Tuesday, December 22, 2020

नव वर्ष तुम्हारा अभिनन्दन

 

वर्ष 2021 के आगमन के अवसर पर
 नव वर्ष तुम्हारा अभिनंदन
प्रोफ़ेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध A1 शिला कुंज जबलपुर

सदियों से जग करता आया नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन 
नई आशा ले करता आया पूजन आराधन विनत नमन
 सबके मन में है उत्सुकता नववर्ष तुम्हारे आने की 
सुख प्रद नवीनता की खुशियां अपने संग संग में लाने की

आओ दे जाओ नवल दृष्टि इस जग में रहने वालों को
 बेमतलब छोटे स्वार्थो हित आपस में उलझने वालों को
 आओ लेकर नूतन प्रकाश इस जग को स्वर्ग बनाने को
 जो दीन दुखी शोषित वंचित उन सब को सुखी बनाने को

 आवश्यक लगता, हो परिवर्तन जन मन के सोच विचारों में
 विद्वेश ना हो सद्भाव बढे आपस के सब व्यवहारों में 
उन्नति हो सबको मिले सफलता सब शुभ कारोबारों  में 
आनंद दायिनी खबरें ही पढ़ने को मिले अखबारों में 

जो कामनाएं पूरी न हुई उनको अब नव आकाश मिले 
जो बंद अंधेरे कमरे हैं उनको सुखदाई प्रकाश मिले 
जो विजय न पाए उनके माथे पर विजय का हो चंदन 
सब जग को सुखप्रद शांति मिले नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन

Sunday, December 20, 2020

विश्व सिटिजिन शिप की मांग का समय है आज



विश्व शांति के लिए दुनिया के पदयात्री--- प्रेमकुमार , 21 वी सदी के साहित्यकारों के मंच पर , प्रो राजेशकुमार से विस्तृत बातचीत

विश्व सिटिजिन शिप की मांग का समय है आज 


        आज "21वीं सदी के साहित्यकार" के बैनर तले "दुनिया मेरे कदमों में" कार्यक्रम के अंतर्गत 'दुनिया को पैदल नापने वाली शख्सियत से मुलाकात' कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे, विश्व पदयात्री प्रेम कुमार। इनसे बातचीत की वरिष्ठ साहित्यकार और भाषाविद डॉ. राजेशकुमार ने। कार्यक्रम की अध्यक्षता की वरिष्ठ व्यंग्यकार और व्यंग्य यात्रा के संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय ने।

          कार्यक्रम का संचालन प्रतिष्ठित व्यंग्यकार परवेश जैन ने किया और दीपा स्वामीनाथन से इष्ट वंदना की। विशिष्ट अतिथियों और श्रोताओं के स्वागत किया दुबई से कवियित्री स्नेहा देव ने। 

         1421 दिन पैदल 17000 किलोमीटर पैदल चलने वाले विश्व पदयात्री प्रेम कुमार  के बारे में विशिष्ट जानकारी दी, वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रभात गोस्वामी ने। उन्होंने बताया कि पैदल चलकर दुनिया नापने और विश्व शांति कायम करने के सपने को पूरा करने वाले अहमदाबाद निवासी प्रेम कुमार  भौतिक शास्त्र और दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं। उन्होंने विभिन्न देशों की यात्रा की और "फ्रेंड्स ऑफ ऑल" नामक संगठन का गठन किया । इन्होंने 2 अक्तूबर,1982 से यात्रा शुरू की जो 6 अगस्त, 1986 तक चली। यह यात्रा यूरोप के विभिन्न देशों से होते हुए अमेरिका, जापान के साथ-साथ देश के अनेक राज्यों की यात्रा की। इस दौरान प्रेम कुमार  को पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी, हरिवंश राय बच्चन, अमृता प्रीतम, अरुणा आसिफ अली का आशीर्वाद मिला। कई पुरस्कारों से सम्मानित भी हुए और सम्मान स्वरूप इन्हें अमरीका के बाल्टीमोर की नागरिकता भी मिली। 

        कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए प्रेम कुमार  से बातचीत आरम्भ की राजेश कुमार  ने। पैदल चलने की सार्थकता के सवाल के जवाब में प्रेम कुमार  ने कहा कि चलना इंसान की स्वाभाविक प्रक्रिया है। किसी भी मकसद के लिए, दुनिया तक अपनी बात पहुंचाने के लिए पदयात्रा करना, लोगों को जानना और भाषा-संस्कृति को समझना एक बहुत ही दिलचस्प बात है। इसके पूर्व भी बुद्ध, जैन, विनोबा भावे, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग ने भी यात्राएं कीं और उनके जो अनुभव रहे उससे उन्हें तो लाभ हुआ ही, दुनिया को भी काफी लाभ मिला। उन्होंने केवल दुनिया को जाना और समझा ही नहीं बल्कि दुनिया को बदलने को भी भरपूर कोशिश की और काफी हद तक अपने मकसद में सफल भी रहे। उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण बात कही कि किसी उद्देश्य के साथ चलने की बात ही कुछ और होती है।

         राजेश जी के एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि हमने मैंने किसी से पानी के अलावा कुछ नहीं मांगा और कभी पैसा अपने पास नहीं रखा। जब राजेश  ने पूछा कि आपके मन में चलने का ख्याल क्यों आया, इस पर प्रेम कुमार  ने जवाब दिया कि कुछ लोग किताबें लिखते हैं, और कुछ के ऊपर किताबों लिखी जाती हैं, तो मेरे मन में कुछ ऐसा ख्याल आया कि हमें कुछ अलग करना चाहिए। कुछ ऐसा करें कि लोग आपके बारे में किताबें लिखना शुरू करें। मैं किताब क्यों लिखूं, दूसरे लोग हमारे बारे में लिखें तो यह एक बड़ी बात होगी। उन्होंने कहा कि यदि विज्ञान और आध्यात्मिकता - दोनों को जोड़ दिया जाए तो इससे बढ़िया और कुछ नहीं। 

         अपनी यात्रा के अनुभवों के बारे में उन्होंने कहा कि दुनिया के सामने चार प्रश्न हैं -- राष्ट्रवाद, अमीर-गरीब की खाई, रंग-नस्ल का भेद और धार्मिक असहिष्णुता। यदि इन चारों को दुनिया से दूर करना है, मिटाना है तो हमें पहले दुनिया को समझना पड़ेगा। दुनिया को बहुत करीब से देखना पड़ेगा। दुनिया के अधिकांश देश चाहे एक प्रश्न से या दो प्रश्न से या चारों -- इन्हीं प्रश्नों से जूझ रहे हैं। हमें इनका हल निकालना पड़ेगा। उन्होंने अमेरिका की स्थिति के बारे में भी बात की कि किस तरह से वहां लोग परेशान हैं। 

         जब राजेश  ने कुछ रोचक संस्मरण के बारे में पूछा तो उन्होंने चेकोस्लोवाकिया के एक ट्रक ड्राइवर का उल्लेख करते हुए कहा कि मिखाइल मावलोविच नामक एक ट्रक ड्राइवर का उल्लेख किया। रास्ते में जब 'विश्व शांति के लिए पदयात्रा' बैनर लेकर आगे बढ़ रहे थे, तो रुक कर उसने उन्हें पानी पिलाया, साथ पैदल चलने के लिए उसकी कंपनी ने उसे छुट्टी दी और वह 10 दिनों तक उनके साथ पैदल चलता रहा। उन्होंने अमेरिका में पैदल यात्रा की रोचक दास्तान सुनाई। एक छोटे लड़के दोस्ती बढ़ाने के लिए उनकी तरफ हाथ बढ़ाया। उन्होंने कहा कि पैदल यात्रा दोस्ती बढ़ाने की यात्रा है, दोस्ती का पुल बनाने की यात्रा है।

       बातचीत के उपरांत प्रश्न-उत्तर में सत्र रामस्वरूप  के प्रश्न के जवाब में प्रेम कुमार  ने कहा कि दो प्रकार की ताकते हैं --- एक जोड़ने की और दूसरा तोड़ने की। हमें इन्हीं दो प्रश्नों से, इन्हीं दो ताकतों से पार पाना होगा। उन्होंने कहा कि उन्हीं देशों ने प्रगति की है जिन्होंने दूसरों के लिए दरवाजे खोले हैं। 

विवेक रंजन श्रीवास्तव ने विश्व शांति के उद्देश्य से की गई उनकी पदयात्रा  के संदर्भ में कहा कि अब ग्लोबल सिटीजन शिप की जरूरत लगती है , पक्षी तो मुक्त गगन में बिना वीसा या पासपोर्ट के साइबेरिया से भारत की यात्रा करते हैं पर इंसानो के लिए बार्डर हैं सरकारें हैं । आज आवश्यकता है कि अंतरिक्ष , विज्ञान , अन्वेषण आविष्कार पर मानव मात्र का अधिकार घोषित हो । यह समय विश्व सरकार का समय है ।  जिससे प्रेमकुमार जी ने समर्थन व्यक्त किया ।

           रणविजय राव के प्रश्न के जवाब में प्रेम कुमार  ने कहा कि रास्ते में कठिनाइयां आती हैं और बहुत आती हैं, लेकिन जब हम किसी उद्देश्य को लेकर चलते हैं तो वे कठिनाइयां बहुत छोटी लगने लगती हैं। उन्होंने कहा कि लोग मदद के लिए आते हैं और अपनी इतनी रातों में उन्हें केवल आठ रातें सड़कों पर गुजारनी पड़ीं।

         प्रेम कुमार ने 'प्याज' पर व्यंग्य कविता सुनाकर अपनी काव्य प्रतिभा का भी परिचय दिया। प्याज के छिलके, प्याज की उपयोगिता और प्याज के घटते-बढ़ते दामों पर बहुत ही रोचक और उम्दा कविता सुनाई।

वरिष्ठ कवि डॉ. संजीव कुमार ने कोरोना से पीड़ित होते हुए भी कार्यक्रम में शिरकत करके अपना जज़्बा दिखाया, और कहा कि प्रेम कुमार जी के संस्मरण अद्भुत और विरल हैं, और वे उन्हें प्रकाशित करके लोगों के हित के लिए सामने लाना चाहेंगे।


         अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. प्रेम जनमेजय ने कहा कि प्रेम कुमार  के सामने जो उद्देश्य हैं, जो उद्देश्य लेकर वह चल रहे हैं, हम सब उनके सामने बौने हैं। उन्होंने कहा कि प्रेम कुमार  एक पाठशाला हैं और हम सब उस पाठशाला के विद्यार्थी। उन्होंने कहा कि पर्यटन हमारा स्वार्थ होता है, पर पदयात्रा के लिए हमारा कोई मकसद होता है। प्रेम कुमार  पहाड़ों और जंगलों में पगडंडियां बनाने वाले हैं। वे अपने हाथ में कुदाल लेकर चलते हैं जो एक बहुत बड़ी बात है। उन्होंने कहा कि पदयात्रा हमें श्रमशील होना सिखाती है और जिम्मेदारियों का एहसास कराती है। 


         जापान की राजधानी टोकियो से प्रेम कुमार  की अर्धांगिनी तोमो  ने भी अपनी बात रखी। उन्होंने प्रेम  के बारे में कई रोचक दास्तान सुनाए। उन्होंने बड़ी बेबाकी से अपने अनुभव हिंदी भाषा में साझा की जिसे सुनकर हम सभी दर्शकों को बहुत खुशी हुई। कार्यक्रम में प्रेम कुमार  की तीनों बेटियां अलग-अलग देशों --- कनाडा, फ़्रांस और जापान से जुड़ी थीं। 

          धन्यवाद ज्ञापन किया वरिष्ठ व्यंग्यकार और कवि डॉ. लालित्य ललित ने। ललित  ने प्रेम कुमार  के दोस्ती के प्रसंग का उल्लेख करते हुए उन्होंने भी अपने घर का पता बताया जिसे सुनकर हम सभी मुस्कुराए बिना नहीं रहे। उन्होंने कहा कि यह बहुत ही अनोखा और अनूठा कार्यक्रम रहा, आज देश और दुनिया के अनेक जगहों से लोग जुड़े और एक रोचक संस्मरण हमें सुनने को मिला। 


          तकनीकी सहयोग दिया लोकप्रिय साहित्यकार सुरेश कुमार मिश्र  ने। कार्यक्रम में देश और दुनिया सहित समूह के सदस्य बड़ी संख्या में जुड़े रहे।

बता दूं क्या / पुस्तक चर्चा

 पुस्तक चर्चा

बता दूं क्या...

व्यंग्य संग्रह  

संपादन .. डा प्रमोद पाण्डेय

सह संपादक .. राम कुमार

पृष्ठ १४४ , मूल्य २९९ रु हार्ड कापी

ISBN 9788194815273

वर्ष २०२०

आर के पब्लिकेशन , मुम्बई

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , जबलपुर


महाराष्ट्र के राजभवन में , राज्यपाल कोशियारी जी ने विगत दिनो आर के पब्लिकेशन , मुम्बई

से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह बता दूं क्या... का विमोचन किया . संग्रह में देश के चोटी के पंद्रह व्यंग्यकारो के महत्वपूर्ण पचास सदाबहार व्यंग्य लेख संकलित हैं . एक मराठी भाषी प्रदेश से प्रकाशन और फिर बड़े गरिमामय तरीके से राज्यपाल जी द्वारा विमोचन यह रेखांकित करने को पर्याप्त है कि हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है . लगभग सभी समाचार माध्यमो से इस किताब के विमोचन की व्यापक चर्चा देश भर में हो रही है .

पाठक व्यंग्य पढ़ना पसंद कर रहे हैं . लगभग प्रत्येक समकालीन घटना पर व्यंग्य लेखन , त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में पहचान स्थापित कर चुका है . यह समय सामाजिक , राजनैतिक , साहित्यिक विसंगतियो का समय है . जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है , वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है . हर अखबार संपादकीय पन्नो पर प्रमुखता से रोज ही स्तंभ के रूप में व्यंग्य प्रकाशन करते हैं . ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है , व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा , उसकी उपेक्षा करते हुये , व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं . ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं . पर इन सारी परिस्थितियो के बीच चिरकालिक विषयो पर भी क्लासिक व्यंग्य लेखन हो रहा है . यह तथ्य बता दूं क्या... में संकलन हेतु चुने गये व्यंग्य लेख स्वयमेव उद्घोषित करते हैं . जिसके लिये युवा संपादक द्वय बधाई के सुपात्र है .

बता दूं क्या... पर टीप लिखते हुये प्रख्यात रचनाकार सूर्यबाला जी आश्वस्ति व्यक्त करती है कि अपनी कलम की नोंक तराशते वरिष्ठ व युवा व्यंग्यकारो का यह संग्रह व्यंग्य की उर्वरा भूमि बनाती है . निश्चित ही इस कृति में पाठको को व्यंग्य के कटाक्ष का आनंद मिलेगा , विडम्बनाओ पर शब्दो का अकाट्य प्रहार मिलेगा , व्यंग्य के प्रति रुचि जागृत करने और व्यंग्य के शिल्प सौष्ठव को समझने में भी यह कृति सहायक होगी . हय संग्रह किसी भी महाविद्यालयीन पाठ्य क्रम का हिस्सा बनने की क्षमता रखती है क्योंकि इसमें में पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी , डा हरीश नवल , डा सुधीर पचौरी , श्री संजीव निगम , श्री सुभाष काबरा , श्री सुधीर ओखदे , श्री शशांक दुबे , श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव , डा वागीश सारस्वत , सुश्री मीना अरोड़ा , डा पूजा कौशिक , श्री धर्मपाल महेंद्र जैन , श्री देवेंद्रकुमार भारद्वाज , डा प्रमोद पाण्डेय व श्री रामकुमार जैसे मूर्धन्य , बहु प्रकाशित व्यंग्य के महारथियो सहित युवा व्यंग्य शिल्पियो के स्थाई महत्व के दीर्घ कालिक व्यंग्य प्रकाशित किये गये हैं . व्यंग्यकारो में व्यवसाय से चिकित्सक , इंजीनियर , बैंककर्मी , शिक्षाविद , राजनेता , लेखक , संपादक , महिलायें , मीडीयाकर्मी , विदेश में हिन्दी व्यंग्य की ध्वजा लहराते व्यंग्यकार सभी हैं , स्वाभाविक रूप से इसके चलते रचनाओ में शैलीगत भाषाई विविधता है , जो पाठक को एकरसता से विमुक्त करती है .

किताब का शीर्षक व्यंग्य युवा समीक्षक डा प्रमोद पाण्डेय व कृति के संपादक का है , जिसमें उन्होने एक प्रश्न वाचक भाव बता दूं क्या .. को लेकर मजेदार व्यंग्य रचा है .आज जब सूचना के अधिकार से सरकार पारदर्शिता का स्वांग रच रही है ,एक क्लिक पर सब कुछ स्वयं अनावृत होने को उद्यत है , तब भी  सस्पेंस , ब्लैकमेल से भरा हुआ यह वाक्य बता दूं क्या किसी की भी धड़कने बढ़ाने को पर्याप्त है , क्योकि विसंगति यह है कि हम भीतर बाहर वैसे हैं नही जैसा स्वयं को दिखाते हैं . डा प्रमोद पाण्डेय के ही अन्य व्यंग्य भावना मर गई तथा गाली भी किताब का हिस्सा हैं . केनेडा के धर्मपाल महेंद्र जैन की तीन रचनायें साहब के दस्तखत , कलमकार नारे रचो व महालक्षमी जी की दिल्ली यात्रा प्रस्तुत की गई हैं . श्री देवेनद्र कुमार भारद्वाज की रचनायें काला धन , कलम किताब और स्त्री नरक में परसू , इश्तिहारी शव यात्रा व किट का कमाल , और रिटेलर चीफ गेस्ट का जमाना हैं .विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं  उनकी कई किताबें छप चुकी हैं कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं ,दृष्टि गंभीर है " आत्मनिर्भरता की उद्घोषणा करती सेल्फी" , "आभार की प्रतीक्षा" , और "श्रेष्ठ रचनाकारो वाली किताब के लिये व्यंग्य " उनकी प्रस्तुत रचनायें हैं . जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें सबसे बड़ी उपलब्धि पद्मश्री डा ज्ञान चतुर्वेदी जी के व्यंग्य " मार दिये जाओगे भाई साब " एवं "सुअर के बच्चे और आदमी के" हैं ये व्यंग्य इंटरनेट या अन्य स्थानो पर पूर्व सुलभ स्थाई महत्व की उल्लेखनीय रचनायें हैं  . डा हरीश नवल जी की छोटी हाफ लाइनर ,बड़े प्रभाव वाली रचनायें हैं " गांधी जी का चश्मा" , लाल किला और खाई , चलती ट्रेन से बरसती शुचिता , वर्तमान समय और हम , अमेरिकी प्याले में भारतीय चाय . ये रचनायें वैचारिक द्वंद छेड़ते हुये गुदगुदाती भी हैं . डा सुधीश पचौरी साहित्यकार बनने के नुस्खे बताते हैं , हवा बांधने की कला सिखाते और हिन्दी हेटर को प्रणाम करते दिखते हें .  गहरे कटाक्ष करते हुये संजीव निगम ने "ताजा फोटो ताजी खबर" लिखा है , उनकी "अन्न भगवान हैं हम पक्के पुजारी" तथा तारीफ की तलवार , स्पीड लेखन की पैंतरेबाजी , एवं तकनीकी युग के श्रवण कुमार पढ़कर समझ आता है कि वे बदलते समय के सूक्ष्म साक्षी ही नही बने हुये हैं अभिव्यक्ति की उनकी क्षमतायें भी उन्हें लिख्खाड़ सिद्ध करती हैं . सुभाष काबरा जी वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं , उनके तीन व्यंग्य संकलन में शामिल हैं , बोरियत के बहाने , अपना अपना बसंत एवं विक्रम बेताल का फाइनल किस्सा . सुधीर ओखदे जी बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं , उनकी रचना सिगरेट और मध्यमवर्गीय , ईनामी प्रतियोगिता , व आगमन नये साहब का  पठनीय रचनायें हैं . शशांक दुबे व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना स्थापित नाम हैं . दाल रोटी खाओ , आपरेशन कवर , रद्दी तो रद्दी है उनकी महत्वपूर्ण रचनाये ली गई हैं . डा वागीश सारस्वत परिपक्व संपादक संयोजक व स्वतंत्र रचनाकार हैं , उन्होंने अपने व्यंग्य दीपक जलाना होगा , होली उर्फ इंडियन्स लवर्स डे , चमचई की जय हो , बेचारे हम के माध्यम से स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं .

महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है . मीना अरोड़ा के व्यंग्य जिन चाटा तिन पाईयां , भविष्य की योजना , योजना में भविष्य अलबेला सजन आयो रे , हेकर्स , टैगर्स , हैंगर्स उल्लेखनीय है . डा पूजा कौशिक बेचारे चिंटुकेश्वर दत्त , बुरे फंसे महाराज , पर्स की आत्मकथा लिखकर सहभागी हैं .

पुस्तक में व्यंग्य लेखों के एवं लेखको के चयन हेतु संपादक डा प्रमोद पाणडेय  व प्रकाशक तथा सह संपादक श्री रामकुमार बधाई के पात्र हैं .  सार्थक , दीर्घकालिक चुनिंदा व्यंग्य पाठको को सुलभ करवाने की दृष्टि से सामूहिक  संग्रह का अपना अलग महत्व होता है , जिसे दशको पहले तारसप्तक ने हिन्दी जगत में स्थापित कर दिखाया था , उम्मीद जागती है कि यह व्यंग्य संग्रह , व्यंग्य जगत में चौदहवी का चांद साबित होगा और ऐसे और भी संग्रह संपादक मण्डल के माध्यम से हिन्दी पाठको को मिलेंगे  . शुभेस्तु .


 


Thursday, December 17, 2020

पुस्तक चर्चा लाकडाउन व्यंग्य संग्रह संपादन .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

 पुस्तक चर्चा

लाकडाउन

व्यंग्य संग्रह  

संपादन .. विवेक रंजन श्रीवास्तव  


पृष्ठ १६४ , मूल्य ३५० रु

IASBN 9788194727217

वर्ष २०२०

रवीना प्रकाशन , गंगा विहार , दिल्ली

चर्चाकार .. डा साधना खरे , भोपाल


हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है . पाठको को व्यंग्य में कही गई बातें पसंद आ रही हैं .   व्यंग्य लेखन घटनाओ पर त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति का सशक्त मअध्यम बना है . जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है , वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है . ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है , व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा , उसकी उपेक्षा करते हुये , व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं . ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं .

विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं . उनकी कई किताबें छप चुकी हैं . उन्होने कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है . उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं . दृष्टि गंभीर है . विषयो की उनकी सीमायें व्यापक है .

वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया . दुनिया घरो में लाकडाउन हो गई . इस पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी . वैश्विक संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना . ऐसे समय में भी रचनात्मकता नही रुक सकती थी . कोरोना काल निश्चित ही साहित्य के एक मुखर रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा . इस कालावधि में खूब लेखन हुआ . इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक , गूगल मीट , जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हो रहे हैं . यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है .  विवेक जी ने भी रवीना प्रकाशन के माध्यम से कोरोना तथा लाकडाउन विषयक विसंगतियो पर केंद्रित व्यंग्य तथा काव्य रचनाओ का अद्भुत संग्रह लाकडाउन शीर्षक से प्रस्तुत किया है . पुस्तक आकर्षक है . संकलन में वरिष्ठ , स्थापित युवा सभी तरह के देश विदेश के रचनाकार शामिल किये गये हैं .

गंभीर वैचारिक संपादकीय के साथ ही रमेशबाबू की बैंकाक यात्रा और कोरोना तथा महादानी गुप्तदानी ये दो महत्वपूर्ण व्यंग्य लेख स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के हैं , जिनमें कोरोना जनित विसंगति जिसमें परिवार से छिपा कर की गई बैंकाक यात्रा तथा शराब के माध्यम से सरकारी राजस्व पर गहरे कटाक्ष लेखक ने किये हैं , गुदगुदाते हुये सोचने पर विवश कर दिया है .

जिन्होने भी कोरोना के आरंभिक दिनो में तबलीकी जमात की कोरोना के प्रति गैर गंभीर प्रवृत्ति और टीवी चैनल्स की स्वयं निर्णय देती रिपोर्टिग देखी है उन्हें जहीर ललितपुरी का व्यंग्य लाकडाउन में बदहजमी पढ़कर मजा आ जायेगा . डा अमरसिंह का लेख लाकडाउन में नाकडाउन में हास्य है, उन्होने पत्नी के कड़क कोरोना अनुशासन पर कटाक्ष किया है . लाकडाउन के समाज पर प्रभाव भावना सिंह ने मजबूर मजदूर , रोजगार , प्रकृति सारे बिन्दुओ का समावेश करते हुये  पूरा समाजशास्त्रीय अध्ययन कर डाला है .

कुछ जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि ब्रजेश कानूनगो जी का व्यंग्य " मंगल भवन अमंगल हारी " है . उन्होंने संवाद शैली में गहरे कटाक्ष करते हुये लिखा है " उन्हें अब बहुत पश्चाताप भी हो रहा था कि शास्त्रा गृह को समृद्ध करने के बजाय वे औषधि विज्ञान और चिकित्सालयों के विकास पर ध्यान क्यो नही दे पाये " . केनेडा से धर्मपाल महेंद्र जैन की व्यंग्य रचना वाह वाह समाज के तबलीगियों से पठनीय वैचारिक व्यंग्य रचना है . उनकी दूसरी रचना लाकडाउन में दरबार में उन्होंने धृतराष्ट्र के दरबार पर कोरोना जनित परिस्थितियों को आरोपित कर व्यंग्य उत्पन्न किया है . इसी तरह प्रभात गोस्वामी देश के विख्यात व्यंग्यकारो में से एक हैं , कोरोना पाजिटिव होने ने पाजिटिव शब्द को निगेटिव कर दिया है ,उनका व्यंग्य नेगेटिव बाबू का पाजिटिव होना बड़े गहरे अर्थ लिये हुये है ,वे लिखते हैं  हम राम कहें तो वे मरा कहते हैं .  सुरेंद्र पवार परिपक्व संपादक व रचनाकार हैं , उन्होंने अपने व्यंग्य के नायक बतोले के माध्यम से " भैया की बातें में"  घर से इंटरनेट तक की स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किया है . डा प्रदीप उपाध्याय वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं , उनके दो व्यंग्य संकलन में शामिल हैं , "कोरोनासुर का आतंक और भगवान से साक्षात्कार" तथा "एक दृष्टि उत्तर कोरोना काल पर" . दोनो ही व्यंग्य उनके आत्मसात अनुभव बयान करते बहुत रोचक हैं .  कोरोना काल में थू थू करने की परंपरा के माध्यम से युवा व्यंग्यकार अनिल अयान ने बड़े गंभीर कटाक्ष किये हैं , थू थू करने का उनका शाब्दिक उपयोग समर्थ व्यंग्य है . अजीत श्रीवास्तव बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं , उनकी रचना ही  शायद संग्रह का सबसे बड़ा लेख है  जिसमें छोटी छोटी २५ स्वतंत्र कथायें कोरोना काल की घटनाओ पर उनके सूक्ष्म निरीक्षण से उपजी हुई , पठनीय रचनायें हैं . राकेश सोहम व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना चर्चित नाम है , उनका छोटा सा लेख बंशी बजाने का हुनर बहुत कुछ कह जाताने में सफल रहा है . रणविजय राव ने कोरोना के हाल से बेहाल रामखेलावन में बहुत गहरी चोट की है , उन जैसे परिपक्व व्यंग्यकार से ऐसी ही गंभीर रचना की अपेक्षा पाठक करते हैं .

महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है . सबसे उल्लेखनीय नाम अलका सिगतिया का है . लाकडाउन के बाद जब शराब की दूकानो पर से प्रतिबंध हटा तो जो हालात हुये उससे उपजी विसंगती उनकी लेखनी का रोचक विषय बनी " तलब लगी जमात " उनका पठनीय व्यंग्य है .  अनुराधा सिंह ने दो छोटे सार्थक व्यंग्य सांप ने दी कोरोना को चुनौती और वर्क फ्राम होम ऐसा भी लिखा है . छाया सक्सेना प्रभु समर्थ व्यंग्यकार हैं उन्होने अपने व्यंग्य जागते रहो में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं वे लिखती हैं लाकडाउन में पति घरेलू प्राणी बन गये हैं , कभी बच्चो को मोबाईल से दूर हटाते माता पिता ही उन्हें इंटरनेट से पढ़ने  प्रेरित कर रहे हैं , कोरोना सब उल्टा पुल्टा कर रहा है . शेल्टर होम में डा सरला सिंह स्निग्धा की लेखनी करुणा उपजाती है  .सुशीला जोशी विद्योत्तमा की दो लघु रचनायें लाकडाउन व व्यसन संवेदना उत्पन्न करती हैं . राखी सरोज के लेख गंभीर हैं .

गौतम जैन ने अपनी रचना दोस्त कौन दुश्मन कौन में संवेदना को उकेरा है . डा देवेश पाण्डेय ने लोक भाषा का उपयोग करते हुये पनाहगार लिखा है . डा पवित्र कुमार शर्मा ने एक शराबी का लाकडाउन में शराबियो की समस्या को रेखांकित किया है . कोरोना से पीड़ित हम थे ही और उन्ही दिनो में देश में भूकम्प के जटके भी आये थे , मनीष शुक्ल ने इसे ही अपनी लेखनी का विषय बनाया है .डा अलखदेव प्रसाद ने स्वागतम कोरोना लिखकर उलटबांसी की हे . राजीव शर्मा ने कोरोना काल में मनोरंजक मीडीया लिखकर मीडीया के हास्यास्पद , उत्तेजना भरे  , त्वरित के चक्कर में असंपादित रिपोर्टर्स की खबर ली है .व्यग्र पाण्डे ने मछीकी और मास्क में प्रकृति पर लाकडाउन के प्रभाव पर मानवीय प्रदूषण को लेकर कटाक्ष किया है    . एम मुबीन ने कम शब्दो की रचना में बड़ी बातें कह दी हैं . दीपक क्रांति की दो रचनायें संग्रह का हिस्सा हैं , नया रावण तथा मजबूर या मजदूर , कोरोना काल के आरंभिक दिनो की विभीषिका का स्मरण इन्हें पढ़कर हो आता है . महामारी शीर्षक से धर्मेंद्र कुमार का आलेख पठनीय है .

दीपक दीक्षित , बिपिन कुमार चौधरी , शिवमंगल सिंह , प्रो सुशील राकेश , उज्जवल मिश्रा और राहुल तिवारी की कवितायें भी हैं .

कुल मिलाकर  पुस्तक बहुत अच्छी बन पड़ी है , यद्यपि प्रकाशन में सावधानी की जरूरत दिखती है , कई रचनाओ के शीर्षक गलती से हाईलाईट नही हो पाये हैं , रचनाओ के अंत में रचनाकारो के पते देने में असमानता खटकती है .कीमत भी मान्य परमंपरा जितने पृष्ठ उतने रुपये के फार्मूले पर किंचित अधिक लगती है ,  पर फिर भी लाकडाउन में प्रकाशित साहित्य की जब भी शोध विवेचना होगी इस संकलन की उपेक्षा नही की जा सकेगी यह तय है . जिसके लिये संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व प्रकाशक बधाई के पात्र हैं .



 

Saturday, January 18, 2020

किसना अरजुन संवाद वोटिंग बूथ पर



व्यंग्य
पोलिंग बूथ पर किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १ , शिला कुंज , नयागांव , जबलपुर
मो ७०००३७५७९८

अर्जुन जी का नेचर ही थोड़ा कनफुजाया हुआ है . वह महाभारत के टाईम भी एन कुरुक्षेत्र के मैदान में कनफ्यूज हो गये थे , भगवान कृष्ण को उन्हें समझाना पड़ा तब कहीं उन्होनें धनुष उठाया .
पिछले कई दिनो से आज के अरजुन देख रहे थे कि  सत्ता से बाहर हुये नेता गण जनसेवा के लिए बेचैन हो रहे हैं . येन केन प्रकारेण फिर से कुर्सी पा लेने के लिये गुरुकुलों तक में तोड़ फोड़ , मारपीट , पत्थरबाजी सब करवाई जा रही थी . कौआ कान ले गया की रट लगाकर भीड़ को कनफ्यूजियाने का हर संभव प्रयास चल रहा था . तेज ठंड के चलते जो लोग कानो पर मफलर बांधे हुये हैं वे , बिना कान देखे कौए के पीछे दौड़ते फिर रहे हैं . ऐसे समय में ही राजधानी के चुनाव आ गये .  अरजुन जी किसना के संग पोलिंग बूथ पर जा पहुंचे . ठीक बूथ के बाहर वे फिर से कनफुजिया गये . किंकर्तव्यविमूढ़ अरजुन ने किसना से कहा कि ये चारों बदमाश जो चुनाव लड़ रहे हैं मेरे अपने ही हैं . मैं भला कैसे किसी एक को वोट दे सकता हूं ? इन चारों में से कोई भी मेरे देश का भला नही कर सकता . मैँ इन सबको बहुत अच्छी तरह जानता हूं . अरजुन की यह दशा देख इंद्रप्रस्थ पोलिंग बूथ पर लगी लम्बी कतार में ही किसना ने कहा ..
हे पार्थ तुम केवल प्याज की महंगाई की चिंता करो तुम्हें देश की चिंता क्यों सता रही है !
हे पार्थ तुम फ्री बिजली , फ्री पानी , फ्री वाईफाई और मेट्रो में पत्नी के फ्री सफर की चिंता करो तुम्हें भला देश की चिंता का अधिकार किसने दिया है .
हे पार्थ तुम  बेटे के रोजगार की चिंता करो , बेरोजगारी भत्ते की चिंता करो तुम्हें जातियों के अनुपात की  चिंता क्यों !
हे पार्थ तुम शहर की स्मार्टनेस की चिंता करो तुम्हें साफ सफाई के बजट की और उसमें दिख रहे घपले की चिंता नहीं होनी चाहिये  !
हे पार्थ तुम सीमा पर शहीद जवान की शव यात्रा में शामिल होकर देश भक्ति के नारे लगाओ  भला तुम्हें इससे क्या लेना देना कि यदि नेता जी ने बरसों पहले सही निर्णय लिये होते तो जवान के शहीद होने के अवसर ही न आते !
हे पार्थ तुम देश बंद के आव्हान पर अपनी दूकान बन्द करके बंद को समर्थन दो , अन्यथा तुम्हारी दूकान में तोड़फोड़ हो सकती है ,तुम्हें इससे कोई सरोकार नहीं रखना चाहिये कि यह बन्द किसने और क्यों बुलाया ?
हे पार्थ तुम्हें सरदार पटेल , आजाद , सुभाष चन्द्र बोस , सावरकर , विवेकानन्द  या गोलवलकर जी वगैरह को पढ़ने समझने की भला क्या जरूरत तुम तो आज के मंत्री जी को पहचानो उनसे अपने ट्रांसफर करवाओ , सिफारिश करवाओ और लोकतंत्र की जय बोलो व प्रसन्न रहो !
हे पार्थ तुम्हें शाहीन रोड पर  धरना देने के लिए पार्टियों का प्रतिनिधित्व करने या पत्थरबाजी के लिए कश्मीर से दिल्ली तक 500 रु रोज के रोजगार पर सवाल उठाने की कोई जरूरत नहीं तुम मजे से चाय पियो , अखबार पढ़ो , बहस करो , टीवी पर बहस सुनो , कार्यक्रमों की टीआरपी बढ़ाओ .
हे पार्थ तुम्हें सच जानकार भला क्या मिलेगा ? तुम वही जानो जो तुम्हें बताया जा रहा है ! यह जानना तुम्हारा काम नही है कि जिसे चुनाव में पार्टी टिकिट मिली है उसका चाल चरित्र कैसा है , वह सब किसी पार्टी में हाई कमान ने टिकिट के लिए करोड़ो लेने से पहले , या किसी पार्टी ने वैचारिक मंथन कर पहले ही देख लिया होता है .
हे पार्थ वैसे भी तुम्हारे एक वोट से जीतने वाले नेता जी का ज्यादा कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं , सो तुम बिना अधिक संशय किये मतदान केंद्र में जाओ चार लगभग एक से चेहरों में से जिसे तुम देश का कम दुश्मन समझते हो उसे या जो तुम्हें अपनी जाति का , अपने ज्यादा पास दिखता हो उसे अपना मत दे आओ, और जोर शोर से लोकतंत्र का त्यौहार मनाओ .
किसना अरजुन संवाद जारी था , पर मेरा नम्ब्रर  आ गया और मैं अंगुली पर काला टीका लगवाने आगे बढ़ गया .
कुरुक्षेत्र में कृष्ण के अर्जुन को उपदेशों से गीता बन पड़ी थी . आज भी इससे कईयों के पेट पल रहे हैं . कोई गीता की व्याख्या कर रहा है , कोई समझ रहा है , कोई छापकर बेच रहा है . इसी से प्रेरित हो हमने भी अरजुन किसना संवाद लिख दिया है , इसी आशा से कि लोग कानो के मफलर खोल कर अपने कान देखने का कष्ट उठायें , और पोलिंग बूथ पर हुये इस संवाद के निहितार्थ समझ सकें तो समझ लें .  

Saturday, March 16, 2019

मिलीभगत

कृति चर्चा  .. मिली भ
गत

हास्य व्यंग्य का वैश्विक संकलन

संपादक - विवेक रंजन श्रीवास्तव

मूल्यः 400 रू हार्ड बाउंड संस्करण , पृष्ठ संख्या 256

प्रकाशक: रवीना प्रकाशन, दिल्ली-110094

फोन- 8700774571,७०००३७५७९८



तार सप्तक संपादित संयुक्त संकलन साहित्य जगत में बहु चर्चित रहा है . सहयोगी अनेक संकलन अनेक विधाओ में आये हैं , किन्तु मिली भगत इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के वैस्विक संबंधो के चलते सारी दुनिया के अनेक देशो से व्यंग्यकारो ने हिस्सेदारी की है .संपादकीय में वे लिखते हैं कि  “व्यंग्य विसंगतियो पर भाषाई प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है “ .यद्यपि व्यंग्य  अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है , संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है ,  प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में  व्यंग्य है ,यह कटाक्ष  किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग दिखाने के लिए ही होता है . कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता उसकी ढाल है.  हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है , जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है . व्यंग्य के कटाक्ष पाठक को  तिलमिलाकर रख देते हैं . व्यंग्य लेखक के , संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है . शायद व्यंग्य , उन्ही तानो और कटाक्ष का  साहित्यिक रचना स्वरूप है  , जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं . कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है , भी कुछ कुछ व्यंग्य , छींटाकशी , हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है .

      प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्प जीवी होते हैं , क्योकि किसी  घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया  व्यंग्य ,अखबार में फटाफट छपता है , पाठक को प्रभावित करता है , गुदगुदाता है , थोड़ा हंसाता है , कुछ सोचने पर विवश करता है , जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है , जैसे प्रायः नेता जी आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय बताकर अपने काले को सफेद बताने के यत्न करते दिखते हैं . . अखबार के साथ ही व्यंग्य  भी रद्दी में बदल जाता है . उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है . किन्तु  पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये  अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो . मिली भगत ऐसे ही विषयो पर दुनिया भर से अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का कमाल है .

संग्रह में अकारादि क्रम में लेखको को पिरोया गया है . कुल ४३ लेकको के व्यंग्य शामिल हैं .

 अभिमन्यु जैन की रचना  बारात के बहाने मजेदार तंज है उनकी दूसरी रचना अभिनंदन में उन्होने साहित्य जगत में इन दिनो चल रहे स्व सम्ंमान पर गहरा कटाक्ष किया है . अनिल अयान श्रीवास्तव नये लेखक हैं , देश भक्ति का सीजन और  खुदे शहरों में “खुदा“ को याद करें लेख उनकी हास्य का पुट लिये हुई शैली को प्रदर्शित करती है . अलंकार रस्तोगी बड़ा स्थापित नाम है . उन्हें हम जगह जगह पढ़ते रहते हैं साहित्य उत्त्थान का शर्तिया इलाज तथा एक मुठभेड़ विसंगति से में रस्तोगी जी ने हर वाक्य में गहरे पंच किये हैं . अरुण अर्णव खरे वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं , वे स्वयं भी संपादन का कार्य कर चुके हैं , उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं बच्चों की गलती थानेदार और जीवन राम तथा बुजुर्ग वेलेंटाईन , उनकी दोनो हीरचनायें गंभीर व्यंग्य हैं . इंजी अवधेश कुमार ’अवध’ पेशे से इंजीनियर हैं पप्पू - गप्पू वर्सेस संता - बंता एवं सफाई अभिनय समसामयिक प्रभावी  कटाक्ष हैं .डॉ अमृता शुक्ला के व्यंग्य कार की वापसी व बिन पानी सब सून पठनीय हैं . बसंत कुमार शर्मा रेल्वे के अधिकारी हैं वजन नही है और नालियाँ व्यंग्य उनके अपने परिवेश को अवलोकन कर लिखने की कला के साक्षी हैं . ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ सुस्थापित व्यंग्यकार हैं . उनके दोनो ही लेख उपन्यास लिख रहे हैं वे तथा वैकल्पिक व्यवस्था मंजे हुये लेखन के प्रमाण हैं , जिन्हें पढ़ना गुनना मजेदार तो है ही साथ ही व्यंग्य क