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Friday, February 26, 2010

डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान ...


व्यंग
डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान ...

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२


मेरे एक मित्र को पिछले दिनो ब्लडप्रेशर बढ़ने की शिकायत हुई , तो अपनी ठेठ भारतीय परम्परा के अनुरुप हम सभी कार्यलयीन मित्र उन्हें देखने उनके घर गये , स्वाभाविक था कि अपनी अंतरंगता बताने के लिये विशेषज्ञ एलोपेथिक डाक्टरो के इलाज पर भी प्रश्न चिन्ह लगाते हुये उन्हें और किसी डाक्टर से भी क्रास इक्जामिन करवाने की सलाह हमने दी , जैसा कि ऐसे मौको पर किया जाता है किसी मित्र ने जड़ी बूटियो से शर्तिया स्थाई इलाज की तो किसी ने होमियोपैथी अपनाने की चर्चा की . मुफ्त की सलाह के इस क्रम में एक जो विशेष सलाह थोड़ा हटकर थी वह एक अन्य मित्र के द्वारा , कुत्ता पालने की सलाह थी . बड़ा दम था इस तथ्य में कि रिसर्च के मुताबिक जिन घरों में कुत्ते पले होते हैं वहां तनाव जन्य बीमारियां कम होती हें , क्योकि आफिस आते जाते डागी को दुलारते हुये हम दिनभर की मानसिक थकान भूल जाते हैं , इस तरह ब्लड प्रैशर जैसी बीमारियों से , कुत्ता पालकर बचा जा सकता है .ये और बात है कि पड़ोसियो के घरो के सामने खड़ी कार के पहियो पर , बिजली के खम्भो के पास जब आपका कुत्ता पाटी या गीला करता है तो उसे देखकर पड़ोसियो का ब्लड प्रैशर बढ़ता है .
वैसे कुत्ते और हमारा साथ नया नहीं है , इतिहासज्ञ जानते हैं कि विभिन्न शैल चित्रों में भी आदमी और कुत्ते के चित्र एक समूह में मिलते हैं . धर्मराज युधिष्ठिर की स्वर्ग यात्रा में एक कुत्ता भी उनका सहयात्री था यह कथानक भी यही रेखांकित करता है कि कुत्ते और आदमी का साथ बहुत पुराना है . कुत्ते अपनी घ्राण, व श्रवण शक्ति के चलते कम से कम इन मुद्दो पर इंसानो से बेहतर प्रमाणित हो चुके हैं .अपराधो के नियंत्रण में पुलिस के कुत्तों ने कई कीर्तीमान बनायें है . सरकस में अपने करतब दिखाकर कुत्ते बच्चों का मन मोह लेते है और अपने मास्टर के लिये आजीविका अर्जित करते हैं . संस्कृत के एक श्लोक में विद्यार्थियो को श्वान निद्रा जैसी नींद लेने की सलाह दी गई है .भाषा के संदर्भ में यह खोज का विषय है कि कुत्ते शब्द का गाली के रूप में प्रयोग आखिर कब और कैसे प्रारंभ हुआ क्योकि वफादारी के मामले में कुत्ता होना इंसान होने से बेहतर है . काका हाथरसी की अगले जन्म में विदेशी ब्रीड का पिल्ला बनने की हसरत भी महत्वपूर्ण थी क्योकि शहर के पाश इलाके में किसी बढ़िया बंगले में , किसी सुंदर युवती के साथ उसकी कार में घूमना उसके हाथों बढ़िया खाना नसीब होना इन पालतू डाग्स को ही नसीब हो सकता है . फालतू देशी कुत्तो को नही , जो स्ट्रीट डाग्स कहे जाते हैं . यूं तो स्लम डाग मिलेनियर , फिल्म को आस्कर मिल जाने के बाद से इन देशी कुत्तो का स्टेटस भी बढ़ा ही है .
पिछले दिनों मुझे एक डाग शो में जाने का अवसर मिला . अलशेसियन , पामेरियन , पग , डेल्मेशियन , बुलडाग , लैब्राडोर , जर्मन शेफार्ड , मिनिएचर वगैरह वगैरह ढ़ेरो ब्रीड के तरह तरह की प्रजातियो के कुत्तो से और उनके सुसंपन्न मालिकों से साक्षात्कार का सुअवसर मिला . ऐसे ऐसे कुत्ते मिले कि उन्हें कुत्ता कहने भी शर्म आये . और यदि कही कोई उन्हें कुत्ता कह दें तो शायद उनके मालिक बुरा मान जाये , बेहरत यही है कि हम उन्हें श्वान कहें . थोड़ा इज्जतदार शब्द लगता है . वैसे भी घर में पले हुये कुत्ते घर के बच्चो की ही तरह सबके चहेते बन जाते है , वे परिवार के सदस्य की ही तरह रहते , उठते बैठते हैं . उनके खाने पीने इलाज में गरीबी रेखा के आस पास रहने वाले औसत आदमी से ज्यादा ही खर्च होता है .
डाग शो में जाकर मुझे स्वदेशी मूवमेंट की भी बड़ी चिंता हुई . जिस तरह निखालिस देशी ज्वार और देशी भुट्टे , या गन्ने से , भारत में ही बनते हुये , यहीं बिकते हुये सरकार को खूब सा टैक्स देते हुये भी और पूरी की पूरी बोतल यही कंज्यूम होते हुये भी आज तक विदेशी शराब , विदेशी ही है ,जिस तरह भारत के आम मुसलमान आज तक भी भारतीय नही हैं ,या माने नही जाते हैं ठीक वैसे ही डाग शो में आये हुये सारे के सारे कुत्ते बाई बर्थ निखालिस हिन्दुस्तानी नागरिकता के धारक थे , पर स्वयं उनके मालिक ही उन्हें देशी कहलाने को तैयार नही थे , विदेशी ब्रीड का होने में जो गौरव है वह अभिजात्य होने का अलग ही अहं भाव जो पैदा करता है . एक जानकार ने बताया कि रामपुर हाउण्ड नामक देसी प्रजाति का कुत्ता भी डाग शो में प्रदर्शन के लिये पंजीकृत है , तो मेरे स्वदेसी प्रेम को किंचित शांति मिली , वैसे खैर मनाने की बात है कि स्वदेशी ,दुत्कारे जाने वाले, टुकड़ो पर सड़को के किनारे पलने वाले ठेठ देशी कुत्तो के हित चिंतन के लिये भी मेनका गांधी टाइप के नेता बन गये हैं , पीपुल्स फार एनीमल , जैसी संस्थायें भी सक्रिय हैं . नगर निगम की आवारा पशुओ को पकड़ने वाली गाड़ी इन कुत्तो की नसबंदी पर काम कर रही है अतः हालात नियंत्रण में है , मतलब चिंता जनक नहीं है , विदेशी श्वान पालिये , ब्लड प्रैशर से दूर रहिये . श्वानों के डाग शो में हिस्सा लीजिये , और पेज थ्री में छपे अपने कुत्ते की तस्वीर की मित्रो मे खूब चर्चा कीजीये . पर आग्रह है कि अब विदेशी ब्रीड के कुत्तो को देशी माने न माने पर कम से कम देश में जन्में हुये आदमी को भले ही वह मुसलमान ही हो देसी मान ही लीजीये .

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२

Thursday, February 25, 2010

नये कुल ,गोत्र, जाति और संप्रदाय

व्यंगलेख
नये कुल ,गोत्र, जाति और संप्रदाय
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२


धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय की जड़ें हमारी संस्कारों में बहुत गहरी हैं . यूं हम आचरण में धर्म के मूल्यो का पालन करें न करें , पर यदि झूठी अफवाह भी फैल जाये कि किसी ने हमारे धर्म या जाति पर उंगली भी उठा दी है , तो हम कब्र से निकलकर भी अपने धर्म की रक्षा के लिये सड़को पर उतर आते हैं , यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र है . हमें इस पर गर्व है . इतिहास साक्षी है धर्म के नाम पर ढ़ेरो युद्ध लड़े गये हैं , कुल , जाति , उपजाति ,गोत्र , संप्रदाय के नाम पर समाज सदैव बंटा रहा है . समय के साथ लड़ाई के तरीके बदलते रहे हैं , आज भी जाति और संप्रदाय भारतीय राजनीति में अहं भूमिका निभा रहे है . वोट की जोड़ तोड़ में जातिगत समीकरण बेहद महत्वपूर्ण हैं . जिसने यह गणित समझ लिया वह सत्ता मैनेज करने में सफल हुआ .इन जातियों , कुल , गोत्र आदि का गठन कैसे हुआ होगा ? यह समाज शास्त्र के शोध का विषय है पर मोटे तौर पर मेरे जैसे नासमझ भी समझ सकते हैं कि तत्कालीन , अपेक्षाकृत अल्पशिक्षित समाज को एक व्यवस्था के अंतर्गत चलाने के लिये इस तरह के मापदण्ड व परिपाटियां बनाई गई रही होंगी , जिनने लम्बे समय में रुढ़ि व कट्टरता का स्वरूप धारण कर लिया . चरम पंथी कट्टरता इस स्तर तक बढ़ी कि धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय से बाहर विवाह करने के प्रेमी दिलों के प्रस्तावों पर हर पीढ़ी में विरोध हुये , कहीं ये हौसले दबा दिये गये , तो कही युवा मन ने बागी तेवर अपनाकर अपनी नई ही दुनिया बसाने में सफलता पाई . जब पुरा्तन पंथी हार गये तो उन्होने समरथ को नहिं दोष गोंसाईं का राग अलाप कर चुप्पी लगा ली , और जब रुढ़िवादियों की जीत हुई तो उन्होने जात से बाहर , तनखैया वगैरह करके प्रताड़ित करने में कसर न उठा रखी . जो भी हो , इस डर से समाज एक परंपरा गत व्यवस्था से संचालित होता रहा है . धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय के बंधन प्रायः शादी विवाह , रिश्ते तय करने हेतु मार्ग दर्शक सिद्धांत बनते गये . पर दिल तो दिल है , गधी पर दिल आये तो परी क्या चीज है ? जब तब धर्म की सीमाओ को लांघकर प्रेमी जोड़े , प्रेम के कीर्तिमान बनाते रहे हैं . प्रेम कथाओ के नये नये हीरो और कथानक रचते रहे हैं . इसी क्रम को नई पीढ़ी बहुत तेजी से आगे बढ़ा रही लगती है .
यह सदी नवाचार की है . नई पीढ़ी नये धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय बना रही है . आज इन पुरातन जाति के बंधनो से परे बहुतायत में आई ए एस की शादी आई ए एस से , डाक्टर की डाक्टर से , साफ्टवेयर इंजीनियर की साफ्टवेयर इंजीनियर से , जज की जज से , मैनेजर की मैनेजर से होती दिख रही हैं . ऐसी शादियां सफल भी हो रही हैं . ये शादियां माता पिता नही स्वयं युवक व युवतियां तय कर रहे हैं . माता पिता तो ऐसे विवाहो के समारोहो में खुद मेहमान की भूमिका में दिखते हैं .बच्चों से संबंध रखना है तो , उनके पास इन नये कुल गोत्र जाति की शादियो को स्वीकारने के सिवाय और कोई विकल्प ही नही होता . मतलब शिक्षा , व्यवसाय , कंपनी , ने कुल , गोत्र, जाति का स्थान ले लिया है . इन वैवाहिक आयोजनो में रिश्तेदारों से अधिक दूल्हे दुल्हन के मित्र नजर आते हैं .रिश्तेदार तो बस मौके मौके पर नेग के लिये सजावट के सामान की तरह स्थापित दिखते हैं . ऐसे आयोजनो का प्रायः खर्च स्वयं वर वधू उठाते है .सामान्यतया कहा जाता था कि दूल्हे को दुल्हन मिली , बारातियो को क्या मिला ? पर मैनेजमेंट मे निपुण इस नई पीढ़ी ने ये समारोह परंपराओ से भिन्न तरीको से पांच सितारा होतलों और नये नये कांसेप्ट्स के साथ आयोजित कर सबके मनोरंजन के लिये व्यवस्थाये करने में सफलता पाई है . कोई डेस्टिनेशन मैरिज कर रहा है तो कोई थीम मैरिज आयोजित कर रहा है .ये विवाह सचमुच उत्सव बन रहे हैं . कुटुम्ब के मिलन समारोह के रूप में भी ये विवाह समारोह स्थापित हो रहे हैं . लड़कियो की शिक्षा से समाज में यह क्रांतिकारी परिवर्तन होता दिख रहा है . लड़के लड़की दोनो की साफ्टवेयर इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों की मल्टीनेशनल कंपनी की आय मिला दें तो वह औसत परिवारो की सकल आय से ज्यादा होती है , इसी के चलते दहेज जैसी कुप्रथा जिसके उन्मूलन हेतु सरकारी कानून भी कुछ ज्यादा नही कर सके खुद ही समाप्त हो रही है . हमारी तो पत्नी ही हम पर हुक्म चलाती है , पर इन विवाहो में सब कुछ लड़की की मरजी से ही होता दिखता है , क्योकि कुवर जी पर दुल्हन का पूरा हुक्म चलता दिखता है .
यूं तो नये समय में कालेज से निकलते निकलते ही बाय फ्रेंड , गर्ल फ्रेंड , अफेयर , ब्रेकअप इत्यादि सब होने लगा है , पर फिर भी जो कुछ युवा कालेज के दिनो में सिसियरली पढ़ते ही रहते हैं उनके विवाह तय करने में नाई , पंडित की भूमिका समाप्त प्राय है , उसकी जगह शादी डाट काम , जीवनसाथी डाट काम आदि वेब साइट्स ने ले ली है . युवा पीढ़ी एस एम एस , चैटिग , मीटिग , डेटिंग , आउटिंग से स्वयं ही अपनी शादियां तय कर रही है . सार्वजनिक तौर से हम जितना उन्मुक्त शादी के २० बरस बाद भी अपनी पिताजी की पसंद की पत्नी से नही हो पाये हैं ,हनीमून पर जाने की आवश्यकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये परस्पर उससे ज्यादा फ्री , ये वर वधू विवाह के स्वागत समारोह में नजर आते हैं .नये धर्म , कुल , गोत्र, जाति और संप्रदाय की रचियता इस पीढ़ी को मेरा फिर फिर नमन . सच ही है समरथ को नही दोष गुसाईं .मैं इस परिवर्तन को व्यंजना , लक्षणा ही नही अमिधा में भी स्वीकार करने में सबकी भलाई समझने लगा हूं .पारंपरिक कुल , जाति गोत्र अब केवल वोट की राजनीति और धार्मिक उन्माद फैलाने के ही काम के रह गये हैं , विवाह हेतु हमारी नई पीढ़ी ने ये नये कुल , जाति और गोत्र रच लिये हैं , जो धर्म की सीमाओ से परे हैं .

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
मो ९४२५८०६२५२