विदेशी शराब की सरकारी दुकान
ये लेखक भी बड़े अजीब किस्म के प्राणी होते हैं, जाने क्यों उन्हें वह सब भी दिखता है, जिसे और लोग देखकर भी नहीं देखते, शहर के मुख्य चौराहे पर गांधी जी की प्रतिमा है, उसके ठीक सामने, मूगंफली, उबले चने, अंडे वालों के ठेले लगते हैं और इन ठेलों के सामने सड़क के दूसरे किनारे पर, लोहे की सलाखों में बंद एक दुकान है, दुकान में रंग-बिरंगी शीषियां सजी हैं लाइट का डेकोरम है,अर्धनग्न तस्वीरों के पोस्टर लगे है, दुकान के ऊपर आधा लाल आधा हरा एक साइन बोर्ड लगा है- `` विदेषी शराब की सरकारी दुकान´´ इस बोर्ड को आजादी के बाद से प्रतिवर्ष नया ठेका मिलते ही, ठेकेदार नये रंग-पेंट में लिखवाकर, तरीके से लगवा देता है पर आम नागरिकों को न यह इबारत समझ आती है न बोर्ड, यह हम जैसे बुिद्धजीवी लेखक टाइप के लोगों को ही दिखता है, दिखता क्या है, गांधी जी के बुत को चिढ़ाता सा चुभता है।
यह दुकान सरकारी राजस्व कोष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष जन कल्याण के बजट के लिये जो मदद सरकार जुटाती है, उसका बड़ा भाग शहर-षहर में फेैली ऐसी ही दुकानलों से एकत्रित होता है। सरकार में एक अदद आबकारी विभाग इन विदेषी शराब की देसी दुकानों के लिये विभाग है, तो मंत्री जी हैं, जिला अधिकारी हैं, सचिव है और इंस्पेक्टर वगैरह भी है। शराब के ठेकेदार है। शराब के अभिजात्य माननीय उपभोक्ता आदि हैं। गांधी जी का बुत गवाह है, देर रात तक, सप्ताह में सातों दिन, दुकान में रौनक बनी रहती है। सारा व्यवसाय नगद पर होता है जबकि शासन को अन्य कार्यक्रम ऋण बांटकर, सिब्सडी देकर करने पड़ते है। सर्वहारा वर्ग के मूंगफली, अंडे और चने के ठेले भी इस दुकान के सहारे ही चलते है। अत: जब कभी चुनाव, होली या गांधी जयंती जैसी तिथियों पर इस दुकान से सारा लेन -देन पिछवाड़े से ब्लैक पर ही हो पाता है, तो ये ठेले वालो अपनी आजीविका के लिये परेषान हो उठते है। प्रतिवर्ष होने वाले ठेकों की नीलामी के समय माहौल तनावपूर्ण हो जाता है, किन्तु कट्टे-वट्टे चलने के बाद भी स्थिति नियंत्रण में बनाये रखने हेतु पुलिस कप्तान, जिलाधीष आदि सक्रिय होते है।
गांधी जी ने जाने क्यों इतने लाभदायक व्यवसाय को कभी समझा नहीं, और शराबबंदी, विदेषी बहिष्कार, जैसी हरकतें करते रहे। आज उनके अनुयायियों ने कितनी विद्वता से हर गांव, हर चौराहे पर, उनके बुत लगवा दिये हैं और सरकारी स्तर पर इतने लाभदायक कार्य कर रहे हैं। कई माननीय मुख्यमंत्री तो आबकारी नीति की सरकारी घोषणा, समीक्षा आदि भी करते रहते हैं और बियर वियर जैसे शीतर पेय, इसी के तहत अब इन सलाखबंद दुकानों से निकलकर दूध की दुकानों तक पहुंच रहे है। हम प्रगति पथ पर अग्रसर हैं। मेरे जैसे जाहिल लोग जिन्होेंने प्राय: सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल ही देखे हैं, ये सरकारी दुकानें देखकर सरकार के प्रति नतमस्तक हैं। और क्यों न हो? यहां मिलने वाला पेय मेड इन इंडिया ही होता है- पर उसे विदेषी का खिताब वेैेसंें ही मिला हुआ है, जैसे किसी विदेषी बहू को हम लोग अमने परिवार में ब्याहकर ठेठ अपनी बना लेते हैं। यह हमारी संस्कृति की विषेषता है। यह हॉट डिंªक, कोल्ड करके पिया जाता है। यह भी इसकी अद्भुत विषेषता है। इस पेय को सरकारी सरंक्षण स्वाभाविक हैं, क्योंकि प्रत्येक महत्वपूर्ण फैेसले जो दूसरे दिन ऑफिस में लिये जातें हैं, वे पूर्व संध्या पर डिनर पॉलिटिक्स में इन बोतलों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इस पेय की क्षमता अद्भुत है, यह आपके सारे गम भुला सकता है। इसके जाम की दोस्ती, अन्य सारे रिष्ते दरकरार कर देती है। मंदिर-मिस्जद बैर कराते, मेल कराती मधुरषाला-हरिवंषराय बच्चन जी की मधुषाला के प्याले का मधुरस यही तो है। इस मधुरस पर क्या टैक्स होगा, यह राजनैतिक पार्टियों का चंदा तय करने का प्रमुख सूत्र है।
आइये खुषी में, गम में, नये वर्ष के स्वागत में, जीत में, हार में, पदोन्नति में, सेवानिवृत्त पर या फिर वैसे ही, अपनी इस सरकारी दुकान से, यह अपने ही देष में बना स्वदेषी, विदेषी पेय खरीदकर इसका रसास्वादन करें और ग्लोबलाइजेषन को महसूस करें।
विवेकरंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर
9425484452
Tuesday, January 27, 2009
Thursday, August 7, 2008
बिजली बैरन भई

बिजली बैरन भई
ज्यादा नहीं कोई पचास सौ बरस पुरानी बात है, तब आज की तरह घर-घर बिजली नहीं थी, कितना आनंद था। उन दिनों डिनर नहीं होता था, ब्यारी होती थी। शाम होते ही लोग घरों में लौट आते थे। संध्या पूजन वगैरह करते थे, खाना खाते थे। गांव - चौपाल में लोक गीत, रामायण भजन आदि गाये जाते थे। िढबरी, लालटेन या बहुत हुआ तो पैट्रोमैक्स के प्रकाष में सारे आयोजन होते थे। दिया बत्ती करते ही लोग जय राम जी की करते थे। राजा महाराओं के यहां झाड़ फानूस से रोषनी जरूर होती थी। और उसमें नाच गाने का रास रंग होता था, महफिलें सजती थी। लोग मच्छरदानी लगा कर चैन की नींद लेते थे और भोर भये मुगोZ की बांग के साथ उठ जाते थे, बिस्तर गोल और खटिया आड़ी कर दी जाती थी।
फिर आई ये बैरन बिजली, जिसने सारी जीवन शैली ही बदल कर रख दी। अब तो जैसे दिन वैसी रात। रात होती ही नहीं, तो तामसी वृत्तियां दिन पर हावी होती जा रही है। शुरू-षुरू में तो बिजली केवल रोषनी के लिए ही उपयोग में आती थी, फिर उसका उपयोग सुख साधनों को चलाने में होने लगा, ठंडक के लिये घड़े की जगह िफ्रज और कूलर, पंखे, एण्सीण् न ले ली। गमीZ के लिये वाटर हीटर, रूम हीटर उपलब्ध हो गए। धोबी की जगह वाषिंग मषीन लग गई । जनता के लिये श्लील-अष्लील चैनल लिये चौबीसो घंटे चलने वाला टीण्वी, सीण्डीण् वगैरह हाजिर है। कम्प्यूटर युग है। घड़ी में रोज सुबह चाबी देनी पड़ती थी, वह बात तो आज के बच्चे जानते भी नहीं आज जीवन के लिये हवा पानी सूरज की रोषनी की तरह बिजली अनिवार्य बन चुकी है। कुछ राजनेताओं ने खुले हाथों बिजली लुटाई, और उसी सब का दुष्परिणाम है कि आज बिजली बैरन बन गई है। बिजली कम है, और उसके चाहने वाले ज्यादा, परिणाम यह है कि वह चाहे जब चली जाती है, और हम अनायास अपंग से बन जाते हैं, सारे काम रूक जाते हैं, इन दिनों बिजली से ज्यादा तेज झटका लगता है- बिजली का बिल देखकर। जिस तरह पुलिस वालों को लेकर लोकोक्तियॉं प्रचलन में है कि पुलिस वालों से दोस्ती अच्छी है न दुष्मनी। ठीक उसी तरह जल्दी ही बिजली विभाग के लोगों के लिए भी कहावतें बन जायेंगी।
बिजली के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि इसे कहीं भरकर नहीं रखा जा सकता, जैसे पानी को टंकी में रखा जा सकता है। किंतु समय ने इसका भी समाधान खोज निकाला है, और जल्दी ही पावर कार्डस हमारे सामने आ जायेंगे। तब इन पावर काड्Zस के जरिये, जहां बिजली का अगि्रम भुगतान हो सकेगा, वही कल के प्रति आष्वस्ति के लिये लोग ठीक उसी तरह ढेरों पावर कार्ड खरीद कर बटोर सकेंगे जैसे आज कई गैस सिलेंडर रखे जाते है। सोचिये ब्लैकनेस को दूर करने वाली बिजली को भी ब्लैक करने का तरीका ढूंढ निकालने वाले ऐसे प्रतिभावान व्यक्तित्व का हमें किस तरह सम्मान करना चाहिए।
बिजली को नाप जोख को लेकर इलैक्ट्रोनिक मीटर की खरीद और उनके लगाये जाने तक, घर-घर से लेकर विधानसभा तक, खूब धमाके हुये। दो कदम आगे, एक कदम पीछे की खूब कदम ताल हुई और जारी है। समवेत स्वर में एक ही आवाज आ रही है। बिजली बैरन भई।
विवेकरंजन श्रीवास्तवब्ण्6ए डण्च्ण्ैण्म्ण्ठण् ब्वसवदल ।कसण् ैनचण् म्दहपदममतए डण्च्ण्ैण्म्ण्ठण् रामपुर, जबलपुर मोण्नंण् 9425484452
ज्यादा नहीं कोई पचास सौ बरस पुरानी बात है, तब आज की तरह घर-घर बिजली नहीं थी, कितना आनंद था। उन दिनों डिनर नहीं होता था, ब्यारी होती थी। शाम होते ही लोग घरों में लौट आते थे। संध्या पूजन वगैरह करते थे, खाना खाते थे। गांव - चौपाल में लोक गीत, रामायण भजन आदि गाये जाते थे। िढबरी, लालटेन या बहुत हुआ तो पैट्रोमैक्स के प्रकाष में सारे आयोजन होते थे। दिया बत्ती करते ही लोग जय राम जी की करते थे। राजा महाराओं के यहां झाड़ फानूस से रोषनी जरूर होती थी। और उसमें नाच गाने का रास रंग होता था, महफिलें सजती थी। लोग मच्छरदानी लगा कर चैन की नींद लेते थे और भोर भये मुगोZ की बांग के साथ उठ जाते थे, बिस्तर गोल और खटिया आड़ी कर दी जाती थी।
फिर आई ये बैरन बिजली, जिसने सारी जीवन शैली ही बदल कर रख दी। अब तो जैसे दिन वैसी रात। रात होती ही नहीं, तो तामसी वृत्तियां दिन पर हावी होती जा रही है। शुरू-षुरू में तो बिजली केवल रोषनी के लिए ही उपयोग में आती थी, फिर उसका उपयोग सुख साधनों को चलाने में होने लगा, ठंडक के लिये घड़े की जगह िफ्रज और कूलर, पंखे, एण्सीण् न ले ली। गमीZ के लिये वाटर हीटर, रूम हीटर उपलब्ध हो गए। धोबी की जगह वाषिंग मषीन लग गई । जनता के लिये श्लील-अष्लील चैनल लिये चौबीसो घंटे चलने वाला टीण्वी, सीण्डीण् वगैरह हाजिर है। कम्प्यूटर युग है। घड़ी में रोज सुबह चाबी देनी पड़ती थी, वह बात तो आज के बच्चे जानते भी नहीं आज जीवन के लिये हवा पानी सूरज की रोषनी की तरह बिजली अनिवार्य बन चुकी है। कुछ राजनेताओं ने खुले हाथों बिजली लुटाई, और उसी सब का दुष्परिणाम है कि आज बिजली बैरन बन गई है। बिजली कम है, और उसके चाहने वाले ज्यादा, परिणाम यह है कि वह चाहे जब चली जाती है, और हम अनायास अपंग से बन जाते हैं, सारे काम रूक जाते हैं, इन दिनों बिजली से ज्यादा तेज झटका लगता है- बिजली का बिल देखकर। जिस तरह पुलिस वालों को लेकर लोकोक्तियॉं प्रचलन में है कि पुलिस वालों से दोस्ती अच्छी है न दुष्मनी। ठीक उसी तरह जल्दी ही बिजली विभाग के लोगों के लिए भी कहावतें बन जायेंगी।
बिजली के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि इसे कहीं भरकर नहीं रखा जा सकता, जैसे पानी को टंकी में रखा जा सकता है। किंतु समय ने इसका भी समाधान खोज निकाला है, और जल्दी ही पावर कार्डस हमारे सामने आ जायेंगे। तब इन पावर काड्Zस के जरिये, जहां बिजली का अगि्रम भुगतान हो सकेगा, वही कल के प्रति आष्वस्ति के लिये लोग ठीक उसी तरह ढेरों पावर कार्ड खरीद कर बटोर सकेंगे जैसे आज कई गैस सिलेंडर रखे जाते है। सोचिये ब्लैकनेस को दूर करने वाली बिजली को भी ब्लैक करने का तरीका ढूंढ निकालने वाले ऐसे प्रतिभावान व्यक्तित्व का हमें किस तरह सम्मान करना चाहिए।
बिजली को नाप जोख को लेकर इलैक्ट्रोनिक मीटर की खरीद और उनके लगाये जाने तक, घर-घर से लेकर विधानसभा तक, खूब धमाके हुये। दो कदम आगे, एक कदम पीछे की खूब कदम ताल हुई और जारी है। समवेत स्वर में एक ही आवाज आ रही है। बिजली बैरन भई।
विवेकरंजन श्रीवास्तवब्ण्6ए डण्च्ण्ैण्म्ण्ठण् ब्वसवदल ।कसण् ैनचण् म्दहपदममतए डण्च्ण्ैण्म्ण्ठण् रामपुर, जबलपुर मोण्नंण् 9425484452
Tuesday, August 5, 2008
जरूरत एक कोप भवन की

जरूरत एक कोप भवन की
by Vivek Ranjan Shrivastava
भगवान श्री राम के युग की स्थापत्य कला का अध्ययन करने में एक विष्ेाष तथ्य उद्घाटित होता है- वह यह कि तब भवन में रूठने के लिये एक अलग स्थान होता था। इसे कोप भवन कहते थे। गुस्सा आने पर मन ही मन घुनने के बजाय कोप भवन में जाकर अपनी भावनाओं का इजहार करने की परम्परा थी। कैकेयी को श्री राम का राज्याभिषेक पसंद नहीं आया वे कोप भवन में चली गई। राजा दषरथ उन्हें मनाने पहुंचे- राम का वन गमन हुआ। मेरा अनुमान है कि अवष्य ही इस कोप भवन की साज-सज्जा, वहां का संगीत, वातावरण, रंग रोगन, फर्नीचर, इंटीरियर ऐसा रहता रहा होगा, जिससे मनुष्य की क्रोधित भावना शांत हो सके, उसे सुकून मिल सके। यह नििष्चत ही शोध का विषय है। बल्कि मेरा कहना तो यह है कि पुरातत्व षास्त्रि़यों को श्री राम जम्न भूमि प्रकरण सुलझाने के लिये अयोध्या की खुदाई में कोप भवन की विषिष्टता का ध्यान रखना चाहिए।
आज पुन: कोप भवन प्रासंगिक हो चला है। अब खिचड़ी सरकारों का युग है, यह सर्वविदित सत्य है कि खिचड़ी में दाल-चावल से ज्यादा महत्व घी, अचार, पापड़, बिजौरा, सलाद, नमक और मसालों का होता है। सुस्वादु खिचड़ी के लिये इन सब की अपनी-अपनी अहमियत होती है, भले ही ये सभी कम मात्रा में हो, पर प्रत्येक का महत्व निर्विवाद है।
प््राी पोल एिक्जट पोल के चक्कर में हो, या कई चरणों के मतदान के चक्कर में, पर हमारे वोटर ने जो `राम भरोसे´ है ऐसा मेन्डेट देना शुरू किया है कि सरकार ही `राम भरोसे´ बन कर रह गई लगती है। राम भक्तों के द्वारा, राम भरोसे के लिये, राम भरोसे चलने वाली सरकार। आम आदमी इसे खिचड़ी सरकार कहता है। खास लोग इसे `एलायन्स´ वगैरह के नाम से पुकारते हैं।
इन सरकारों के नामकरण संस्कार, सरकारों के मकसद वगैरह को लेकर मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैंं, नेता वगैरह ही रूठते हैं, जैसे बचपन में मै रूठा करता था, कभी टॉफी के लिये, कभी खिलौनों के लिये, या मेरी पत्नी रूठती हेै आजकल, कभी गहनों के लिये, कभी साड़ी के लिये, या मेरे बच्चे रूठते हैं, वीण्सीण्डीण् के लिये, एण्सीण् के लिये। देष-काल, परिस्थिति व हैसियत के अनुसार रूठने के मुद्दे बदल जाते हैं, पर रूठना एक `कामन´ प्रोग्राम है।
रूठने की इसी प्रक्रिया को देखते हुये `कोप भवन´ की जरूरत प्रासंगिक बन गई है। कोप भवन के अभाव में बडी समस्या होती रही है। ममता रूठ कर सीधे कोलकाता चली जाती थी, तो जय ललिता रूठकर चेन्नई। बेचारे जार्ज साहब कभी इसे मनाने यहां, तो कभी उसे मनाने वहां जाते रहते थे। खैर अब उस युग का पटाक्षेप हो गया है पर केवल किरदार ही तो बदले हैं। कभी अचार की बाटल छिप जाती है, कभी घी की डिब्बी, कभी पापड़ कड़कड़ कर उठता है, तो कभी सलाद के प्याज-टमाटर-ककड़ी बिखरने लगते हैं- खिचड़ी का मजा किरकिरा होने का डर बना रहता है।
अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधान सभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह एक एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे। इससे सबसे बड़ा लाभ मोर्चाे के संयोजको को होगा। विभाव के बंटवारे को लेकर किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही मांग न माने जाने पर जैसी ही किसी का दिल टूटेगा, वह कोप भवन में चला जाएगा। रेड अलर्ट का सायरन बजेगा। संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुंच, रूठे को मना लेगा- फुसला लेगा। लोकतंत्र पर छाया खतरा टल जायेगा।
जनता राहत की सांस लेगी। न्यूज वाले चैनलों की रेटिंग बढ़ जायेगी। वे कोप भवन से लाइव टेलीकास्ट दिखायेंगे। रूठना-मनाना सार्वजनिक पारदर्षिता के सिद्धांत के अनुरूप, सैद्धांतिक वाग्जाल के तहत पब्लिक हो जायेगा। आने वाली पीढ़ी जब `घर-घर´ खेलेगी तो गुिड़या का कोपभवन भी बनाया करेगी बल्कि, मैं तो कल्पना करता हंूं कि कहीं कोई मल्टीनेषनल `कोप-भवन´ के मेरे इस 24 कैरेट विचार का पेटेन्ट न करवा ले, इसलिये मैं जनता जनार्दन के सम्मुख इस परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा हंू।
मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि कुिण्ठत रहने से बेहतर है, कुण्ठा को उजागर कर बिन्दास ढंग से जीना। अब हम अपने राजनेताओं में त्याग, समर्पण, परहित के भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तो उनके स्वार्थ, वैयक्तिक उपलब्धियों की महत्वकांक्षाओं के चलते, खिचड़ी सरकारों में उनका कुपित होना जारी रहेगा, और कोप भवन की आवष्यकता, अनिवार्यता में बदल जायेगी।
विवेकरंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर
मो 9425484452
श्रीमती जी की किटी पार्टी

श्रीमती जी की किटी पार्टी
विवेकरंजन श्रीवास्तव
c/6 , mpeb colony , rampur ,Jabalpur
पुराने जमाने में महिलाओं की परस्पर गोिष्ठयां पनघट पर होती थी । घर परिवार की चर्चाये, ननद, सास की बुराई, वगैरह एक दूसरे से कह लेने से मनो चिकित्सकों की भाषा में, दिल हल्का हो जाता है, और नई ऊर्जा के साथ, दिन भर काटने को, पारिवारिक उन्नति हेतु स्वयं को होम कर देने की हमारी सांस्कृतिक विरासत वाली `नारी मानसिक रूप से तैयार हो लेती थी। समय के साथ बदलाव आये हैं । अब नल-जल व्यवस्था के चलते पनघट इतिहास में विलीन हो चुके है। स्त्री समानता का युग है। पुरूषों के क्लबों के समकक्ष महिला क्लबों की संस्कृति गांव-कस्बों तक फेैल रही है। सामान्यत: इन क्लबों को किटी-पार्टी का स्वरूप दिया गया है। प्राय: ये किटी पार्टिZयां दोपहर में होती है, जब पतिदेव ऑफिस, और बच्चे स्कूल गये होते है। महिलायें स्वयं अपने लिये समय निकाल लेती है। और मेरी पत्नी इस दौरान सोना, टीण्वीण् धारावाहिक देखना, पत्रिकायें- पुस्तकें पढ़ना, संगीत सुनना, और कुछ समय बचाकर लिखना जैसे शौक पाले हुए थी। पत्र-पत्रिकाओं में उसके लेख पढ़कर, मित्र अधिकारियों की पित्नयां मेरी श्रीमती जी को अपनी किटी पार्टी में शामिल करने की कई पेषकष कर चुकी थी, जिन्हेंं अंत्तोगत्वा उसे तब स्वीकार करना ही पड़ा जब स्वयं जिलाधीष महोदय की श्रीमती जी ने उसे क्लब मैंबर घोषित ही कर दिया। और इस तरह श्रीमती जी को भी किटी पार्टी का रोग लग ही गया।
प्रत्येक मंगलवार को मैं महावीर मंदिर जाता हंूं, अब श्रीमती जी इस दिन किटी पार्टी में जाने लगी है। कल क्या पहनना है, ज्वेलरी, साड़ी से लेकर चप्पलें और पर्स तक इसकी मैंचिग की तैयारियां सोमवार से ही प्रारंभ हो जाती हैं। कहना न होगा इन तैयारियों का आर्थिक भार मेरे बटुये पर भी पड़ रहा है। जिसकी भरपाई मेरा जेबखर्च कम करके की जाने लगी है। ब्यूटी कांषेस श्रीमती जी, नई सखियों से नये नये ब्यूटी टिप्स लेकर, मंहगी हर्बल क्रीम, फेस पैक वगैरह के नुस्खे अपनाने लगी है। किटी पार्टी कुछ के लिये आत्म वैभव के प्रदषZन हेतु, कुछ के लिये पति के बॉस की पत्नी की बटरिंग के द्वारा उनकी गुडबुक्स में पहुंचने का माध्यम कुछ के लिये नये फैषन को पकड़ने की अंधी दौड़, तो कुछ के लिये अपना प्रभुत्व स्थापित करने का एक प्रयास कुछ के लिये इसकी - उसकी बुराई भलाई करने का मंच, कुछ के लिये क्लब सदस्यों से परिचय द्वारा अपरोक्ष लाभ उठाने का माध्यम तो कुछ के लिये सचमुच विशुद्ध मनोरंजन होती है । कुछ इसे नेटर्वक माकेटिंग का मंच बना लेती है।
मंगल की दोपहर जब श्रीमती जी तैयार हो लेती है, तो मेरे आफिस की फोन की घंटी खनखना उठती है, और मुझे उन्हें क्लब छोड़ने जाना होता है, लौटते वक्त जरूर वे अपनी किसी सखी से लिफ्ट ले लेती है, जो उन्हें अपनी सरकारी जीप, या पर्सनल ड्राइवर वाली कार में ड्राप कर उपकृत कर देती हैं। उतरते वक्त आइये ना! की औपचारिकता होती है, जिससे बोर होकर आजकल श्रीमती जी मुझसे एक ड्राइवर रख लेने हेतु सिफारिष करने लगी है। क्लब में हाउजी का पारंपरिक गेम होता है, जिस किसी की टर्न होती है, उसकी रूचि, क्षमता एवं योग्यता के अनुरूप सुस्वादु नमकीन-मीठा नाष्ता होता है। चर्चायें होती हैें। गेम आफ द वीक होता है, जिसमें विनर को पुरस्कार मिलता है। मेरी इटेलैक्चुअल पत्नी जब जाती है, ज्यादातर कुछ न कुछ जीत लाती है। आंख बंद कर अनाज पहचानना, एक मिनट में अधिकाधिक मोमबत्तियां जलाना, जिंगल पढ़कर विज्ञापन के प्राडक्ट का नाम बताना, एक रस्सी में एक मिनट में अधिक से अधिक गठाने लगाना, जैसे कई मनोरंजक खेलों से, किटी पार्टी के जरिये हम वाकिफ हुये है। मेरा लेखक मन तो विचार बना रहा है एक किताब लिखन का- गेम्स आफ किटी पार्टीज मुझे भरोसा है, यह बेस्ट सैलर होगी। क्योंकि हर हफ्ते एक नया गेम तलाषने में हमारी महिलायें काफी श्रम कर रही है।
इस हफ्ते मेरी श्रीमती जी `लेडी आफ द वीक´ बनाई गइ्रZ है। यानी इस बार टर्न उनकी हैं। चलतू भाषा में कहें तो उन्हें मुगाZ बनाया गया है नहीं शायद मुर्गी। श्रीमती जी ने सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति देने के अदांज से मेरे सारे मातहत स्टाफ को तैनात कर रखा है, चाट वाले को मय ठेले के क्लब बुलवाया जाना है, आर्डर पर रसगुल्ले बन रहे हैं, एस्प्रेसों काफी प्लाटं की बुकिंग कराई जा चुकी है, हरेक को रिटर्न गिफ्ट की शैली में कुछ न कुछ देने के लिये मेरी किताबों के गिफ्ट पैकेट बनाये गये हैं- ये और बात है कि इस तरह श्रीमती जी लाफ्ट पर लदी मेरी किताबों का बोझ हल्का करने का एक ओर असफल प्रयास कर रही है, क्योंकि जल्दी ही मेरी नई किताब छपकर आने को है। क्या गेम करवाया जावे इस पर बच्चों से, सहेलियों से, बहनों से एसण्टीण्डीण् पर, लम्बे-लम्बे डिस्कषंस हो रहे हैं- मेरा फोन का बिल सीमायें लांघ रहा है। फोन पर कर्टसी काल करके व्यैक्तिक आमत्रंण भी श्रीमती जी अपने क्लब मेम्बरस् को दे रही है। श्रीमती जी की सक्रियता से प्रभावित होकर लोग उन्हें क्लब सेक्रेटरी बनाना चाह रहे है। मैं चितिंत मुद्रा में श्रीमती जी की प्रगति का मूक प्रषंसक बना बैठा हंू। उन्हें चाहकर भी रोक नहीं सकता क्योंकि क्लब से लौटकर जबलपुर चहकते हुये, वे वहां के किस्से सुनाती है, तो उनकी उत्फुल्लता देखकर मैं भी किटी पार्टी में रंग जमाने वाली सुंदर, सुषील, सुगढ़ पत्नी पाने हेतु स्वंय पर गर्व करने का भ्रम पाल लेता हंू। अब कुछ प्रस्ताव किटी पार्टी को आर्थिक लाभों से जोड़ने के भी चल रहे हैं, जिनमें 1,000 रूपये मासिक की बीसी, नेटवर्क माकेZटिंग, सहकारी खरीद, पारिवारिक पिकनिक वगैरह के हैं। आर्थिक सामंजस्य बिठाते हुये, श्रीमती जी की प्रसन्नता के लिये उनकी पार्टी में हमारा पारिवारिक सहयोग बदस्तूर जारी हैं । क्योंकि परिवार की प्रसन्नता के लिये पत्नी की प्रसन्नता सर्वोपरि है।
विवेकरंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर
मो 9425484452
Friday, July 4, 2008
किसकी बोली कितनी

व्यंग्य
किसकी बोली कितनी
विवके रंजन श्रीवास्तव
एम.पी.एस.ई.बी. कालोनी,
रामपुर, जबलपुर.
अपने क्रिकेट के खिलाडी नीलाम हो गये, सबकी बढ चढ कर बोली लगाई गई . अच्छा हुआ, सब कुछ पारदर्षी तरीको से सबके सामने संपन्न हुआ, इस हम्माम में सब नंगे हैं. वरना बिकते तो पहले भी थे, सटोरियों के साथों, ब्लैक मनी में, अपने जडेजा, अजहर भैया के जमाने मैं। मुझे तो लगता है कि जितना समय देष भर के लोगों का क्रिकेट देखने में लगता है, और उससे जितना काम प्रभावित होता है, उसका सही मूल्यांकन किया जाना चाहिये , और उसके एवज में हमारे सुयोग्य, खिलाडियों की कीमत आॅकी जानी चाहिये. ऐसे मापदण्ड से खिलाडियों की कीमत करोडों में नहीं अरबों में पहॅुच सकेगी. एक और भी अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है, जिसकी भी कंसीडर किया जाना चाहिये , वह है, खिलाडियों से देषवासियों का भावनात्मक लगाव. आखिर हमारे खिलाडी तिरंगे सहित सभी राष्ट्र्ीय प्रतीको का उपयोग करते है, उनकी हेयर स्आईल था युवा अंधानुकरण करते है, कालेज की लडकियां उन पर फिदा रहती है, इन सबकी भी तो गणना होनी ही चाहिये. शक्ति वर्धक पेय, या अन्य विज्ञापनो में इन्हों खिलाडियों को दिखाकर कंपनियां करोडों का व्यापार कर लेती है, यह भावनात्मक लगाव का ही परिणाम है, अतः नीलामी में खिलाडी के केवल खेल के प्रदर्षन पर उसका आकलन ठीक नहीं है, यह तो सरासर खिलाडी की नीलामी कीमत का अवमूल्यन करने की विदेषी साजिष प्रतीत होती है , अच्छे खेल के सहारे लोकप्रियता की सीढीयां चढ जाने के बाद खेल तो साइड बिजनेस रह जात है, यह हमारे खिलाडियों का पुराना फंडा है, मुझे भरोसा है, कि मेरे इतने धारदार तर्को के आधार पर अगली बार क्रिकेट खिलाडियों की नीलामी की आफिषियल बोली तय करने वाली टीम में मुझे भी, अवष्यक ही शामिल किया जावेगा, फिर देेखियेगा कैसे मैं करोडो में मिट्टी मोल बिक रहे अपने नौनिहालो के हीरे के भाव अरबों में बेचूंगा। ये क्या देष का माल देष में नीलाम करके ही लोग खुष हो रहे है, अरे नवचार का जमाना है इंटरनेषनल बिडिंग होनी चाहिये, विदेषी मल्टीनेषनल्स का पैसा भारत आता, तब तो मजा आता चैको-छककों का ।
सब कुछ तो बिकाऊ है , माॅ की कोख, गरीब की किडनी , नेता का चरित्र, अफसर की आत्मा, डाक्टर का दिल, सन्यासी का प्रवचन सब कुछ तो बिकाऊ है। गरीब का दर्द और किसान का कर्ज, वोट में तब्दील करने की टेक्नीक हमारे नेताओं ने डेवेलेप कर डाली है। ऐसे माहौल में. मैं इसी पर खुष हंू कि आज की तारीख तक मेरी बीबी का प्यार और मेरी कलम दोनो अनमोल है, हाॅ मेरी पूरी सैलरी भी मेरे परिवार की मुस्कान खरीदने हेतु कम पड रही है, यह गम जरूर है।
भारतीयों की भरी थाली इस मॅंहगाई का कारण

भारतीयों की भरी थाली इस मॅंहगाई का कारण
व्यंग्य
अरे एक रोटी और लीजीये ना!
विवेक रंजन श्रीवास्तव
एम.पी.एस.ई.बी. कालोनी,
रामपुर, जबलपुर.
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुष्मन सारा जहाॅ हमारा। सचमुच कुछ बात तो है हम मेें । दो टाइम भरपेट खाना खाकर, डकार क्या ले ली, दुनियां में मॅंहगाई बढ गई । जीरो नम्बर के सिंड्र्ोम में फॅसे डाइटिंग करते हुये, अमेरिकन, इतने परेषान हो गये कि उनके राष्ट्र्पति को बयान देना पडा कि भारतीयों की भरी थाली इस मॅंहगाई का कारण है। और लो विष्व बाजार। ये तो होना ही था। हमारे गाॅधी जी ग्राम इकाई की बातें करते थे, जो भला, बुरा, घट, बढ होती थी गांव घर की बात, वहीं की समस्या, वहीं निदान। अब उसे तो माना नहीं, ग्लोबल विलेज का ढांचा खडा कर दिया, तो अब भुगतों। हिन्दी-चीनी आबादी, ही इन देषों की ताकत है, खूब माल खपाया, अमेरिका ने इन देषों में, मछलियों को खिलाने वाला लाल गेहॅू देकर उपकृत किया, नाम कमाया, अब जब हमने पचाने की क्षमता पैदा कर ली, तो इतना दर्द क्यूं ? पराई पतरी के बरे, सबको बडे ही दिखते है। पुरानी कहावत है। दूसरों की रोटियां गिनना बुरी बात है पर यह बात निखालिस हिन्दुस्तानी है, जो अमेरिकनस को समझ नहीं आयेगी।
जब मेंै छोटा था, तो चाकलेट के डिब्बे से एक - एक कर सारी चाकलेट चट कर डालता था। खाती तो दीदी, भी रहती थी, पर हल्ला मेरे नाम का ही रहता था, महीने के पहले हफ्ते में जब किराना आता तो डब्बा चाकलेट से लबालब होता। 4-6 दिनों में ही डब्बा सिर्फ डब्बा बच रहता । महीने के शेष दिनों में यदि कोई छोटा बच्चा घर आता, और चाकलेट की आवष्यकता माहसूस की जाती तो, मेरा नाम लिया जाता। यानी मेरी न्यूसेंस वैल्यू महसूस की जाती। कुछ यह हालात वैष्विक स्तर पर अमेरिका के है। हम भारतीय तो ताल ठोककर दम दे रहे है, तुम रखे रहो अपने परमाणु बम, यदि, ज्यादा नाटक किया तो, हम लोग दिन मेे तीन बार खाना,खाना शुरू कर देंगे, भूखे मर जाओगे तुम लोग। हमारी जनता को दस्त लगेंगे तो हम निपट लेंगे, पर देषं भक्ति के नाम पर, दो चार चपाती और खाकर ही रहेंगे।
मेरी पत्नी का मानना है कि पति के प्यार का परीक्षण,मनुहार भरी, रोटी से होता है । यदि भर पेट भोजन के बाद भी मनुहार करके वह एक रोटी और न खिलाये,तो उसे लगता है कि मै उसे कुछ कम प्यार करने लगा हॅूं। इसलिये भले ही मुझे अभिताभ बच्चन द्वारा विज्ञापित हाजमेला खाकर, अजीर्ण से निपटना पडे पर मैें भोजन के अंत में, श्रीमती जी की मनुहार भरी रोटी, खा ही लेता हॅू। पर बाबू बुष और मैडम राईस के वयानों से मुझे बडी राहत मिली है, अब मैें श्रीमती जी को मॅंहगाई पर काबू पाने के नेक उद्वेष्य से, मनुहार की जबर्दस्त रोटी न परोसने हेतु सहमत कर लेता हॅंू। अब मेरी पत्नी समझने लगी है कि क्यों राज ठाकरे के कल्चर में आधी, और चैथाई तक रोटी परोसने से पहले भी दो दो बार पूछा जाता है , आखिर विष्व स्तर पर महॅंगाई के नियंत्रण का महत्वपूर्ण मसला इसी पर जो टिका है।
अब तो अमेरिका को वर्चुएल रोटी के अनुसंधान में जुट जाना चाहिये। जिससे रोटी को देखकर ही पेट भर जाये । या फिर जैसे बचपन में जलेबी दौड में उचक उचक कर जलेबी खानी पडती थी, कुछ उस तरह लोगों केा हाथ बंाधकर भोजन पर आमंत्रित करने की व्यवस्था व्हाईट हाउस में बानगी के तौेर पर की जानी चाहिये। वैष्खिक मंहगाई नियंत्रित होती ही चाहिये ,और उसके लिये हर वह कदम उठाना चाहिये जो जरूरी है।
शहर में ’’ इंवेस्टर्स मीट ’’

शहर में ’’ इंवेस्टर्स मीट ’’
व्यंग्य
’’ दूध वाले की गली में इंवेस्टर ’’
विवेक रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.
पहले जब मिनिस्टस, आते थे, तो शहर में साफ सफाई विषेष ढंग से होती थी, सडकों के गड्डे भर दिये जाते थे, झंडे, बैनर लगाकर नगर बासी पलक पाॅवडे बिछाकर नेता जी का स्वागत करते थे. अतिथि सत्कार हमारी संस्कृति का हिस्सा है, जब पहली पहली बार मेरे जीजा जी घर आये थे, तब माॅं ने घर के सारे पर्दे नये खरीदे थे. पुराने सोफे पर नये कुषन कवर डाल दिये गये थे. सारे घर की साफ सफाई हुई थी, ऊपर के सारे जाले टेबिल पर खडे होकर मुझे ही निकालने पडे थे. बल्ब की जगह ट्यूबलाईट लगा दी गई थी, और तो और जीजा जी के सामने, घर पर पहनने के लिये पिताजी ने मेरे लिये नाईट सूट भी खरीद दिया था. अपने बालमन के अनुरूप जीजा जी के आने का , मुझ में उजास भर गया था.
इन दिन शहर में बडा उत्साह है. सारी सडकों पर उपरी सतह चुपडी जा रही है. चैराहों पर पोैधा रोपण नहीं , सीधा वृक्षारोपण ही हो रहा है बरसों से बंद पडी स्ट््रीट लाइट बदली जा रही है,षहर के अखबारों में बडे चर्चे है- शहर में ’’ इंवेस्टर्स मीट ’’ होने को है मैने अपने दुधवाले से इस स्वच्छता अभियान के बारे मेें जानना चाहा, तो उसने कहा ’’कौनो इंवेस्टर साहब, आन वाले है’’ हमार गली सोई आ जाते होन ओही को कल्याण हो जातो! मै उसके सामान्य ज्ञान का कायल हुआ। सचमुच इंवेस्टमेट की वास्तविक जरूरत दुधावाले की गली में ही है. काम वाली बाई की गली में है, और सब्जी वाले की बस्ती में भी है. पर फिलहाल में सब खूष है, क्योंकि इन सबको, सपरिवार रात दिन काम मिल रहा है. शहर को दुल्हन सा सजाया जा रहा है, लोगो में उत्साह है. नेताओं को लग रहा है, सरकारी पैसे न सही , इंवेस्टर जी के पैसो से ही सही, शहर, महानगर बन जाये. कुछ हुटर बजाते, कल कारखाने लग जायें. शहर विकास का पहाडा पढने लगें.
देषी, विदेषी इंवेस्टर्स आयेंगे, पाॅच सितारा सुविधाओं के बीच गुफ्तगू करेेंगे कुछ न कुछ हो अच्छा ही होगा. पर फिलहाल शहर ,खुष है , यह सोचकर कि कुछ अच्छा हो रहा है मैं बचपन की उन्हीं यादों में खोया हुआ हूॅं , जिनमें जीजा जी आये थे, तीन चार दिन जब तक जीजा जी घर पर थे, हलुआ ,पुरी, कचैरी, खीर, खूब मजे उडाये थे हमने , अब कुछ बडा हो गया हॅंू , समझने लगा हॅू कि जीजा जी की उस यात्रा में माॅं की गुल्लक गट हो गई थी. खैर! आज के परित्रेक्षय में यही आग्रह है , दुधवाले की जरूर सुन लेना, जो दिन से कह रहा है कभी हमारी गली आना ना इंवेस्टर जी ।
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