Friday, July 4, 2008

आज कितनी बार मरे!


आज कितनी बार मरे!



व्यंग्य

आज कितनी बार मरे!
विवके रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.

बचपन में बडी मधुरता होती है, ढेरों गलतियं माफ होती है, सब की संवेदना साथ होती है, ’’अरे क्या हुआ बच्चा है’’ ! तभी तो भगवान कृष्ण ने कन्हैया के अपने बाल रूप में खूब माखन चुरा चुरा कर खाया, गोपियों के साथ छेडखानी की, कंकडी से निषाना साधकर मटकियाॅं तोडीं, पर बेदाग बने रहे. बच्चे किसी के भी हों बडे प्यारे लगते है, चूहे का नटखट, बडे- बडे कान वाला बच्चा हो या कुत्ते का पिल्ला प्यारा ही लगता है, शेर के बच्चे से डर नहीं लगता, और सुअर के बच्चे से धिन नहीं लगती मैने भी बचपन में खूब बदमाषियाॅं की है, बहनों की चोटी खींची है, फ्रिज में कागज के पुडे में रखे अंगूर, एक - एक कर चट कर डाले है, और पुडा ज्यों का त्यों रखा रह जाता, जब माॅं पुडा खोलती तो उन्हें सिर्फ डंठल ही मिलते. छोटी बडी गलती पर जब भी पिटाई की नौबत आती तो, उई मम्मी मर गया की गुहार पर, माॅं का प्यार फूट पडता ओैर मैं बच निकलता. स्कूल पहॅंचता, जब दोस्तों की कापियां देखता तो याद आती कि मैने तो होमवर्क किया ही नहीं है, स्वगत की अस्फुट आवाज निकल पडती मर गये,
बचपन बीत गया नौकरी लग गई, षादी हो गई, बच्चे हो गये पर यह मरने की परम्परा बाकायदा कायम है. दिन में कई - कई बार मरना जैसे नियति बन गई है. जब दिन भर आफिस मे सिर खपाने के बाद, घर लौटने को होता हॅू , तो घर में घुसते घुसते याद आता है कि सुबह जाते वक्त बीबी, बच्चों ने क्या फरमाईष की थी. कोई नया बहाना बनाता हॅू और ’मर गये’ का स्वगत गान करता हॅू. आफिस में वर्क लोड से मीटिंग की तारीख सिर पर आती है, तब ’मर गये’ का नारा लगाता हॅू और इससे इतनी उर्जा मिलती है कि घण्टों का काम मिनटों मेें निपट जाता है. जब साली साहिबा के फोन से याद आता है कि आज मेरी शादी की सालगिरह है या बीबी का बर्थ डे, तो अपनी याददाषत की कमजोरी पर ’मर गये’ के सिवा और कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया होती ही नहीं. परमात्मा की कृपा है कि दिन में कई कई बार मरने के बाद भी’ ’वन पीस’ में हट्टा कट्टा जिंदा हॅंू और सबसे बडी बात तो यह है कि पूरी आत्मा साबुत है. वह कभी नहीं मरी, न ही मैने उसे कभी मारा वरना रोजी, रोटी, नाम,काम के चक्कर में ढेरों लोगों को कुछ बोलते, कुछ सोचते, और कुछ अलग ही करते हुये, मन मारता हुआ, रोज देखता हॅू निहित स्वार्थे के लिये लोग मन ,आत्मा, दिल, दिमाग सब मार रहे है. पल पल लोग, तिल तिल कर मर रहे है. चेहरे पर नकली मुस्कान लपेटे, मरे हुये, जिंदा लोग, जिंदगी ढोने पर मजबूर है. टी.वी. कैमरों के सम्मुख घोटाले करते पकडे गये राजनेता, जब पुनः अपने मतदाताओं से मुखातिब होते है, तो मुझे तो लगता है , मर मर कर अमर बने रहने की उनकी कोषिषों से हमें सीख लेनी चाहिये, जिंदगी जिंदा दिली का नाम है.
मेरा मानना है, जब भी, कोई बडी डील होती है, तो कोई न कोई, थोडी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बडे बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बडे बनने के, बडे सपने सजोंये अपने जुगाड भिडाये, बार बार मरने को, मन मारने को तैयार खडा है, तो आप आज कितनी बार मरे ? मरो या मारो ! तभी डील होंगी !

No comments:

Post a Comment

कैसा लगा ..! जानकर प्रसन्नता होगी !