कुछ काम’, लेकिन खुद से नहीं, मशीन से, हो तो और बेहतर! आलस्य अब अपडेट हो चुका है और उसमें भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस फिट हो रहा है।
इस आलस्य में भी अच्छाई है। बैठे-बैठे कुछ सोचना, खुद से बातें करना, या समाज की नई तस्वीरें बनाना यही रचनात्मकता की जड़ है। कबीर भी तो कहते थे, “साधो, यही शरीर है” यानी भीतर झांको, बाहर भागो मत।
तो अगर सच में "करना है कुछ काम", तो ज़रा मन का वाई-फाई ऑन करो। किताब उठाओ, पौधा लगाओ, किसी को देख मुस्करा दो, या बस किसी पुराने दोस्त को याद कर उसे फोन मिला लो। सब कामों में ऊर्जा है । बस ट्रेंड की जगह थोड़ा अर्थ चुनना होगा।
क्योंकि कुछ काम यही है कि हँसते-हँसते कट जाएं रस्ते। राम का नाम सदा सुखदाई , वरना राम नाम सत्य तो शाश्वत है ही ।
तो शुरू करो अंत्याक्षरी, लेकर प्रभु का नाम, जीवन जीने के लिए करना है कुछ काम।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
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कैसा लगा ..! जानकर प्रसन्नता होगी !