Saturday, October 24, 2009

आतंकवाद अमर हो


मेरा व्यंग पढ़िये .. अपना अभिमत दीजीये .. और आप भी हिस्सा लीजिये व्यंग लेखन में

http://rachanakar.blogspot.com/2009/10/blog-post_24.html

प्रत्येक वस्तु को देखने के दो दृष्टिकोण होते हैं . आधे भरे गिलास को देखकर नकारात्मक विचारों वाले लोग कहते हैं कि गिलास आधा खाली है , पर मेरे तरह के लोग कहते हैं कि गिलास आधा भरा हुआ है . मनोवैज्ञानिक इस दृष्टिकोण को सकारात्मक विचारधारा कहते हैं . आज सारी दुनिया आतंकवाद और आतंकवादियों के विरुद्ध दुराग्रह , और ॠणात्मक दृष्टिकोण के साथ नहा धोकर पीछे पड़ी हुई है . आतंकवाद के विरोध में बयान देना फैशन हो गया है . जब दो राष्ट्राध्यक्ष मिलें और घोषणा पत्र जारी करने के लिये कुछ भी न हो तो आतंकवाद के विरोध में साथ काम करने की विज्ञप्ति सहज ही जारी कर दी जाती है .

कभी सोचकर तो देखिये कि आतंकवाद के कितने लाभ हैं . आतंकवादियों के डर से दिन रात चौबीसों घंटे हमारी सुरक्षा व्यवस्था और सैनिक चाक चौबंद रहते हैं , अनेक दुर्घटनाएं घटने से पहले ही निपट जाती हैं . सोचिये यदि आतंक का हौआ न होता तो क्या कमांडो फोर्स गठित होती ? क्या हमारे नेताओं का स्टेटस सिंबल , उनकी जेड सुरक्षा उन्हें मिलती ? जिस तेजी से सुरक्षा बलों में नये पद सृजित हुये है आतंकवाद का बेरोजगारी मिटाने में अपूरणीय योगदान है . हर छोटा बड़ा देश जिस मात्रा में आतंकवाद के विरोध में बजट बढ़ा रहा है , और इस सबसे जो विकास हो रहा है उसे देखते हुये मेरा सोचना है कि हमें तो आतंकवाद की अमरता की कामना करनी चाहिये . नयी-नयी वैज्ञानिक तकनीकी संसाधनों के अन्वेषण का श्रेय आतंकवाद को ही जाता है . सारी दुनिया में अनेक वैश्विक संगठन , शांति स्थापना हेतु विचार गोष्ठियां कर रहे है , आतंक के विरोध में धुरविरोधी देश भी एक जुटता प्रदर्शित कर रहे हैं , यह सब आतंकवाद की बदौलत ही संभव हुआ है . शांति के नोबल पुरस्कार का महत्व बढ़ा है . यह सब आतंकवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप ही हुआ है , क्या यह सच नहीं है ? अमेरिका की वैश्विक दादागिरी और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति , आतंकवाद के विरोध पर ही आधारित है . प्रत्यक्ष या परोक्ष आतंकवाद हर किसी को प्रभावित कर रहा है , कोई उससे डरकर अपने चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगा रहा है तो कोई फैलते आतंक को ओढ़ बिछा रहा है . लोगों में आत्म विश्वास बढ़ा है , न्यूयार्क हो मुम्बई या लाहौर हर आतंकी गतिविधि के बाद नये हौसले के साथ लोग जिस तरह से फिर से उठ खड़े हुये हैं , जनमानस में वैसा आत्मविश्वास जगाना अन्यथा सरल नही था , इसके लिये समाज को आतंकवाद का आभार मानना चाहिये . मेरी स्पष्ट धारणा है कि आतंकवाद एक अति-लाभदायक क्रिया कलाप है , अब समय आ चुका है कि कम से कम हम सब व्यंगकारों को आतंकवाद के इस रचनात्मक पहलू पर एकजुट होकर दुनिया का ध्यान आकृष्ट करना चाहिये .

कभी बेचारे आतंकवादियों के दृष्टिकोण से भी तो सोचिये , कितनी मुश्किलों में रहते हैं वे , गुमनामी के अंधेरों में , संपूर्ण डेडीकेशन के साथ , अपने मकसद के लिये जान हथेली पर रखकर , घर परिवार छोड़ जंगलों में प्रशिक्षण प्राप्त कर जुगाड़ करके श्रेष्ठतम अस्त्र शस्त्र जुटाना सरल काम नही है . पल दो पल के धमाके के लिये सारा जीवन होम कर देना कोई इन जांबाजों से सीखे . आत्मघात का जो उदाहरण हमारे आतंकवादी भाई प्रस्तुत कर रहे हैं , वह अन्यत्र दुर्लभ है . जीवन से निराश , पलायनवादी , या प्रेम में असफल जो लोग आत्महत्या करते है वह बेहद कायराना होती है , पर अपने मिशन के पक्के ढ़ृढ़प्रतिज्ञ हमारे आतंकी भाई जो हरकतें कर रहे है वह वीरता के उदाहरण बन सकते हैं जरूरत बस इतनी है कि कोई मेरे जैसा लेखक उन पर अपनी कलम चला दे .

हमारे आतंकवादी भाई जाने कितनों के प्रेरणा स्रोत हैं , अनेकों फिल्मकार बिना रायल्टी दिये उनसे अपनी कहानियां बना चुके हैं , कई चैनल्स सनसनीखेज समाचारों के लाईव टेलीकास्ट कर अपनी टी आर पी बढ़ा चुके हैं , ढ़ेरों खोजी पत्रकारों को उनके खतरनाक कवरेज के लिये पुरस्कार मिल चुका है , और तो और बच्चों के खिलौने बनाने वाली कंपनियां बढ़ते आतंक को पिस्तौल और अन्य खिलौनों की शक्ल में इनकैश भी कर चुकी हैं .

मेरी समझ में किसी न किसी शक्ल सूरत में आतंक सदा से दुनियां में रहा है , और हमेशा रहेगा . मां की गोद में मचलता हुआ बच्चा देखा है ना आपने , अपनी आतंकी वृत्ति से ही वह मां से उसकी मांग पूरी करवा लेता है . पत्नी के आतंक पर भी प्यार आता है . हम सब के भीतर बहुत भीतर थोड़ा सा गांधी और एक टुकड़ा लादेन प्रकृति प्रदत्त है . और तय है कि प्रकृति कुछ भी अनावश्यक नही करती . आवश्यकता मात्र इतनी सी है कि सकारात्मक तरीके से उसका सदुपयोग किया जाये . सांप के विष से भी चिकित्सा की जाती है . अतः मेरी तो आतंकी भाइयों से फिर-फिर अपील है कि आओ मेरा खून बहाओ, यदि इससे उनका मकसद हल हो जाये , पर तय है कि इससे कुछ होने वाला नही है . लाखों को तो मार डाला आतंकवाद ने , हजारों आतंकवादी मर भी गये , क्या मिला किसी को ? इसलिये बेहतर है कि अपनी आतंक को समर्पित उर्जा को , सकारात्मक सोच के साथ , रचनात्मक कार्यो में लगायें , हमारे आतंकी भाई बहन और उनके संगठन , जिससे मेरे जैसे व्यंगकार ही नही , सारी दुनिया चिल्ला-चिल्ला कर कह सके आतंकवाद अमर हो , और आतंकी भाइयों के किस्से किताबों में सजिल्द छपें तथा गर्व से पढ़े जायें.

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विवेक रंजन श्रीवास्तव

ओ बी ११

, विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर

Saturday, March 21, 2009

कम्प्यूटर पीडित।

व्यंग्य
कम्प्यूटर पीडित।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.

हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।
कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है - दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।
कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें `` सिंगल विंडो प्रणाली बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को `ओबलाइज कैसे करेगा, हुये ना बडे बाबू कम्प्यूटर पीडित।
दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहॉ तो ``एंटर´´ का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।
वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीडा भर नही देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूंं । जो पहली नौकरी मिली , आज तक उसी में लगा हुआ हूंं यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता `` नौकरी डॉट कॉम की मदद से,पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीडित युवाओं की तरह नही कि सगाई के समय किसी कंपनी में , शादी के समय किसी और में , एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में , ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही- सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूं, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते- उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।
आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी,फिर बीटिंग करते हुए तलाक।
हॉं हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीडाओं की चर्चा कर रहे थ्ेा, अब तो `` पैन ³ªाइव´´ का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अथाZत कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, ``सेलरॉन´´ से ``पी-5´´ के कम्प्यूटर बदलते- बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर , डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदशोZं के चलते मेरी कम्प्यूटर पीडित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहॉं इंटरनेट पर सब कुछ खुला- खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।





विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी.-6, रामपुर, जबलपुर.

Wednesday, February 4, 2009

आज उड़नतश्तरी जी घर पर ..

आज उड़नतश्तरी जी घर पर ..
रामभरोसे की प्रति दी थी सप्रेम , आग्रह किया था कि कभी पधारकर हमारे ब्लाग को भी संवार दें ..
व्यस्त जिंदगी में , सब कुछ है हम सब के पास , समय को छोड़कर . पर आज समीर लाल जी पधारे , और उनके हाथ लगने से यह ब्लाग भी कुछ बढ़िया सा लग तो रहा है , तो प्रस्तुत है यह टेस्ट पोस्ट ..साभार समीर जी के प्रति ...

Tuesday, January 27, 2009

विदेशी शराब की सरकारी दुकान

विदेशी शराब की सरकारी दुकान

ये लेखक भी बड़े अजीब किस्म के प्राणी होते हैं, जाने क्यों उन्हें वह सब भी दिखता है, जिसे और लोग देखकर भी नहीं देखते, शहर के मुख्य चौराहे पर गांधी जी की प्रतिमा है, उसके ठीक सामने, मूगंफली, उबले चने, अंडे वालों के ठेले लगते हैं और इन ठेलों के सामने सड़क के दूसरे किनारे पर, लोहे की सलाखों में बंद एक दुकान है, दुकान में रंग-बिरंगी शीषियां सजी हैं लाइट का डेकोरम है,अर्धनग्न तस्वीरों के पोस्टर लगे है, दुकान के ऊपर आधा लाल आधा हरा एक साइन बोर्ड लगा है- `` विदेषी शराब की सरकारी दुकान´´ इस बोर्ड को आजादी के बाद से प्रतिवर्ष नया ठेका मिलते ही, ठेकेदार नये रंग-पेंट में लिखवाकर, तरीके से लगवा देता है पर आम नागरिकों को न यह इबारत समझ आती है न बोर्ड, यह हम जैसे बुिद्धजीवी लेखक टाइप के लोगों को ही दिखता है, दिखता क्या है, गांधी जी के बुत को चिढ़ाता सा चुभता है।

यह दुकान सरकारी राजस्व कोष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष जन कल्याण के बजट के लिये जो मदद सरकार जुटाती है, उसका बड़ा भाग शहर-षहर में फेैली ऐसी ही दुकानलों से एकत्रित होता है। सरकार में एक अदद आबकारी विभाग इन विदेषी शराब की देसी दुकानों के लिये विभाग है, तो मंत्री जी हैं, जिला अधिकारी हैं, सचिव है और इंस्पेक्टर वगैरह भी है। शराब के ठेकेदार है। शराब के अभिजात्य माननीय उपभोक्ता आदि हैं। गांधी जी का बुत गवाह है, देर रात तक, सप्ताह में सातों दिन, दुकान में रौनक बनी रहती है। सारा व्यवसाय नगद पर होता है जबकि शासन को अन्य कार्यक्रम ऋण बांटकर, सिब्सडी देकर करने पड़ते है। सर्वहारा वर्ग के मूंगफली, अंडे और चने के ठेले भी इस दुकान के सहारे ही चलते है। अत: जब कभी चुनाव, होली या गांधी जयंती जैसी तिथियों पर इस दुकान से सारा लेन -देन पिछवाड़े से ब्लैक पर ही हो पाता है, तो ये ठेले वालो अपनी आजीविका के लिये परेषान हो उठते है। प्रतिवर्ष होने वाले ठेकों की नीलामी के समय माहौल तनावपूर्ण हो जाता है, किन्तु कट्टे-वट्टे चलने के बाद भी स्थिति नियंत्रण में बनाये रखने हेतु पुलिस कप्तान, जिलाधीष आदि सक्रिय होते है।

गांधी जी ने जाने क्यों इतने लाभदायक व्यवसाय को कभी समझा नहीं, और शराबबंदी, विदेषी बहिष्कार, जैसी हरकतें करते रहे। आज उनके अनुयायियों ने कितनी विद्वता से हर गांव, हर चौराहे पर, उनके बुत लगवा दिये हैं और सरकारी स्तर पर इतने लाभदायक कार्य कर रहे हैं। कई माननीय मुख्यमंत्री तो आबकारी नीति की सरकारी घोषणा, समीक्षा आदि भी करते रहते हैं और बियर वियर जैसे शीतर पेय, इसी के तहत अब इन सलाखबंद दुकानों से निकलकर दूध की दुकानों तक पहुंच रहे है। हम प्रगति पथ पर अग्रसर हैं। मेरे जैसे जाहिल लोग जिन्होेंने प्राय: सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल ही देखे हैं, ये सरकारी दुकानें देखकर सरकार के प्रति नतमस्तक हैं। और क्यों न हो? यहां मिलने वाला पेय मेड इन इंडिया ही होता है- पर उसे विदेषी का खिताब वेैेसंें ही मिला हुआ है, जैसे किसी विदेषी बहू को हम लोग अमने परिवार में ब्याहकर ठेठ अपनी बना लेते हैं। यह हमारी संस्कृति की विषेषता है। यह हॉट डिंªक, कोल्ड करके पिया जाता है। यह भी इसकी अद्भुत विषेषता है। इस पेय को सरकारी सरंक्षण स्वाभाविक हैं, क्योंकि प्रत्येक महत्वपूर्ण फैेसले जो दूसरे दिन ऑफिस में लिये जातें हैं, वे पूर्व संध्या पर डिनर पॉलिटिक्स में इन बोतलों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इस पेय की क्षमता अद्भुत है, यह आपके सारे गम भुला सकता है। इसके जाम की दोस्ती, अन्य सारे रिष्ते दरकरार कर देती है। मंदिर-मिस्जद बैर कराते, मेल कराती मधुरषाला-हरिवंषराय बच्चन जी की मधुषाला के प्याले का मधुरस यही तो है। इस मधुरस पर क्या टैक्स होगा, यह राजनैतिक पार्टियों का चंदा तय करने का प्रमुख सूत्र है।

आइये खुषी में, गम में, नये वर्ष के स्वागत में, जीत में, हार में, पदोन्नति में, सेवानिवृत्त पर या फिर वैसे ही, अपनी इस सरकारी दुकान से, यह अपने ही देष में बना स्वदेषी, विदेषी पेय खरीदकर इसका रसास्वादन करें और ग्लोबलाइजेषन को महसूस करें।



विवेकरंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर
9425484452

Thursday, August 7, 2008

बिजली बैरन भई


बिजली बैरन भई
ज्यादा नहीं कोई पचास सौ बरस पुरानी बात है, तब आज की तरह घर-घर बिजली नहीं थी, कितना आनंद था। उन दिनों डिनर नहीं होता था, ब्यारी होती थी। शाम होते ही लोग घरों में लौट आते थे। संध्या पूजन वगैरह करते थे, खाना खाते थे। गांव - चौपाल में लोक गीत, रामायण भजन आदि गाये जाते थे। िढबरी, लालटेन या बहुत हुआ तो पैट्रोमैक्स के प्रकाष में सारे आयोजन होते थे। दिया बत्ती करते ही लोग जय राम जी की करते थे। राजा महाराओं के यहां झाड़ फानूस से रोषनी जरूर होती थी। और उसमें नाच गाने का रास रंग होता था, महफिलें सजती थी। लोग मच्छरदानी लगा कर चैन की नींद लेते थे और भोर भये मुगोZ की बांग के साथ उठ जाते थे, बिस्तर गोल और खटिया आड़ी कर दी जाती थी।
फिर आई ये बैरन बिजली, जिसने सारी जीवन शैली ही बदल कर रख दी। अब तो जैसे दिन वैसी रात। रात होती ही नहीं, तो तामसी वृत्तियां दिन पर हावी होती जा रही है। शुरू-षुरू में तो बिजली केवल रोषनी के लिए ही उपयोग में आती थी, फिर उसका उपयोग सुख साधनों को चलाने में होने लगा, ठंडक के लिये घड़े की जगह िफ्रज और कूलर, पंखे, एण्सीण् न ले ली। गमीZ के लिये वाटर हीटर, रूम हीटर उपलब्ध हो गए। धोबी की जगह वाषिंग मषीन लग गई । जनता के लिये श्लील-अष्लील चैनल लिये चौबीसो घंटे चलने वाला टीण्वी, सीण्डीण् वगैरह हाजिर है। कम्प्यूटर युग है। घड़ी में रोज सुबह चाबी देनी पड़ती थी, वह बात तो आज के बच्चे जानते भी नहीं आज जीवन के लिये हवा पानी सूरज की रोषनी की तरह बिजली अनिवार्य बन चुकी है। कुछ राजनेताओं ने खुले हाथों बिजली लुटाई, और उसी सब का दुष्परिणाम है कि आज बिजली बैरन बन गई है। बिजली कम है, और उसके चाहने वाले ज्यादा, परिणाम यह है कि वह चाहे जब चली जाती है, और हम अनायास अपंग से बन जाते हैं, सारे काम रूक जाते हैं, इन दिनों बिजली से ज्यादा तेज झटका लगता है- बिजली का बिल देखकर। जिस तरह पुलिस वालों को लेकर लोकोक्तियॉं प्रचलन में है कि पुलिस वालों से दोस्ती अच्छी है न दुष्मनी। ठीक उसी तरह जल्दी ही बिजली विभाग के लोगों के लिए भी कहावतें बन जायेंगी।
बिजली के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि इसे कहीं भरकर नहीं रखा जा सकता, जैसे पानी को टंकी में रखा जा सकता है। किंतु समय ने इसका भी समाधान खोज निकाला है, और जल्दी ही पावर कार्डस हमारे सामने आ जायेंगे। तब इन पावर काड्Zस के जरिये, जहां बिजली का अगि्रम भुगतान हो सकेगा, वही कल के प्रति आष्वस्ति के लिये लोग ठीक उसी तरह ढेरों पावर कार्ड खरीद कर बटोर सकेंगे जैसे आज कई गैस सिलेंडर रखे जाते है। सोचिये ब्लैकनेस को दूर करने वाली बिजली को भी ब्लैक करने का तरीका ढूंढ निकालने वाले ऐसे प्रतिभावान व्यक्तित्व का हमें किस तरह सम्मान करना चाहिए।
बिजली को नाप जोख को लेकर इलैक्ट्रोनिक मीटर की खरीद और उनके लगाये जाने तक, घर-घर से लेकर विधानसभा तक, खूब धमाके हुये। दो कदम आगे, एक कदम पीछे की खूब कदम ताल हुई और जारी है। समवेत स्वर में एक ही आवाज आ रही है। बिजली बैरन भई।
विवेकरंजन श्रीवास्तवब्ण्6ए डण्च्ण्ैण्म्ण्ठण् ब्वसवदल ।कसण् ैनचण् म्दहपदममतए डण्च्ण्ैण्म्ण्ठण् रामपुर, जबलपुर मोण्नंण् 9425484452

Tuesday, August 5, 2008

जरूरत एक कोप भवन की



जरूरत एक कोप भवन की
by Vivek Ranjan Shrivastava
भगवान श्री राम के युग की स्थापत्य कला का अध्ययन करने में एक विष्ेाष तथ्य उद्घाटित होता है- वह यह कि तब भवन में रूठने के लिये एक अलग स्थान होता था। इसे कोप भवन कहते थे। गुस्सा आने पर मन ही मन घुनने के बजाय कोप भवन में जाकर अपनी भावनाओं का इजहार करने की परम्परा थी। कैकेयी को श्री राम का राज्याभिषेक पसंद नहीं आया वे कोप भवन में चली गई। राजा दषरथ उन्हें मनाने पहुंचे- राम का वन गमन हुआ। मेरा अनुमान है कि अवष्य ही इस कोप भवन की साज-सज्जा, वहां का संगीत, वातावरण, रंग रोगन, फर्नीचर, इंटीरियर ऐसा रहता रहा होगा, जिससे मनुष्य की क्रोधित भावना शांत हो सके, उसे सुकून मिल सके। यह नििष्चत ही शोध का विषय है। बल्कि मेरा कहना तो यह है कि पुरातत्व षास्त्रि़यों को श्री राम जम्न भूमि प्रकरण सुलझाने के लिये अयोध्या की खुदाई में कोप भवन की विषिष्टता का ध्यान रखना चाहिए।
आज पुन: कोप भवन प्रासंगिक हो चला है। अब खिचड़ी सरकारों का युग है, यह सर्वविदित सत्य है कि खिचड़ी में दाल-चावल से ज्यादा महत्व घी, अचार, पापड़, बिजौरा, सलाद, नमक और मसालों का होता है। सुस्वादु खिचड़ी के लिये इन सब की अपनी-अपनी अहमियत होती है, भले ही ये सभी कम मात्रा में हो, पर प्रत्येक का महत्व निर्विवाद है।
प््राी पोल एिक्जट पोल के चक्कर में हो, या कई चरणों के मतदान के चक्कर में, पर हमारे वोटर ने जो `राम भरोसे´ है ऐसा मेन्डेट देना शुरू किया है कि सरकार ही `राम भरोसे´ बन कर रह गई लगती है। राम भक्तों के द्वारा, राम भरोसे के लिये, राम भरोसे चलने वाली सरकार। आम आदमी इसे खिचड़ी सरकार कहता है। खास लोग इसे `एलायन्स´ वगैरह के नाम से पुकारते हैं।
इन सरकारों के नामकरण संस्कार, सरकारों के मकसद वगैरह को लेकर मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैंं, नेता वगैरह ही रूठते हैं, जैसे बचपन में मै रूठा करता था, कभी टॉफी के लिये, कभी खिलौनों के लिये, या मेरी पत्नी रूठती हेै आजकल, कभी गहनों के लिये, कभी साड़ी के लिये, या मेरे बच्चे रूठते हैं, वीण्सीण्डीण् के लिये, एण्सीण् के लिये। देष-काल, परिस्थिति व हैसियत के अनुसार रूठने के मुद्दे बदल जाते हैं, पर रूठना एक `कामन´ प्रोग्राम है।
रूठने की इसी प्रक्रिया को देखते हुये `कोप भवन´ की जरूरत प्रासंगिक बन गई है। कोप भवन के अभाव में बडी समस्या होती रही है। ममता रूठ कर सीधे कोलकाता चली जाती थी, तो जय ललिता रूठकर चेन्नई। बेचारे जार्ज साहब कभी इसे मनाने यहां, तो कभी उसे मनाने वहां जाते रहते थे। खैर अब उस युग का पटाक्षेप हो गया है पर केवल किरदार ही तो बदले हैं। कभी अचार की बाटल छिप जाती है, कभी घी की डिब्बी, कभी पापड़ कड़कड़ कर उठता है, तो कभी सलाद के प्याज-टमाटर-ककड़ी बिखरने लगते हैं- खिचड़ी का मजा किरकिरा होने का डर बना रहता है।
अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधान सभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह एक एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे। इससे सबसे बड़ा लाभ मोर्चाे के संयोजको को होगा। विभाव के बंटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही मांग न माने जाने पर जैसी ही किसी का दिल टूटेगा, वह कोप भवन में चला जाएगा। रेड अलर्ट का सायरन बजेगा। संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुंच, रूठे को मना लेगा- फुसला लेगा। लोकतंत्र पर छाया खतरा टल जायेगा।
जनता राहत की सांस लेगी। न्यूज वाले चैनलों की रेटिंग बढ़ जायेगी। वे कोप भवन से लाइव टेलीकास्ट दिखायेंगे। रूठना-मनाना सार्वजनिक पारदर्षिता के सिद्धांत के अनुरूप, सैद्धांतिक वाग्जाल के तहत पब्लिक हो जायेगा। आने वाली पीढ़ी जब `घर-घर´ खेलेगी तो गुिड़या का कोपभवन भी बनाया करेगी बल्कि, मैं तो कल्पना करता हंूं कि कहीं कोई मल्टीनेषनल `कोप-भवन´ के मेरे इस 24 कैरेट विचार का पेटेन्ट न करवा ले, इसलिये मैं जनता जनार्दन के सम्मुख इस परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा हंू।
मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि कुिण्ठत रहने से बेहतर है, कुण्ठा को उजागर कर बिन्दास ढंग से जीना। अब हम अपने राजनेताओं में त्याग, समर्पण, परहित के भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तो उनके स्वार्थ, वैयक्तिक उपलब्धियों की महत्वकांक्षाओं के चलते, खिचड़ी सरकारों में उनका कुपित होना जारी रहेगा, और कोप भवन की आवष्यकता, अनिवार्यता में बदल जायेगी।
विवेकरंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर
मो 9425484452

श्रीमती जी की किटी पार्टी



श्रीमती जी की किटी पार्टी
विवेकरंजन श्रीवास्तव
c/6 , mpeb colony , rampur ,Jabalpur
पुराने जमाने में महिलाओं की परस्पर गोिष्ठयां पनघट पर होती थी । घर परिवार की चर्चाये, ननद, सास की बुराई, वगैरह एक दूसरे से कह लेने से मनो चिकित्सकों की भाषा में, दिल हल्का हो जाता है, और नई ऊर्जा के साथ, दिन भर काटने को, पारिवारिक उन्नति हेतु स्वयं को होम कर देने की हमारी सांस्कृतिक विरासत वाली `नारी मानसिक रूप से तैयार हो लेती थी। समय के साथ बदलाव आये हैं । अब नल-जल व्यवस्था के चलते पनघट इतिहास में विलीन हो चुके है। स्त्री समानता का युग है। पुरूषों के क्लबों के समकक्ष महिला क्लबों की संस्कृति गांव-कस्बों तक फेैल रही है। सामान्यत: इन क्लबों को किटी-पार्टी का स्वरूप दिया गया है। प्राय: ये किटी पार्टिZयां दोपहर में होती है, जब पतिदेव ऑफिस, और बच्चे स्कूल गये होते है। महिलायें स्वयं अपने लिये समय निकाल लेती है। और मेरी पत्नी इस दौरान सोना, टीण्वीण् धारावाहिक देखना, पत्रिकायें- पुस्तकें पढ़ना, संगीत सुनना, और कुछ समय बचाकर लिखना जैसे शौक पाले हुए थी। पत्र-पत्रिकाओं में उसके लेख पढ़कर, मित्र अधिकारियों की पित्नयां मेरी श्रीमती जी को अपनी किटी पार्टी में शामिल करने की कई पेषकष कर चुकी थी, जिन्हेंं अंत्तोगत्वा उसे तब स्वीकार करना ही पड़ा जब स्वयं जिलाधीष महोदय की श्रीमती जी ने उसे क्लब मैंबर घोषित ही कर दिया। और इस तरह श्रीमती जी को भी किटी पार्टी का रोग लग ही गया।
प्रत्येक मंगलवार को मैं महावीर मंदिर जाता हंूं, अब श्रीमती जी इस दिन किटी पार्टी में जाने लगी है। कल क्या पहनना है, ज्वेलरी, साड़ी से लेकर चप्पलें और पर्स तक इसकी मैंचिग की तैयारियां सोमवार से ही प्रारंभ हो जाती हैं। कहना न होगा इन तैयारियों का आर्थिक भार मेरे बटुये पर भी पड़ रहा है। जिसकी भरपाई मेरा जेबखर्च कम करके की जाने लगी है। ब्यूटी कांषेस श्रीमती जी, नई सखियों से नये नये ब्यूटी टिप्स लेकर, मंहगी हर्बल क्रीम, फेस पैक वगैरह के नुस्खे अपनाने लगी है। किटी पार्टी कुछ के लिये आत्म वैभव के प्रदषZन हेतु, कुछ के लिये पति के बॉस की पत्नी की बटरिंग के द्वारा उनकी गुडबुक्स में पहुंचने का माध्यम कुछ के लिये नये फैषन को पकड़ने की अंधी दौड़, तो कुछ के लिये अपना प्रभुत्व स्थापित करने का एक प्रयास कुछ के लिये इसकी - उसकी बुराई भलाई करने का मंच, कुछ के लिये क्लब सदस्यों से परिचय द्वारा अपरोक्ष लाभ उठाने का माध्यम तो कुछ के लिये सचमुच विशुद्ध मनोरंजन होती है । कुछ इसे नेटर्वक माकेटिंग का मंच बना लेती है।
मंगल की दोपहर जब श्रीमती जी तैयार हो लेती है, तो मेरे आफिस की फोन की घंटी खनखना उठती है, और मुझे उन्हें क्लब छोड़ने जाना होता है, लौटते वक्त जरूर वे अपनी किसी सखी से लिफ्ट ले लेती है, जो उन्हें अपनी सरकारी जीप, या पर्सनल ड्राइवर वाली कार में ड्राप कर उपकृत कर देती हैं। उतरते वक्त आइये ना! की औपचारिकता होती है, जिससे बोर होकर आजकल श्रीमती जी मुझसे एक ड्राइवर रख लेने हेतु सिफारिष करने लगी है। क्लब में हाउजी का पारंपरिक गेम होता है, जिस किसी की टर्न होती है, उसकी रूचि, क्षमता एवं योग्यता के अनुरूप सुस्वादु नमकीन-मीठा नाष्ता होता है। चर्चायें होती हैें। गेम आफ द वीक होता है, जिसमें विनर को पुरस्कार मिलता है। मेरी इटेलैक्चुअल पत्नी जब जाती है, ज्यादातर कुछ न कुछ जीत लाती है। आंख बंद कर अनाज पहचानना, एक मिनट में अधिकाधिक मोमबत्तियां जलाना, जिंगल पढ़कर विज्ञापन के प्राडक्ट का नाम बताना, एक रस्सी में एक मिनट में अधिक से अधिक गठाने लगाना, जैसे कई मनोरंजक खेलों से, किटी पार्टी के जरिये हम वाकिफ हुये है। मेरा लेखक मन तो विचार बना रहा है एक किताब लिखन का- गेम्स आफ किटी पार्टीज मुझे भरोसा है, यह बेस्ट सैलर होगी। क्योंकि हर हफ्ते एक नया गेम तलाषने में हमारी महिलायें काफी श्रम कर रही है।
इस हफ्ते मेरी श्रीमती जी `लेडी आफ द वीक´ बनाई गइ्रZ है। यानी इस बार टर्न उनकी हैं। चलतू भाषा में कहें तो उन्हें मुगाZ बनाया गया है नहीं शायद मुर्गी। श्रीमती जी ने सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति देने के अदांज से मेरे सारे मातहत स्टाफ को तैनात कर रखा है, चाट वाले को मय ठेले के क्लब बुलवाया जाना है, आर्डर पर रसगुल्ले बन रहे हैं, एस्प्रेसों काफी प्लाटं की बुकिंग कराई जा चुकी है, हरेक को रिटर्न गिफ्ट की शैली में कुछ न कुछ देने के लिये मेरी किताबों के गिफ्ट पैकेट बनाये गये हैं- ये और बात है कि इस तरह श्रीमती जी लाफ्ट पर लदी मेरी किताबों का बोझ हल्का करने का एक ओर असफल प्रयास कर रही है, क्योंकि जल्दी ही मेरी नई किताब छपकर आने को है। क्या गेम करवाया जावे इस पर बच्चों से, सहेलियों से, बहनों से एसण्टीण्डीण् पर, लम्बे-लम्बे डिस्कषंस हो रहे हैं- मेरा फोन का बिल सीमायें लांघ रहा है। फोन पर कर्टसी काल करके व्यैक्तिक आमत्रंण भी श्रीमती जी अपने क्लब मेम्बरस् को दे रही है। श्रीमती जी की सक्रियता से प्रभावित होकर लोग उन्हें क्लब सेक्रेटरी बनाना चाह रहे है। मैं चितिंत मुद्रा में श्रीमती जी की प्रगति का मूक प्रषंसक बना बैठा हंू। उन्हें चाहकर भी रोक नहीं सकता क्योंकि क्लब से लौटकर जबलपुर चहकते हुये, वे वहां के किस्से सुनाती है, तो उनकी उत्फुल्लता देखकर मैं भी किटी पार्टी में रंग जमाने वाली सुंदर, सुषील, सुगढ़ पत्नी पाने हेतु स्वंय पर गर्व करने का भ्रम पाल लेता हंू। अब कुछ प्रस्ताव किटी पार्टी को आर्थिक लाभों से जोड़ने के भी चल रहे हैं, जिनमें 1,000 रूपये मासिक की बीसी, नेटवर्क माकेZटिंग, सहकारी खरीद, पारिवारिक पिकनिक वगैरह के हैं। आर्थिक सामंजस्य बिठाते हुये, श्रीमती जी की प्रसन्नता के लिये उनकी पार्टी में हमारा पारिवारिक सहयोग बदस्तूर जारी हैं । क्योंकि परिवार की प्रसन्नता के लिये पत्नी की प्रसन्नता सर्वोपरि है।
विवेकरंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर
मो 9425484452