Friday, July 4, 2008

अमीर बनाने का साफ्टवेयर


व्यंग्य
अमीर बनाने का साफ्टवेयर

विवेक रंजन श्रीवास्तव

रामपुर, जबलपुर.

युग इंटरनेट का है . सब कुछ वर्चुएल है. चाॅद और मंगल पर भी लोग प्लाट खरीद और बेच रहे है. धरती पर तो अपने नाम दो गज जमीन नहीं है, गगन चुम्बी इमारतों में, किसी मंजिल के किसी दडबे नुमा फ्लैट में रहना महानगरीय विवषता है, पर कम्प्यूटर के माध्यम से अंतरजाल के जरिये दुसरी दुनियां की राकेट यात्राओं के लिये अग्रिम बुकिंग हो रही है , इस वर्चुएल दुनियाॅ में इन दिनों मैं बिलगेट्स से भी बडा रईस हॅूं . हर सुबह जब मैं अपना ई मेल एकाउण्ट, लागइन करता हॅूं , तो इनबाक्स बताता है कि कुछ नये पत्र आये है. मैं उत्साह पूर्वक माउस क्लिक करता हॅंॅू , मुझे आषा होती है कि कुछ संपादकों के स्वीकृति पत्र होगें, और जल्दी ही में एक ख्याति लब्ध व्यंग्यकार बन जाऊॅंगा, पत्र पत्रिकायें मुझ से भी अवसर विषेष के लिये रचनाओं की माॅग करेंगे. मेरी मृत्यु पर भी जाने अनजाने लोग शोक सभायें करेंगे, शासन, मेरा एकाध लेख, स्कूलों की किसी पाठ्यपुस्तक में ठॅूस कर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लेगा, हो सकता है मेेरे नाम पर कोइै व्यंग्य अलंकरण बगैरह भी स्थापित हो जावे. आखिर यही सब तो होता है ना, पिछले सुप्रिसद्व व्यंग्य धर्मियों के साथ पर मेरी आषा निराषा में बदल जाती है, क्योंकि मेल बाक्स में साहित्यिक डाक नहीं , वरन अनजाने लोगो की ढेर सी ऐसी डाक होती है, जिससे में वर्चुएली कुछ और रईस बन जाता हॅंू.
मुझे लगता है कि दोहरे चरित्र और मल्टिपल चेहरे की हो तरह ई मेल के इस जमाने में भी हम डाक के मामले में दोहरी व्यवस्था के दायरे में है. अपने विजिटिंग कार्ड पर, पत्र पत्रिका के मुख पृष्ठ पर वेब एड्र्ेस और ई मेल एड्र्ेस लिखना, स्टेटस सिंबल माज बना हुआ है. जिन संपादको को मैं ई मेल के जरिये फटाफट लेख भेजता हॅू, उनसे तो उत्तर नहीं मिलते, हाॅ जिन्हें हार्ड प्रिंट कापी में डाक भेजता हॅंू , वे जरूर फटाफट छप जाते है , मतलब साफ है, या तो साफ्टवेयर, फान्टस मिल मैच होता है, या मेल एकाउष्ट खोला ही नहीं जाता क्योंकि पिछली पीढी के लोगो ने पत्रिका का चेहरा सामयिक और चमकदार बनाने के लिये ई मेल एकाउण्ट क्रियेट करके उसे मुख पृष्ठ पर चस्पा तो कर लिया है, पर वे एकाउण्ट आपरेट नहीं हो रहे. वेब साईट्स अपडेट ही नहीं की जाती , हार्ड कापी में ही इतनी डाक मिल जाती है कि साफ्ट कापी खोलने की आवष्यकता ही नहीं पडती . ई सामग्री अनावरित, अपठित वर्चुएल रूप में ही रह जाती है ,
सरकारी दफ्तरों में पेपर लैस आफिस की अवधारणा के चलते इन दिनों प्रत्येक जानकारी ई मेल पर, साथ ही सी.डी.पर और त्वरित सुविधा हेतु हार्ड कापी पर भी बुलाते है. समय के साथ चलना फैषन है.
यदि मेरे जैसा कोई अधिकारी कभी गलती से , ई मेल पर कोई संदेष अपने मातहतो को प्रेषित कर, यह सोचता है कि नवीनतम तकनीक का प्रयोग कर सस्ते में, शाध्रिता से, कार्य कर लिया गया है, तो उसे अपनी गलती का आभास तब होता है , जब प्रत्येक मातहत को फोन पर अलग से सूचना देनी पडती है, कि वे कृपया अपना ई मेल एकाउण्ट खोलक देखें एवं कार्यवाही करें,
ई वर्किग का सत्य मेरे सम्मुख तब उजागर हुआ, जब मेरे एक मातहत से प्राप्त सी.डी. मैने अपने कम्प्यूटर पर चढाकर पढनी चाही. वह पूर्णतया ब्लैंक थी. पिछले अफसर के कोप भाजन से बचने के लिये , कम्प्यूटर पर जानकारी न वनने पर भी , वे लगातार कई महीनों से ब्लैंक सी.डी. जमा कर देते थे. और अब तक कभी पकडे नहीं गये थे. कभी किसी बाबू ने कोई पूछताछ करने की कोषिष की तो सी.डी.न खुलने का , साफ्टवेयर न होने या सी. डी. करप्ट हो जाने का , वायरस होने वगैरह का स्मार्ट बहाना कर वे उसे टालू मिक्चर पिला देते थे. ई गर्वनेंस का सत्य उद्घाटित करना हो तो पाॅच-दस सरकारी विभागों की वेब साईटस पर सर्फिग कीजिये. नो अपडेट महीनों से सब कुछ यथावत संरक्षित मिलेगा अपनी विरासत से लगाव का उत्कृष्ट उदाहरण होता है ये साइट्स
सरकारी वर्क कल्चर में आज भी ई वर्किग , युवा बडे साहब के दिमाग का फितूर माना जाता है दृ अनेक बडे साहबों ने पारदर्षिता एवं शीध्रता के नारे के साथ, पुरूस्कार पाने का एक साधन बनाकर, प्रारंभ करवाया . हौवा खडा हुआ विभाग का वेब पेज बना. पर साहब विषेष के स्थानांतरण के साथ ही ऐसी वबे साईट्स का हश्र हम समझ सकते है.
कुछ समझदार साहबों ने आम कर्मचारी की ई अज्ञानता का संज्ञान लेकर विभाग के विषिष्ट साफ्टवेयर, विषेष प्रषिक्षण, एवं कम्प्यूटर की दुनियाॅ में तेजी से होते बदलाव तथा कीमतों में कभी के चलते, कमाई के ऐसे कीर्तिमान बनाये, जिन पर कोई अंगुली भी नहीं उठा सकता . मसला ई गर्वनेंस का जो है .बौद्विक साफ्टवेयर कहाॅ, कितने का डेवेलेप हो यह केवल बडे, युवा साहब ही जानते है, अस्तु
जब से मैने एक नग ब्लाग बनाकर अपना ई मेल पता सार्वजनिक किया है , मैं दिन पर दिन अमीर होता जा रहा हॅंू वर्चुएल रूप में ही सही. गरीबी उन्मूलन का यह सरल, सुगम ई रास्ता मैं सार्वजनिक करना चाहता हॅू. इन दिनों मुझे प्रतिदिन ऐसी मेल मिल रही है. जिनमे मुझे लकी विनर, घोषित किया जाता है. या दक्षिण आफ्किा के किसी एड्वोकेट से कोई मेल मिलता है, जिसक अनुसार मेरे पूर्वजों में से कोई ब्लड रिलेषन, एअर क्रेष में सपरिवार मारे गये होते है मेरी संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार यह पढकर मुझे गहन दुख होना चाहिये, जो होने को ही था, कि तभी मैने मेल की अगली लाइन पढी मेल के अनुसार अब उनकी अकूत संपत्ति का एकमात्र स्वामी में हॅंू , और एडवोकेट साहब ने बेहद खुफिया जाॅच के बाद मेरा पता लगाकर, अपने कत्र्तव्य पालन हेतु मुझे मेल किया है. और अब लोगल. कार्यवाहियों हेतु मुझ से कुछ डालर चाहते है.
मैं दक्षिण अफ्रिका के उस समर्पित कत्र्तव्य निष्ठ एड्वोकेट की प्रषंसा करता हुआ अपने गांव के उस फटीचर वकील की बुराई करने लगा, जो गांव के ही पोस्ट आफिस में जमा मेरे ही पैसे , पास बुक गुम हो जाने के कारण , मुझे ही नहीं दिलवा पा रहा है. यह राषि मिले तो मैं अफ्रिका के वकील को उसके वंाधित डालर देकर उस बेहिसाब संपत्ति का स्वामी बनूं, जिसकी सूचना मुझे ई मेल से दी गई है. इस पहले पत्र के बाद लगातार कभी दीवाली, ईद,क्रिसमस, न्यूईयर आदि फेस्टिवल आफर में, कभी किसी लाटरी में, तो कभी किसी अन्य बहाने मुझे करोडों डालर मिल रहे है, पर उन्हें प्राप्त करने के लिये जरूरी यही होता है कि मैं उनके एकाउंट में कुछ डालर की प्रोसेसिंग फीस जमा करूं मैं गरीब देष का गरीब लेखक, वह नहीं कर पाता और गरीब ही रह जाता हॅू, तो इस तरह, नोषनल रूप से मैं इन दिनों बिल गेट्स से भी अमीर हॅू, अपने एक अद्द, फ्री, ई मेल एडेस के जरिये,
जब मैने ई मेलाचार के इस पक्ष को समझने का प्रयत्न किया तो ज्ञात हुआ कि ई मेल एड्र्ेसेस, खरीदे बेचे जाते है , कोई है जो मेरा ई मेल एड्र्ेस भी बेच रहा है . स्वयं तो उसे बेचकर अमीर बन रहा है , और मुझे मुर्गा बनाने के लिये , अमीर बनाने का प्रलोभन दिया जा रहा है . अरबों की आबादी वाली दुनियां में 2-4 लोग भी मुर्गा बन जाये तो, ऐसे मेल करने वालों को तो, बेड बटर का जुगाड हो ही जायेगा ना हो ही जाता है.
अब मुझे पूर्वजों के अनुभवों से बनाई गई कहावतों पर संषय होने लगा है. कौन कहता है कि ’’लकडी की हाॅडी बार-बार नहीं चढती ’’ ? कम से कम अमीर बनाने ये मेल तो यही प्रमणित कर रहे है, अब मैं यह भी समझने लगा हॅू कि मैं स्वयं को ही बेवकूफ नहीं समझता मेरी पत्नी, सहित वे सब लोग जो मुझे इस तरह के मेल कर रहे है, मुझे निषुद्व बेवकूफ ही मानते है, वे मानते है कि मै उनके झांसे में आकर उन्हें उनके बांधित ’ डालर ’ भेज दूंगा. पर में इतना भी बेवकूफ नहीं हूॅ मैने वर्चुएल रईसी का यह फार्मूला निकाल लिया है, और बिना एक डालर भी भेजे, मैं अपनी बर्चुएल संपत्ति को एकत्रित करता जा रहा हूं,
तो आप भी अपना एक ई मेल एकांउट बना डालिये ! बिल्कुल फ्री उसे सार्वजनिक कर डालिये. और फिर देखिये कैसे फटाफट आप रईस बन जाते है. वर्चुएल रईस.

आज कितनी बार मरे!


आज कितनी बार मरे!



व्यंग्य

आज कितनी बार मरे!
विवके रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.

बचपन में बडी मधुरता होती है, ढेरों गलतियं माफ होती है, सब की संवेदना साथ होती है, ’’अरे क्या हुआ बच्चा है’’ ! तभी तो भगवान कृष्ण ने कन्हैया के अपने बाल रूप में खूब माखन चुरा चुरा कर खाया, गोपियों के साथ छेडखानी की, कंकडी से निषाना साधकर मटकियाॅं तोडीं, पर बेदाग बने रहे. बच्चे किसी के भी हों बडे प्यारे लगते है, चूहे का नटखट, बडे- बडे कान वाला बच्चा हो या कुत्ते का पिल्ला प्यारा ही लगता है, शेर के बच्चे से डर नहीं लगता, और सुअर के बच्चे से धिन नहीं लगती मैने भी बचपन में खूब बदमाषियाॅं की है, बहनों की चोटी खींची है, फ्रिज में कागज के पुडे में रखे अंगूर, एक - एक कर चट कर डाले है, और पुडा ज्यों का त्यों रखा रह जाता, जब माॅं पुडा खोलती तो उन्हें सिर्फ डंठल ही मिलते. छोटी बडी गलती पर जब भी पिटाई की नौबत आती तो, उई मम्मी मर गया की गुहार पर, माॅं का प्यार फूट पडता ओैर मैं बच निकलता. स्कूल पहॅंचता, जब दोस्तों की कापियां देखता तो याद आती कि मैने तो होमवर्क किया ही नहीं है, स्वगत की अस्फुट आवाज निकल पडती मर गये,
बचपन बीत गया नौकरी लग गई, षादी हो गई, बच्चे हो गये पर यह मरने की परम्परा बाकायदा कायम है. दिन में कई - कई बार मरना जैसे नियति बन गई है. जब दिन भर आफिस मे सिर खपाने के बाद, घर लौटने को होता हॅू , तो घर में घुसते घुसते याद आता है कि सुबह जाते वक्त बीबी, बच्चों ने क्या फरमाईष की थी. कोई नया बहाना बनाता हॅू और ’मर गये’ का स्वगत गान करता हॅू. आफिस में वर्क लोड से मीटिंग की तारीख सिर पर आती है, तब ’मर गये’ का नारा लगाता हॅू और इससे इतनी उर्जा मिलती है कि घण्टों का काम मिनटों मेें निपट जाता है. जब साली साहिबा के फोन से याद आता है कि आज मेरी शादी की सालगिरह है या बीबी का बर्थ डे, तो अपनी याददाषत की कमजोरी पर ’मर गये’ के सिवा और कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया होती ही नहीं. परमात्मा की कृपा है कि दिन में कई कई बार मरने के बाद भी’ ’वन पीस’ में हट्टा कट्टा जिंदा हॅंू और सबसे बडी बात तो यह है कि पूरी आत्मा साबुत है. वह कभी नहीं मरी, न ही मैने उसे कभी मारा वरना रोजी, रोटी, नाम,काम के चक्कर में ढेरों लोगों को कुछ बोलते, कुछ सोचते, और कुछ अलग ही करते हुये, मन मारता हुआ, रोज देखता हॅू निहित स्वार्थे के लिये लोग मन ,आत्मा, दिल, दिमाग सब मार रहे है. पल पल लोग, तिल तिल कर मर रहे है. चेहरे पर नकली मुस्कान लपेटे, मरे हुये, जिंदा लोग, जिंदगी ढोने पर मजबूर है. टी.वी. कैमरों के सम्मुख घोटाले करते पकडे गये राजनेता, जब पुनः अपने मतदाताओं से मुखातिब होते है, तो मुझे तो लगता है , मर मर कर अमर बने रहने की उनकी कोषिषों से हमें सीख लेनी चाहिये, जिंदगी जिंदा दिली का नाम है.
मेरा मानना है, जब भी, कोई बडी डील होती है, तो कोई न कोई, थोडी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बडे बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बडे बनने के, बडे सपने सजोंये अपने जुगाड भिडाये, बार बार मरने को, मन मारने को तैयार खडा है, तो आप आज कितनी बार मरे ? मरो या मारो ! तभी डील होंगी !

Friday, May 9, 2008

"भगवान कृष्ण का अपहरण"


व्यंग
००
"भगवान कृष्ण का अपहरण"

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी - 6 , एम.पी.ई.बी.कालोनी
रामपुर, जबलपुर ४८२००८ (भारत)

मोबा. ०९४२५४८४४५२
ई मेल vivekranjan.vinamra@gmail.com


हाईजैकिंग का जमाना है . जिसकी लाठी उसकी भैँस . मै चिल्लाता रह ही गया " मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई" ..और भगवान कृष्ण जो वैश्विक हैं , वे इन दिनों मेरे मोहल्ले के यादव समाज के द्वारा धर लिये गये . अंग्रेजी माध्यम के इस प्रगतिशील जमाने में भगवान कृष्ण बलदाऊ , मानो के.बी.यादव के रूप में मेरे दूधवाले और उसके समाज के द्वारा अपृहत हो रहे हैं ! खूब चीर हरण किया था लल्ला जी ने अपने जमाने में . अब खुद ही धरा गये . मुझे पता तो तब चला जब मैने देखा कि एक रिक्शे पर मेरे कन्हैया का बड़ा सा चित्र लगाये लम्बे चौड़े बैनर लिये लालू जी और यादव समाज की जय का नारा लगाते हुये , बैंड बाजे के साथ नाचते , मेरा दूध वाला और अनेक लोग सड़क पर रैली की शकल में मिले . शहर में , मुझ जैसे शांति प्रिय नागरिक को ऐसी सामाजिक रैलियों के द्वारा वर्गों , उपवर्गों के वोट बैंक , उनकी परस्पर एकता का समय समय पर आभास करवाया ही जाता रहता है . मै चाहे एम्बुलेंस में ही क्यों न पड़ा होऊँ , किनारे खड़े होकर रैली के गुजर जाने में ही अपनी और शहर की शाँति व्यवस्था की भलाई समझता हूँ . क्योंकि मेरे शहर को याद है कि पिछली बार मिलादुन्नबी के ऐसे ही एक शक्ति प्रदर्शक जुलूस में , जुलूस रोककर फायर ब्रिगेड की गाड़ी निकलवाने वाले इंस्पैक्टर का स्थानान्तरण करना पड़ा था प्रशासन को ,शहर की शाँति व्यवस्था बनाये रखने के लिये .क्योंकि उनका देश भक्ति जनसेवा का यह कृत्य जुलूस को तितर बितर करने की साजिश माना गया था , एक अल्पसँख्यक लीडर के द्वारा . अतः जो जैसा कर रहा है उसे वैसा करने दो ,जो हो रहा है उसे होने दो , और बाद में शब्दों के मुलम्में चढ़ाकर "अनेकता में एकता" जैसी घोषणाओं पर गर्व करने में ही समझदारी दिखती है . आखिर भगवान कृष्ण के कहे को हम कब समझेंगे , कहा तो है न कि तू साथ क्या लाया था ? तू साथ क्या ले जायेगा ? इसलिये मैं इन दिनों भगवान कृष्ण को के.बी.यादव बनते देख रहा हूँ . सामान्यतः लघुता से विस्तार होता है . अनुयायियों की सँख्या दिन दूनी रात चौगुनी होती जाती है . पर मेरे कृष्ण ने तो सदा से अपनी ही चलाई है , उनके विश्व व्यापी स्वरूप से , वापस दूधवाले उन्हें अपने डब्बे में समेटना चाहते हैं . गो पालक की जगह अब डेरी मालिक जर्सी भैंसों के मालिक हैं , वे दूध घी बनाने के नये नये अनुसंधान कार्यों में भी निमग्न हैं . कभी कभी यूरिया से कृत्रिम दूध बनाने , चर्बी से घी बनाने की नवोन्मेषी खबरे मीडिया में आती रहती हैं , और इन खबरों से व्यापारिक नुकसान न हो ,समाज के अध्यक्ष की एक पुकार पर दूध , दही के दाम बढ़ सकें , सारे यादवी वोट विधायक जी की हार जीत तय कर सकें ,आरक्षण की पुरजोर माँग से यादवों का विकास हो, इस सबके लिये जरूरी है कि यादव समाज में एकता बनी रहे . इस एकता के लिये समाज के पास एक ब्राँड एम्बेसडर होना ही चाहिये . लिविंग लीजेंड तो हैं ही लालू जी . एक आइडियल भी तो जरूरी है , सो इस पुण्य कार्य के लिये यदि मेरे लार्ड कृष्णा को वे के.बी.यादव के रूप में रिक्शे पर प्रतिष्ठित करना चाहते हैं तो भला इसमें किसी को आपत्ति क्यों हो ? कृष्ण जो स्वयं राजनीति के गुरू थे उनके नाम पर हो रही इस छोटी सी राजनीति को स्वीकार कर आइये हम भी एक जयकारा लगाये "भगवान कृष्ण उर्फ के.बी.यादव की जय", और इसे भी लीलाधर की लीला मानकर जो हो रहा जैसा हो रहा है होने दें .

विवेक रंजन श्रीवास्तव

Friday, February 15, 2008

दो दो किडनी रखने की लक्जरी क्यों ?


व्यंग
००
" दो दो किडनी रखने की लक्जरी क्यों ? "

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी - 6 , एम.पी.ई.बी.कालोनी
रामपुर, जबलपुर ४८२००८

मोबा. ०९४२५४८४४५२
ई मेल vivekranjan.vinamra@gmail.com


एक बार बिल क्लिंटन भारत आये थे , तब मीडिया ने उनके हवाई जहाज की लैण्डिंग का लाइव टेलीकास्ट दिखाया था . ठीक उसी तरह डा. अमित कुमार "किडनी चोर" की नेपाल से दिल्ली यात्रा की खबरें सारे देश ने हर न्यूज चैनल पर "सबसे पहले" , ब्रेकिंग न्यूज के रूप में सनसनीखेज तरीके से देखने का सौभाग्य प्राप्त किया . मैं मीडिया की इस तत्परता से अभीभूत हूँ . आशा है ऐसे प्रेरणादायी समाचार से देश के बेरोजगार युवक बीमार अमीर लोगों हेतु किडनी जुटाने के नये व्वसाय को अपनाने के सेवा कार्य में अपने लिये रोजी रोटी की तलाश की संभावना का अध्ययन अवश्य ही करेंगे . मुझे पूरा भरोसा है कि इस प्रसारण को देखकर , कोई जन कल्याणी संगठन केंद्र सरकार , स्वास्थ्य मंत्रालय से भारी अनुदान लेकर किडनी बैँक की स्थापना का प्रस्ताव भी अवश्य करेगा एवं डा. अमित कुमार के धंधे को कानूनी ताना बाना पहनाकर अपनी रोटियां सेंकने के लिये जरूर प्रेरित हुआ होगा .
परमात्मा ने शरीर तो एक ही दिया है . पर लगता है किडनी सप्लाई में बढ़िया कमीशन के चलते , परमात्मा के स्टोर में "स्टाक स्पेयर" के कारण , व्यर्थ ही हरेक को दो दो गुर्दे दे रखे हैं . परमात्मा पर किडनी परचेज में कमीशन खोरी के आरोप से जिनकी भावनाओं को ठेस लगती हो , उनके लिये यह माना जा सकता है कि परमात्मा ने अपना प्रोडक्शन प्लान अवश्य ही रिवाइज किया होगा , अच्छा ही हुआ , वरना आज आबादी दुगनी होती .एनी वे , मसला यह है कि आज जमाना आप्टिमम यूटीलाइजेशन का है , जब एक से ही काम चल सकता है , तो भगवान की गलती का खामियाजा भुगतते , हम क्यों दो दो किडनी संभाले संभाले घूमे ? मै तो डार्विन के विकासवाद पर भी प्रश्न चिंह लगाना चाहता हूँ ,यदि अनुपयोगी हिस्सों के सतत क्षरण की प्रक्रिया सच होती तो आखिर अब तक हमारे शरीर से एक किडनी कम क्यों नहीं हुई ? एक रावण का जमाना था . अकेले बंदे के दस दस सिर थे . सब उसे राक्षस राक्षस कहते हैं , रावण की तरफ से सोचकर कोई नहीं देखता . एक ही सिर में तो डा. अमित कुमार जैसे कितने ही फितूर समा जाते हैं .रावण की तरह तुम्हारे दस सिर फिट कर दें तब समझ में आये ,आखिर कितना सोचें क्या करें . बेचारा रावण ! उससे तो हम ही भले , कुल जमा एक ही सर है बीबी की हाँ में हाँ मिलाने के लिये , ये और बात है कि यस सर! कहने के लिये कई कई छोटे बड़े सर सुलभ हैं .दो आँखें तो समझ आती हैं ,जमाने में अच्छा बुरा सब देखना सुनना पड़ता है सो दो कान भी जस्टीफाइड हैं . दोनों हाथों से जाने किसके लिये करोड़ो बटोरना हमारा परम कर्तव्य है अतः दो हाथ भी जरूरी हैं , और दो पैरों के बिना चला ही नहीं जा सकता इसलिये उनकी आवश्यकता निर्विवाद है . दिल एक है .दिमाग एक है. पेट गनीमत है एक ही है. लिवर एक है . बस एक ही हिडन आइटम है किडनी , जो बिल्कुल बेवजह दो दो फिट कर रखीं है परवरदिगार ने .
मेरा अनुभव है कि उपरवाले सचमुच अजीबोगरीब काम करते रहते हैं . फिर चाहे वे बास हों या अल्लाताला ! कहाँ तो दो दो किडनी फिट हैं हर शरीर में ,और कहाँ जरा किसी अमीर जादे ने थोड़ी ज्यादा पी पिला ली तो उसकी दोनों किडनी फेल . किडनी ना हुई सरकारी बस की स्टेपनी हो गई .
बस यहीं समाजवाद की जरूरत आन पड़ती है . जिसके सारे रास्ते पूँजी वाद से होकर गुजरते हैं . भला हो डा.अमित कुमारों का , जब अपने सगे वाले भी , कहीं किडनी ना देना पड़ जाये इस डर से कन्नी काटने लगते हैं तब डा. अमित कुमारों जैसों से ही आशा रह जाती है , वरना रखे रह जाते वे करोड़ों रुपये जिन्हें कमाने की आपाधापी में अनियमित, अप्राकृतिक जीवन शैली वगैरह से बड़े बड़े लोग अपनी किडनियाँ खराब कर लेते हैं और डायलिसिस की शरण में पहुँच जाते हैं . मै मुक्त कंठ प्रशंसा करता हूँ डा. अमित कुमारों की , जिनके पास न तो प्रापर दिग्री होती है सर्जरी वगैरह की , न ही प्रापर वेल इक्यूप्ड सरकारी अस्पताल , पर वे किडनी प्रत्यारोपण जैसे सेवाभावी महान कार्य में अपना सर्वस्व लगा देते हैं . गरीबों को व्यर्थ की एक किडनी के बोझ से मुक्ति मिल जाती है कुछ रूपये भी मिल ही जाते होंगे , और जरूरत मंद को किडनी मिल जाती है , एक जान बच जाती है .अंग प्रत्यारोपण वगैरह के सरकारी कानूनों से बढ़कर भी एक कानून है मानवीयता का . प्रश्न है, कैसे छोड़ दिया जाये मरीज को बिना किडनी मरने के लिये .मैं डा. अमित कुमार की मानवीय संवेदना को सौ सौ प्रणाम करता हूँ . मै तो कहता हूँ देश को ऐसे महान डाक्टर्स का सम्मान करना चाहिये . रही उनके पास अरबों की संपत्ति होने का , तो भई जिसकी जान बचेगी वह कुछ ना कुछ तो देगा ही . भगवान के मंदिर में भी तो सब कुछ न कुछ चढ़ोत्री चढ़ा कर ही आते हैं . बचपन में मैने नैतिक शिक्षा में पढ़ा था कि माँ पिता और डाक्टर भी भगवान का ही रूप होते हैं .
मेरा तो आग्रह है कि डा. अमित कुमार को ससम्मान छोड़ा जावे . उन्हें सुन्दर सुन्दर नर्सों से सुसज्जित अस्पताल सुलभ करवाया जावे . और एक अभियान चलाकर देश की करोड़ौ की आबादी में से अमीरी के उल्टे क्रम में , मतलब सबसे गरीब सबसे पहले के सरल सिद्धांत पर किडनी निकालने का अभिनव अभियान चलाया जाये . आस आयोजन से एक लाभ और होगा , लोग अपनी वास्तविक आय से बढ़चढ़ कर आय लिखाने लगेंगे . ब्लैक मनी बाहर आ जायेगी . रातोरात देश की पर कैपिटा इनकम बढ़ जायेगी . जो काम सरदार मनमोहन सिंग जैसे वित्त मंत्री नहीं कर सके वह , डा. अमित कुमार के किडनी निकालो अभियान से हो जायेगा . देश प्रगति कर जायेगा . एक भव्य किडनी बैंक बनाकर हम विदेशों में किडनी निर्यात का नया काम प्रारंभ कर सकेंगे . किडनी दान करने वालों को विशिष्ट सुविधायें मुहैया करवाई जायेंगी .
जब गरीबों को ए.सी. , फ्रिज , कार वगैरह रखने की सुविधा हमारी सरकार और समाज ने नहीं दी है तो भला दो दो किडनी रखने की लक्जरी का आखिर क्या मतलब है . आइये परमात्मा से प्रार्थना करें कि डा. अमित कुमार को भारत रत्न मिले . आखिर उन्होंने एक ऐसे व्यवसाय की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया है जिसमें हर्र या फिटकरी लगाये बिना ही चोखा रंग आता है . एक आग्रह आप सबसे है कि अपनी अपनी दूसरी किडनी की उपलब्धता जरूर जाँच लें , कहीं कोई डा. अमित पहले ही उस पर हाथ साफ न कर चुका हो .

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी - 6 , एम.पी.ई.बी.कालोनी
रामपुर, जबलपुर ४८२००८

Thursday, January 17, 2008

"रेल्वे फाटक के उस पार"



व्यंग
००
"रेल्वे फाटक के उस पार"

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी - 6 , एम.पी.ई.बी.कालोनी
रामपुर, जबलपुर ४८२००८ (भारत)

मोबा. ०९४२५४८४४५२
ई मेल vivekranjan.vinamra@gmail.com

मेरा घर और दफ्तर ज्यादा दूर नहीं है , पर दफ्तर रेल्वे फाटक के उस पार है . मैं देश को एकता के सूत्र में जोड़ने वाली , लौह पथ गामिनी के गमनागमन का सुदीर्घ समय से साक्षी हूँ . मेरा मानना है कि पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक देश को जोड़े रखने में , समानता व एकता के सूत्र स्थापित करने मे , भारतीय रेल, बिजली के नेशनल ग्रिड और टीवी सीरीयल्स के माध्यम से एकता कपूर ने बराबरी की भागीदारी की है .
राष्ट्रीय एकता के इस दार्शनिक मूल्यांकन में सड़क की भूमिका भी महत्वपूर्ण है ,पर चूँकि रेल्वे फाटक सड़क को दो भागों में बाँट देता है , जैसे भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर हो , अतः चाहकर भी सड़क को देश की एकता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता . इधर जब से हमारी रेल ने बिहार का नेतृत्व गृहण किया है , वह दिन दूनी रात चौगिनी रफ्तार से बढ़ रही है . ढ़ेरों माल वाहक , व अनेकानेक यात्री गाड़ियां लगातार अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हैं , और हजारों रेल्वे फाटक रेल के आगमन की सूचना के साथ बंद होकर , उसके सुरक्षित फाटक पार हो जाने तक बंद बने रहने के लिये विवश हैं .
मेरे घर और दफ्तर के बीच की सड़क पर लगा रेलवे फाटक भी इन्हीँ में से एक है , जो चौबीस घंटों में पचासों बार खुलता बंद होता है . प्रायः आते जाते मुझे भी इस फाटक पर विराम लेना पड़ता है . आपको भी जिंदगी में किसी न किसी ऐसे अवरोध पर कभी न कभी रुकना ही पड़ा होगा जिसके खुलने की चाबी किसी दूसरे के हाथों में होती है , और वह भी उसे तब ही खोल सकता है जब आसन्न ट्रेन निर्विघ्न निकल जाये .
खैर ! ज्यादा दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है, सबके अपने अपने लक्ष्य हैं और सब अपनी अपनी गति से उसे पाने बढ़े जा रहे हैं अतः खुद अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिये फाटक के उस पार तभी जाना चाहिये , जब फाटक खुला हो . पर उनका क्या किया जावे जो शार्ट कट अपनाने के आदि हैं , और बंद फाटक के नीचे से बुचक कर ,वह भी अपने स्कूटर या साइकिल सहित ,निकल जाने को गलत नहीं मानते .नियमित रूप से फाटक के उपयोगकर्ता जानते हैं कि अभी किस ट्रेन के लिये फाटक बंद है ,और अब फिर कितनी देर में बंद होगा. अक्सर रेल निकलने के इंतजार में खड़े बतियाते लोग कौन सी ट्रेन आज कितनी लेट या राइट टाइम है , पर चर्चा करते हैं . कोई भिखारिन इन रुके लोगों की दया पर जी लेती है , तो कोई फुटकर सामान बेचने वाला विक्रेता यहीं अपने जीवन निर्वाह के लायक कमा लेता है .
जैसे ही ट्रेन गुजरती है , फाटक के चौकीदार के एक ओर के गेट का लाक खोलने की प्रक्रिया के चलते , दोनो ओर से लोग अपने अपने वाहन स्टार्ट कर , रेडी ,गैट ,सैट ,गो वाले अंदाज में तैयार हो जाते हैं . जैसे ही गेट उठना शुरू होता है , धैर्य का पारावार समाप्त हो जाता है . दोनो ओर से लोग इस तेजी से घुस आते हैं मानो युद्ध की दुदंभी बजते ही दो सेनायें रण क्षेत्र में बढ़ आयीं हों . इससे प्रायः दोनो फाटकों के बीच ट्रैफिक जाम हो जाता है ! गाड़ियों से निकला बेतहाशा धुआँ भर जाता है , जैसे कोई बम फूट गया हो ! दोपहिया वाहनों पर बैठी पिछली सीट की सवारियाँ पैदल क्रासिंग पार कर दूसरे छोर पर खड़ी ,अपने साथी के आने का इंतजार करती हैं . धीरे धीरे जब तक ट्रैफिक सामान्य होता है , अगली रेल के लिये सिग्नल हो जाता है और फाटक फिर बंद होने को होता है .फाटक के बंद होने से ठीक पहले जो क्रासिंग पार कर लेता है ,वह विजयी भाव से मुस्कराकर आत्म मुग्ध हो जाता है .
फाटक के उठने गिरने का क्रम जारी है .
स्थानीय नेता जी हर चुनाव से पहले फाटक की जगह ओवर ब्रिज का सपना दिखा कर वोट पा जाते हैं . लोकल अखबारों को गाहे बगाहे फाटक पर कोई एक्सीडेंट हो जाये तो सुर्खिया मिल जाती हैं . देर से कार्यालय या घर आने वालों के लिये फाटक एक स्थाई बहाना है . फाटक की चाबियाँ सँभाले चौकीदार अपनी ड्रेस में , लाल ,हरी झंडिया लिये हुये पूरा नियँत्रक है ,वह रोक सकता है मंत्री जी को भी कुछ समय फाटक के उस पार जाने से .

विवेक रंजन श्रीवास्तव

"मोबाइल प्लान की प्लानिंग"


व्यंग
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"मोबाइल प्लान की प्लानिंग"

विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी - 6 , एम.पी.ई.बी.कालोनी
रामपुर, जबलपुर ४८२००८

मोबा. ०९४२५४८४४५२
ई मेल vivekranjan.vinamra@gmail.com

मै सदा से परिर्वतन का समर्थक रहा हूँ .मेरा विश्वास है कि समय से तालमेल बैठा कर चलना प्रगतिशील होने की पहचान है . अपने इसी ध्येय की प्राप्ति हेतु और कुछ बीबी, बच्चों की फरमाईश पर, नितांत अनावश्यक होते हुये भी मैने एक मोबाइल फोन खरीद लिया . अब यह आवश्यक हो गया कि मै किसी कंपनी की एक सिम खरीद कर , किसी प्लान विशेष को चुनकर , मोबाइल हो जाऊँ ."जागो ग्राहक जागो॔" की अलख सुन , अपने पढ़े लिखे होने का परिचय देते हुये एक जागरूख उपभोक्ता की तरह, मै किस कंपनी का कौन सा प्लान चुनुं इस अनुसंधान में जुट गया . समय की दौड़ में सरकारी विभाग से लिमिटेड कंपनी में परिर्वतित कंपनी सहित चार पाँच निजी कंपनियों के प्रिपेड एवं पोस्ट पेड प्लान्स के ब्रोशर्स शहर भर में घूम घूम कर एकत्रित किये , मेरे उत्साही बेटे ने इंटरनेट से भी काफी सारी जानकारी डाउनलोड कर प्रिंट रूप में सुलभ कर दी ,जी पी आर एस एवं सी डी एम तकनीक की वैकल्पिक प्रणालियों में से एक का चयन करना था फिर हमें निर्णय लेना था कि हम किस मोबाइल सेवा के कैसे उपभोक्ता बनें? कोई कुछ आफर कर रहा था तो कोई कुछ और प्रलोभन दे रहा था .कहीं सिम खरीदते ही फ्री गिफ्ट थी , तो कहीं तारीख विशेष तक छूट का आकर्षण .किसी की रोमिंग इनकमिंग कम थी तो किसी की आउटगोइंग . मोबाइल से मोबाइल,मोबाइल से डब्लू एल एल ,मोबाइल से फिक्स्ड लाइन सबकी काल दरें बिल्कुल अलग अलग थीं . अपने ही टेलीकाम सर्किल के रेट्स अलग और एस.टी.डी. व आई.एस.डी. के भी रेट्स अलग अलग थे. कहीं पल्स पंद्रह सेकेंड्स की थी तो कहीं एक मिनट की .अपनी कंपनी के ही दूसरे फोन पर काल करने की दर कुछ और थी , तो अपनी कंपनी से किसी अन्य कंपनी के उपभोक्ता से बातें करने के चार्जेज अलग . विदेश बातें करनी हों तो विभिन्न देशों के लिये भी रेट्स पूरी तरह से भिन्न थे . मैं पूरी तरह कंफ्यूज्ड हो गया था .
इतनी अधिक विविधताओं के बीच चयन करके आज तक मैने कभी भी कुछ नहीं लिया था . बचपन में परीक्षा में सभी प्रश्न अनिवार्य होते थे च्वाइस होती भी थी तो एक ही चैप्टर के दो प्रशनों के बीच , मुझसे ऊपर वाला प्रश्न ही बन जाता था अतः कभी चुनने की आवश्यकता नहीं पड़ी , हाँ चार वैकल्पिक उत्तरों वाले सवालों में जरूर जब कुछ नहीं सूझता था, तो राम राम भजते हुये किसी एक पर सही का निशान लगा देता था . तब आज की तरह ऐंसर शीट पर काले गोले नहीं बनाने पड़ते थे . डिग्री लेकर निकला तो जहाँ सबसे पहले नौकरी लगी ,वहीं आज तक चिपका हुआ हूँ. नेम प्लेट में अपने डिपार्टमेंट का नाम ऐसे चिपका रखा है जैसे सारा डिपार्टमेंट ही मेरा हो . कोई मेरे विभाग के विषय में कुछ गलत सही कहता है ,तो लगता है, जैसे मुझे ही कह रहा हो .मैं सेंटीमेंटल हो जाता हूँ . आज की प्रगतिशील भाषा में मै थोड़ा थोड़ा इमोशनल फूल टाइप का प्राणी हूँ . जीवन ने अब तक मुझे कुछ चुनने का ज्यादा मौका नहीं दिया . पिताजी ने खुद चुनकर जिस लड़की से मेरी शादी कर दी ,वह मेरी पत्नी है और अब मेरे लिये सब कुछ चुनने का एकाधिकार उसके पास सुरक्षित है . मेरे तो कपड़े तक वही ले आती है, जिनकी उन्मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कर पहनना मेरी अनिवार्य विवशता होती है .अतः जब सैकड़ों आप्शन्स के बीच श्रेष्ठतम मोबाइल प्लान चुनने की जबाबदारी मुझ पर बरबस आ पड़ी तो मेरा दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक ही था .अपना प्लान चुनने के लिये मैने सरकारी खरीदी की तरह कम्पेरेटिव स्टेटमेंट बनाने का प्रयास किया तो मैने पाया कि हर प्लान दूसरे से पूरी तरह भिन्न है और चयन की यह प्रणाली कारगर नहीं है . हर विज्ञापन दूसरे से ज्यादा लुभावना है . मै किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ.
ऐसे सैकड़ों विकल्पों वाले आकर्षक प्लान के निर्माताओं , नव युवा एम.बी.ए. पास , मार्केटिंग मैनेजर्स की योग्यता का मैं कायल हो गया था .मुझे कुछ कुछ समझ आ रहा था कि आखिर क्यों उतना ही शिक्षित होने पर भी , आज के फ्रेश युवाओं से उनके पिताओं को चौथाई वेतन ही मिल रहा है ! मैं हर हाथ में मोबाइल लिये घूम रही आज की पीढ़ी का भी सहज प्रशंसक बन गया हूँ जो सुगमता से इन ढ़ेर से आफरों में से अपनी जरूरत का विकल्प चुन लेती है .

विवेक रंजन श्रीवास्तव