Tuesday, December 30, 2025

कटाक्ष की कसौटी पर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें

 कटाक्ष की कसौटी पर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें


विवेक रंजन श्रीवास्तव 


दुष्यन्त कुमार (1933-1975) आधुनिक हिन्दी साहित्य के ऐसे विशिष्ट ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने ग़ज़ल को रूमानियत और श्रृंगार के परम्परागत दायरे से निकालकर समकालीन यथार्थ, सामाजिक विसंगतियों और राजनीतिक विद्रूपताओं के चित्रण का माध्यम बनाया। उनकी काव्य चेतना का केन्द्र 'आम आदमी' की पीड़ा, आकांक्षा और संघर्ष है। इसी चेतना को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने हिंदी ग़ज़ल को एक सशक्त अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया। ग़ज़लों में उनका कटाक्ष , व्यंग्यात्मक प्रहार और तंज  सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था की जड़ता, संवेदनहीनता और विडम्बनाओं के प्रति तीखा प्रहार तथा जन चेतना जगाने का प्रयास  सिद्ध हुआ है।

दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों में निहित व्यंग्य के स्वरूप, विषय वस्तु और अभिव्यक्ति का विवेचन महत्वपूर्ण है। 


दुष्यन्त कुमार के कटाक्ष की जड़ें उनकी गहन सामाजिक प्रतिबद्धता में निहित हैं।  उनकी ग़ज़लों में "सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक विसंगतियों को बेबाकी से उभारने" के व्यापक उदाहरण हैं।  वे 'साये में धूप' जैसे संग्रह के माध्यम से आज़ाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की विडंबनाओं को उजागर करते हैं और "जनता की सुप्त संवेदनाओं को जागृत करते हैं"। उनका व्यंग्य दो स्तरों पर काम करता है , एक ओर वे शोषित जनता से सहानुभूति रखते हैं, तो दूसरी ओर "उसकी संवेदनहीनता और जड़ता पर व भी कटाक्ष में गजल कहते हैं"। इस प्रकार उनकी ग़ज़ल केवल विरोध तक सीमित नहीं, बल्कि एक वैकल्पिक चेतना के निर्माण का छंद बद्ध आह्वान है।


 राजनीतिक व्यवस्था और खोखले वादों पर कटाक्ष उनकी लोकप्रियता की ताकत बना दिखाई देता है। 

दुष्यन्त कुमार की सबसे प्रसिद्ध  ग़ज़लों में से एक है  "कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए"...। इस ग़ज़ल में राजनीतिज्ञों के कथनी और करनी के अन्तर पर करारा कटाक्ष है। वे कहते हैं कि नेताओं ने हर घर को रोशन करने (सुख-सुविधा देने) का सपना दिखाया, लेकिन वास्तविकता यह है कि "कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए"। यहाँ 'चिराग़' सुविधाओं और विकास का प्रतीक है।  "दुष्यंत जी  राजनीति पर व्यंग करते हुए कहते हैं कि राजनीति लोगों को बड़े-बड़े लुभाने सपने दिखाती है... आज स्थिति यह है कि शहरों में भी चिराग़ अर्थात् सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं, नेताओं की घोषणा कागज़ी है"। यह ग़ज़ल राजनीतिक व्यवस्था के थोथे आश्वासनों और जनता के साथ धोखे के उनके अनुभव का जीवन्त भावनात्मक दस्तावेज है, इसी तेवर से वे आम आदमी में लोकप्रिय हुए। 


ग़ज़ल "मत कहो, आकाश में कुहरा घना है" सामाजिक यथार्थ की कड़वी सच्चाई को व्यंग्य के माध्यम से पेश करती है। कवि कहता है कि सड़क पर इतना कीचड़ है कि हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है, लेकिन "पक्ष और’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं, बात इतनी है कि कोई पुल बना है"। यहाँ संसद में होने वाली खोखली बहस और जमीनी हकीकत (सड़कों की बदहाली) के बीच की विसंगति पर तीखा तंज है। वे आगे कहते हैं कि "रक्त वर्षों से नसों में खौलता है, आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है" , यह समाज में जमी हुई पीड़ा और उसे हल्के में लेने की प्रवृत्ति पर चोट है। अंत में, "दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है, आजकल नेपथ्य में संभावना है" पंक्ति सत्ता और अवसर के केन्द्रों से सामान्य जन के हटाए जाने की विडम्बना को दर्शाती है।


ग़ज़ल "वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है" सत्ता के एक ऐसे कृत्रिम, दम्भी और खोखले प्रतिनिधि का चित्रण करती है, जो असलियत में कुछ नहीं है, बस एक 'बयान' मात्र है। उसके "झोले में कोई संविधान है" जैसी पंक्ति शासन के नाममात्र के औपचारिक ढाँचे और उसकी वास्तविक निरंकुशता के बीच के अन्तर को उजागर करती है। यह चित्रण उन तथाकथित 'विकास' और 'कानून' के ठेकेदारों की पोल खोलता है, जिनका असली चरित्र जनता से कोसों दूर है।

आज भी राजनेता अपने भाषणों में झोले से संविधान निकाल कर जन सभाओं में लहराते नजर आते हैं, और ये स्थिति दुष्यन्त को प्रासंगिक बनाए हुए है।


"कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं" ग़ज़ल में समकालीन समाज में व्याप्त विसंगतियों का चित्रण है। "गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं", "वो सलीबों के क़रीब आए तो हम को क़ायदे क़ानून समझाने लगे हैं" जैसी पंक्तियाँ धर्म और कानून के नाम पर होने वाले पाखण्ड पर प्रहार करती हैं। "अब नई तहज़ीब के पेश-ए-नज़र हम आदमी को भून कर खाने लगे हैं" , यह पंक्ति नवीन सभ्यता के नाम पर मनुष्यता के भक्षण (शोषण) की ओर संकेत करती है, जो आधुनिकता के नकली आवरण में छिपे बर्बरता भरे व्यवहार पर गहरा व्यंग्य है। 

अब विद्रूप स्थिति तो ये हो रही है कि सचमुच तंदूर कांड , या बोटियां काटकर फ्रिज में रखने जैसी वीभत्स्व घटनाएं समाज में हो रही हैं, पर कोई दुष्यन्त कुछ वैसा लिख नहीं रहा, जैसा उस दुष्यन्त ने तात्कालिक परिस्थित पर लिख लिया। 


दुष्यन्त कुमार के व्यंग्य की प्रभावोत्पादकता उनकी भाषा-शैली में निहित है। वे उर्दू-हिन्दी के मिश्रित, सहज लेकिन चुभते हुए शब्दों का प्रयोग करते हैं। उनकी भाषा में एक विशिष्ट 'बेचैनी' और 'बेलौस मस्ती' है, जो सामाजिक विसंगतियों को देखकर भीतर ही भीतर सुलगने वाले व्यक्ति की आग को दर्शाती है। वे प्रतीकों और विरोधाभासों का सटीक इस्तेमाल करते हैं, जैसे 'दरख़्तों के साये में धूप लगती है'। यह विरोधाभासी प्रतीक एक ऐसी व्यवस्था की ओर इशारा करता है, जो शरण तो देना चाहती है, लेकिन उसमें भी कष्ट ही है। इस तरह उनकी भाषा व्यंग्य को स्मरणीय और प्रभावशाली बना देती है।


दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों में व्यंग्य कोरी आलोचना या नकारात्मकता नहीं है, बल्कि यह एक रचनात्मक विरोध और सकारात्मक परिवर्तन का आह्वान है। उन्होंने ग़ज़ल की कोमल तान को समाज के कठोर यथार्थ और उसके प्रति तीखे प्रतिरोध की धार दी। राजनीतिक व्यवस्था की खोखली, सामाजिक विडम्बनाओं, जनता की जड़ता और नैतिक मूल्यों के क्षरण पर उनकी व्यंग्यदृष्टि ने हिन्दी ग़ज़ल को एक नया विस्तार और गरिमा प्रदान की। उनका काव्य-संसार इस बात का प्रमाण है कि साहित्य यदि जन-पक्षधर है, तो उसका व्यंग्य केवल विध्वंसक नहीं, बल्कि एक नई चेतना के निर्माण का सृजनात्मक औज़ार भी हो सकता है।

दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि उनमें चित्रित विसंगतियाँ और उन पर किया गया व्यंग्य समय के साथ और भी स्पष्ट होता गया है।


विवेक रंजन श्रीवास्तव 

प्रबुद्ध व्यंग्यकार और समालोचक

( व्यंग्य कल आज और कल के लेखक )

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